कॉलेजियम के प्रस्तावों को विभाजित करता केंद्र: मानक बनता अपवाद?

Update: 2021-10-16 12:49 GMT

हाईकोर्ट में जजों की बढ़ती वैकेंस‌ी, जो कि स्वीकृत पदों का लगभग 50% हो चुकी है, को भरने के लिए एक मजबूत इरादे का संकेत देते हुए सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने हाल ही में लगातार कई सिफारिशें की हैं।

हाल ही में चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया एनवी रमना ने कहा कि कॉलेजियम मई से अब तक हाईकोर्ट के जजों लिए लगभग 106 सिफारिशें कर चुकी है। इनमें से 68 नामों को कॉलेजियम ने अगस्त-सितंबर में हुई बैठकोंमें अंतिम रूप दिया था ।

पिछले कुछ दिनों में केंद्र सरकार ने उन सिफारिशों में से कुछ को मंजूरी देने के लिए अधिसूचना जारी की है। हाल की अधिसूचनाओं की एक उल्लेखनीय विशेषता कॉलेजियम की सिफारिशों को विभाजित करने की केंद्र की बढ़ती प्रवृत्ति है, जिनमें कुछ नामों को क्‍लियर कर दिया जा रहा है, जबकि कुछ अन्य नामों को रोक लिया जा रहा है।

हाल के उदाहरण:

21 अगस्त को केंद्र ने कलकत्ता हाईकोर्ट के जजों के रूप में 5 न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति को क्लियर कर दिया, जबकि तीन अन्य नामों को अनदेखा कर दिया, जबकि सभी नाम एक ही कॉलेजियम प्रस्ताव में शामिल थे।

6 अक्टूबर को केंद्र ने केरल हाईकोर्ट के अतिरिक्त जज के रूप में एडवोकेट बसंत बालाजी की नियुक्ति को अधिसूचित किया , जबकि उन्हीं के साथ कॉलेजियम द्वारा अनुशंसित तीन अन्य नामों को मंजूरी नहीं दी।

11 अक्टूबर को, राजस्थान हाईकोर्ट में 5 नए जजों, 3 एडवोकेट और 2 न्यायिक अधिकारियों की नियुक्तियों को अधिसूचित करते हुए केंद्र ने उसी कॉलेजियम प्रस्ताव में प्रस्तावित एक अधिवक्ता और एक न्यायिक अधिकारी के नामों की अनदेखी की ।

12 अक्टूबर को केंद्र ने कॉलेजियम द्वारा पदोन्नति के लिए प्रस्तावित वकीलों के 13 नामों में से इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज के रूप में 8 अधिवक्ताओं के नामों को मंजूरी दे दी ।

14 अक्टूबर को केंद्र ने कॉलेजियम द्वारा अनुशंसित 6 नामों में से पटना हाईकोर्ट में तीन जजों की नियुक्तियों को अधिसूचित किया ।

14 अक्टूबर को केंद्र ने बॉम्बे हाईकोर्ट में पदोन्नति के लिए कॉलेजियम द्वारा अनुशंसित चार न्यायिक अधिकारियों में से केवल दो को मंजूरी दी।

कॉलेजियम के दोबारा सिफारिश के मामले में भी नामों को अलग किया गया, जबकि यह केंद्र के लिए बाध्यकारी है। कॉलेजियम ने 24 अगस्त को इलाहाबाद हाईकोर्ट में पदोन्नति के लिए तीन न्यायिक अधिकारियों के नामों को दोबारा भेजा, जबकि 14 अक्टूबर को केंद्र ने सिर्फ एक नाम को मंजूरी दी ।

कॉलेजियम की सिफारिशों को विभाजित करना - एक अपवाद है, जो अब मानक बनता जा रहा है

उल्‍लेखनीय है कि जब केंद्र ने 2014 में वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल सुब्रमण्यम के नाम की मंजूरी को रोकने के लिए कॉलेजियम के प्रस्ताव को एकतरफा विभाजित किया था तो इसकी व्यापक आलोचना हुई थी, क्योंकि इसे एक सुलझी हुई प्रथा से एक अभूतपूर्व विचलन के रूप में देखा गया था।

