राज्यसभा में जस्टिस गोगोईः जूडिशीयरी में जनता के भरोसे पर चोट

Update: 2020-03-18 03:30 GMT

मनु सेबेस्ट‌ियन

केंद्र सरकार ने भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को सेवानिवृत्त‌ि के चार महीने के भीतर ही राज्यसभा के लिए नामित किया है। यह बहसतलब हो सकता है क‌ि वह हालिया दौर के विवादित मुख्य न्यायाधीश हैं, फिर भी यह कदम न्याय‌िक स्वतंत्रता की सुचिंतित प्रवृत्त‌ि पर नए सवाल खड़े करता है।

यह पहली बार नहीं है कि एक पूर्व सीजेआई राज्यसभा का सदस्य बन रहा है। पूर्व सीजेआई न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्रा को सेवानिवृत्ति के सात साल बाद 1998 में कांग्रेस के टिकट पर उच्च सदन के लिए चुना गया था। जस्टिस बहारुल इस्लाम ने 1983 में कांग्रेस के टिकट पर राज्यसभा का चुनाव लड़ने के लिए सुप्रीम कोर्ट के जज के पद से इस्तीफा दे दिया था। उसी साल वह राज्यसभा सदस्य बन गए ‌थे। हालांकि संविधान के अनुच्छेद 80 (3) के तहत एक पूर्व सीजेआई को सेवानिवृत्त‌ि के तुरंत बाद राज्यसभा सदस्य के रूप में नामित किया जाना अभूतपूर्व है।

न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति के बाद की तात्कालिक नियुक्तियों के नुकसान को आसानी से समझा जा सकता है। इस पर व्यापक चर्चा भी होती रही है। पूर्व केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ अधिवक्ता अरुण जेटली ने एक बार स्पष्ट रूप से कहा था, "जजों के सेवानिवृत्ति पूर्व के फैसले सेवानिवृत्ति के बाद की नौकरी की लालच से प्रभावित रहते हैं।"

राज्यसभा में नेता विपक्ष के रूप में उन्होंने 2012 में कहा था, "मेरा सुझाव है कि जजों की सेवानिवृत्ति के बाद (नियुक्ति से पहले) नई नियुक्‍ति के बीच में दो साल का अंतराल होना चाहिए, अन्यथा सरकार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से न्यायपालिका को प्रभावित कर सकती है। देश में स्वतंत्र, निष्पक्ष और स्वच्छ न्यायपालिका का सपना कभी भी हकीकत नहीं बन पाएगा।"

न्यायाधीशों की तत्काल सेवानिवृत्ति के बाद तात्कालिक नियुक्ति: कार्यपालिका और न्यायपालिका का पारस्परिक सौजन्य?

सेवानिवृत्त‌ि के बाद नियुक्तियों के मसले पर जस्टिस आरएम लोढ़ा, टीएस ठाकुर, एसएच कपाड़िया आदि कई पूर्व मुख्य न्यायाधीशों ने सावधान किया है, हालांकि उन पर कभी ध्यान नहीं दिया गया। इसे कई नियुक्त‌ियों में देखा भी जा सकता है, जैसे जस्टिस आरके अग्रवाल को एनसीडीआरसी अध्यक्ष के रूप में नियुक्त करना और जस्टिस एके गोयल को एनजीटी अध्यक्ष बनाना।

फिर भी इन नियुक्तियों के पक्ष में कम से कम एक सुरक्षात्मक तर्क यह मौजूद था कि ये वैधानिक आदेशों के मुताबिक की गई। दरअसल आवश्यक कानूनों के तहत इन पदों पर नियुक्त‌ि के लिए सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की आवश्यकता थी। (हालांकि यह तर्क सेवानिवृत्ति पश्चात तात्कालिक लाभ के लिए संतोषजनक स्पष्टीकरण नहीं है।) न्यायमूर्ति गोगोई की नियुक्ति को जो तर्क संगीन बनाता है, वह यह है कि इतनी जल्दी राज्यसभा सदस्य के रूप में उनकी नियुक्त‌ि की ऐसी कोई वैधानिक अनिवार्यता या औचित्य नहीं था।

सीजेआई गोगोई: चूक और भूल का कार्यकाल

सीजेआई गोगोई की राज्यसभा सदस्‍य के रूप में नियुक्त‌ि के बाद उनका कार्यकाल एक बार फिर चर्चा में है, जिस दौरान सुप्रीम कोर्ट ने अपने कृत्यों और अकर्मण्यता से कई मौकों पर सरकार के हितों की रक्षा की और उसे आगे बढ़ाया।

जैसे, सीबीआई-आलोक वर्मा के मामले में लगभग निरर्थक फैसला; राफेल घोटाले में केंद्र को क्लीन च‌िट देना; चुनावी बॉन्ड योजना को चुनौती देने के मामले की सुनवाई में अनिश्चितकालीन विलंब; कश्मीर बंदियों के मामलों में सरकार से सवाल न करना; अयोध्या के मामले में दिया गया फैसला, जिसकी गंभीरता पर कई सवाल हैं। इन मामलों के जर‌िए सुप्रीम कोर्ट सरकार के एजेंडे के साथ तालमेल बिठाता दिखा था।

न्यायमूर्ति गोगोई की असम-एनआरसी मामले की गड़बड़ी में भी एक प्रमुख भूमिका थी। वह इस मामले में व्यक्तिगत रूप शामिल ‌थे, ‌फिर भी उन्होंने एनआरसी की प्रक्रिया की न्याय‌िक देखरेख को हितों के टकराव के रूप में नहीं देखा। सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के प्रमुख के रूप में भी न्यायमूर्ति गोगोई ने ऐसे संकेत दिए मानों वह केंद्र सरकार के मुताबिक काम कर रहे हों, जैसा कि न्यायमूर्ति कुरैशी के स्थानांतरण और प्रोन्‍नति के तरीके से लगा।

सीजेआई गोगोई के कार्यकाल में देखा गया कि जब नागरिकों ने बुनियादी अधिकारों के उल्लंघन की शिकायत की तो सुप्रीम कोर्ट ने उन पर ध्यान नहीं दिया। हमने देखा कि कई मौकों पर सरकार की कार्यवाइयों पर सवाल नहीं उठाया गया।

न्यायमूर्ति गोगोई ने एक ऐसे व्यक्ति की धुंधली पड़ चुकी छाया के रूप में पद छोड़ा, जिसने जनवरी 2018 की न्यायाधीशों की अभूतपूर्व प्रेस कॉन्फ्रेंस में भाग लिया था, जिसने संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए गोयनका स्मारक व्याख्यान में दिए गए अपने भाषण से सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया था।

प्रेस कॉन्फ्रेंस, गोयनका व्याख्यान, सील्‍ड कवर्स, कॉलेजियम के फैसले व अन्य

यह विडंबना ही है कि जस्टिस गोगोई ने उस संविधान पीठ का भी नेतृत्व किया था, जिसने रोजर मैथ्यू मामले में फैसला सुनाया था, जहां न्यायालय ने सेवानिवृत्ति के बाद की नियुक्तियों की न्यायिक स्वतंत्रता पर पड़ने वाले प्रभावों पर चिंता व्यक्त की थी।

इस मामले में अदालत ने ट्रिब्यूनल नियमों के उस प्रावधान को रद्द कर दिया, जिसके तहत सेवानिवृत्ति के बाद ट्रिब्यूनल सदस्यों की पुनर्नियुक्ति संभव थी। पीठ ने कहा था कि "पुनर्नियुक्ति का प्रावधान किसी सदस्य की स्वतंत्रता को खत्म कर देगा, वह निश्चित रूप से उन मामलों में फैसले देने से हिचकेगा, जिससे उसकी पुनर्नियुक्ति प्रभावित होगी।"

अपने फैसले में न्यायमूर्त‌ि गोगोई ने कहा था कि, "केंद्र या राज्य सरकार को सेवानिवृत्ति के बाद सदस्यों को एक एक न्यायाधिकरण से दूसरे न्यायाधिकरण में दिया गया पुनर्न‌ियुक्त‌ि का विवेकाधिकार न्याय तंत्र में सार्वजनिक विश्वास को कम करता है, जो संप्रभु राष्ट्र के प्रमुख अंगों में से एक के नुकसान के समान है।"

उन्होंने कहा, "यह न्यायपालिका में सरकार के हस्तक्षेप को बढ़ाता है, जो स्वतंत्रता को खतरे में डालने वाला है।"

ये टिप्पणियां न्यायाधिकरण के सदस्यों की नियुक्ति के संदर्भ में की गई थीं, फिर भी न्यायिक स्वतंत्रता से संबंधित सिद्धांत के रूप में संवैधानिक न्यायालयों के संबंध में भी प्रासंगिक हैं।

उक्त मामले में न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की टिप्पणियां भी प्रासंगिक हैं। उन्होंने कहा था, "कुछ पद हो सकते हैं, जिनमें सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को नियुक्त करने की आवश्यकता होती है जैसे कि लोकपाल, लोकायुक्त, मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष, भारत के विधि आयोग के अध्यक्ष आदि। हालांकि यह रोजमर्रा का विषय नहीं बनना चाहिए, विशेष रूप से जब सरकार नियुक्तियां कर रही हो।

यदि सरकार नियुक्तियां करती है और ऐसी ‌नियुक्तियों के लिए न्यायाधीशों, सेवारत या नए सेवानिवृत्त न्यायाधीशों पर विचार किया जाता है तो न्यायपालिका की स्वतंत्रता से समझौता होने की आशंका होती है। इस देश की जनता को अभी भी न्यायपालिका में बहुत विश्वास है। अगर यह महसूस किया जाता है कि नियुक्तियां अन्य कारणों से की जा रही हैं तो यह भरोसा कमजोर होगा।

अधिकांश न्यायाधीश ईमानदारी और अखंडता के उच्च मानकों की अपेक्षाओं पर खरा उतरते हैं, लेकिन इस वास्तविकता से आंखें बंद नहीं की जा सकती है कि कुछ गलत लोग भी हैं। कोई उन लोगों से न्याय की उम्मीद नहीं कर सकता है, जो सेवानिवृत्ति के कगार पर हैं और सेवन‌िवृत्त‌ि की बाद की नियुक्तियों के लिए सत्ता के गलियारों घूमते रहते हैं।"

इन परिस्थितियों में, यह आश्चर्यजनक नहीं लगता कि सीजेआई गोगोई का राज्यसभा के लिए नामांकन एक प्रकार का 'प्रतिदान' है।

उपयुक्तता के बारे में प्रश्न

जस्टिस गोगोई की मौजूदा नियुक्ति न्यायिक स्वतंत्रता के बारे में संस्थागत चिंताओं के अलावा इस पद के लिए व्यक्ति की उपयुक्तता पर भी सवाल उठाती है।

जनता की स्मृति में यह तथ्य अब तक मौजूद है कि जस्टिस गोगोई पर सुप्रीम कोर्ट के एक कर्मचारी ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया गया था। तब उन्होंने खुद पर लगे आरोपों की जांच रुकवाने के लिए अपने कार्यालय की शक्तियों का इस्तेमाल किया था। वह महिला जब यौन उत्पीड़न के आरोपों के साथ सार्वजनिक रूप से सामने आई, तब तब उसे बहुत ही असम्मानजनक और अन्यायपूर्ण तरीके से नौकरी से हटा दिया गया था।

सीजेआई पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाले महिला की बर्खास्तगी क्यों हुई?

यौन उत्पीड़न के उस मामले में आरोप लगाने वाली महिला के पति और परिवार के सदस्यों के खिलाफ भी आपराधिक मामले दर्ज करने और नौकरियों से निलंबन जैसी प्रतिशोधी कार्रवाइयां हुई ‌थी।

महिला के आरोपों को जब मीडिया में रिपोर्ट किया गया तो जस्टिस गोगोई ने पहली प्रतिक्रिया कि रूप में एक बैठक बुलाई थी, जिसमें महिला की गैर मौजूदगी के बावजूद उस पर कई आरोप लगाए गए गए थे। सीजेआई गोगोई ने कहा था कि आरोप "न्यायपालिका को निष्क्रिय" करने का प्रयास है।

उन्होंने कहा था, "20 साल की निःस्वार्थ सेवा के बाद, यह अविश्वसनीय है ... मेरे खाते में 6,80,000 का बैंक बैलेंस है। यही मेरी कुल संपत्ति है। जब मैंने एक न्यायाधीश के रूप में शुरुआत की, तो मुझे बहुत उम्मीद थी। मैं रिटायरमेंट की कगार पर हूं और मेरे पास 6 लाख रुपए है। 6,80,000 के बैंक बैलेंस का यह पुरस्कार 20 साल बाद सीजेआई को मिला है।"

उन्होंने यह उद्गार उस असाधारण कार्यवाही के दरमियान व्यक्त किया था, जिसका शीर्षक था, "इन रिप्लाई: मैटर ऑफ़ ग्रेट पब्लिक इंपोर्टेंस टचिंग ऑफ़ द इंडिपेंडेंस ऑफ ज्यूडिशियरी मेन्‍शन्ड बाई श्री तुषार मेहता, सॉलिसिटर जनरल ऑफ ‌इंडिया।

न्यायमूर्ति गोगोई के पक्ष में केंद्र के शीर्ष कानून अधिकारियों- अटॉर्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल- का खड़ा होना न्यायपालिका और कार्यपालिका के आपसी रिश्तों का संकेत देने के लिए पर्याप्त है।

उसके बाद उस महिला के खिलाफ आरोपों की झड़ी लग गई। कहा गया कि सीजेआई के खिलाफ़ लगे आरोप "फिक्सर और सुप्रीम कोर्ट के नाराज कर्मचारियों" के एक गिरोह की "बड़ी साजिश" का हिस्सा है। साजिश की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट की एक विशेष पीठ ने एक सदस्यीय आयोग का गठन किया, जिसकी जिम्‍मेवारी सुप्रीम कोर्ट के ही पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति एके पटनायक को दी गई।

इस बीच, सुप्रीम कोर्ट के एक इन-हाउस पैनल पारदर्शिता के मानदंडों का पालन किए बगैर आरोपों की जांच की और न्यायमूर्ति गोगोई को बरी कर दिया। महिला ने उस कार्यवाही में भाग नहीं लिया और जांच प्रक्रिया पर सवाल उठाती रही।

हालांकि न्यायमूर्ति गोगोई के रिटायरमेंट के बाद हुई चीजें ने और ज्यादा आश्‍चर्यचकित किया है। जैसे कि यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली महिला को बाद में सुप्रीम कोर्ट में बहाल कर दिया गया। बहाली के फैसले न केवल महिला की शिकायत को विश्वसनीयता प्रदान किया, बल्‍कि उसके खिलाफ लगाए गए "बड़े षड्यंत्र" के आरोपों को भी कमजोर किया।

जस्टिस गोगोई के मामले में न्यायमूर्ति पटनायक आयोग ने पिछले साल सितंबर में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अपनी रिपोर्ट दी थी, हालांकि उसे सार्वजनिक नहीं किया गया और उस पर कोई कार्रवाई भी नहीं की गई है।

अब यहां बड़ा सवाल यह है कि ऐसे चरित्र के व्यक्ति के व्यक्ति को राज्यसभा के लिए नियुक्त किया जाना चाहिए? हालांकि अनुच्छेद 80 (3) के तहत नामांकन के लिए एक शर्त के रूप में 'अच्छे चरित्र' का स्पष्ट उल्लेख नहीं है।

पूर्व सीजेआई पी सदाशिवम को सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद 2014 में केरल का राज्यपाल का नियुक्त किया गया था, तब भी कई सवाल उठा था। लेकिन जस्टिस गोगोई की नियुक्ति के मामले में पिछले सभी मामलों से ज्यादा निर्लज्जता की गई है।  

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