एक मुखर प्रतिक्रिया में भारत के तत्कालीन चीफ जस्टिस आरएम लोढ़ा ने सीजेआई से परामर्श किए बिना केंद्र द्वारा सुब्रमण्यम के नाम को अलग रखने पर अपनी कड़ी अस्वीकृति व्यक्त की थी।

सीजेआई लोढ़ा ने तत्कालीन कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद को लिखा था, "मैं अपनी जानकारी और सहमति के बिना प्रस्ताव को विभाजित करने की मंजूरी नहीं देता ... भविष्य में, एकतरफा विभाजन की ऐसी प्रक्रिया को कार्यपालिका द्वारा नहीं अपनाया जाना चाहिए"

कॉलेजियम प्रस्ताव के विभाजन का एक ज्वलंत उदाहरण न्यायमूर्ति केएम जोसेफ का मामला है। अप्रैल 2018 में केंद्र ने जस्टिस केएम जोसेफ के नाम को वापस भेजते हुए सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नति के लिए इंदु मल्होत्रा ​​​​के नाम को चुनिंदा रूप से मंजूरी दी, जिनका नाम उसी कॉलेजियम प्रस्ताव में भेजा गया था। केंद्र के इस कदम की बार के कई वरिष्ठ सदस्यों और जजों ने व्यापक निंदा की। जस्टिस केएम जोसेफ ने उत्तराखंड हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस रहते हुए सत्तारूढ़ दल के खिलाफ एक निर्णय दिया था, जिसने इस धारणा को जोड़ा कि उनके नाम को रोकना बाहरी कारकों से प्रेरित था।

पूर्व सीजेआई लोढ़ा ने कहा था, "जस्टिस जोसेफ के साथ जो हुआ है, वह कॉलेजियम की प्रधानता की अवधारणा के खिलाफ है। कॉलेजियम न्यायिक नियुक्तियों का अंतिम मध्यस्थ है। यह [सीजेआई से परामर्श के बिना जस्टिस जोसेफ की फाइल को अलग करना] कुछ स्वीकार्य नहीं है।"

वरिष्ठता से 'छेड़छाड़'

कॉलेजियम के प्रस्ताव को अलग करने से जज की उचित वरिष्ठता प्रभावित होगी। एक बार फिर जस्टिस केएम जोसेफ के मामला का उदाहरण लें। अगस्त 2018 में सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा दोबारा भेजे जाने के बाद केंद्र ने अंततः उनके नाम को मंजूरी दे दी। लेकिन जस्टिस इंदु मल्होत्रा ​​​​की तुलना में उन्हें कम वरिष्ठता का पद लेना पड़ा, जिनके साथ उनका नाम शुरू में कॉलेजियम द्वारा प्रस्तावित किया गया था।

यह बताते हुए कि यह वरिष्ठता के 'छेड़छाड़' के बराबर कैसे है, पूर्व सीजेआई लोढ़ा ने टिप्पणी की थी,

"जब हम जजों के नाम भेजते हैं, और जब यह एक से अधिक होते हैं तो कॉलेजियम कई कारकों को ध्यान में रखता है। जिनमें से एक यह भी है कि सभी कॉलेजियम समय के साथ सीजेआई बनने के लिए उपयुक्त महसूस करते हों। इसलिए जब सूची तैयार की जाती है , सरकार को नाम 1, 2, 3, 4 के क्रमांक में सुझाए जाते हैं। ये क्रमांक यह बताने के लिए दिए जाते हैं कि किसे वरिष्ठ रहना है, किसे CJI बनना है, आदि। इसलिए यदि सरकार नामों को अलग कर रही है तो यह कॉलेजियम द्वारा भेजी गई सूची के साथ छेड़छाड़ करना है।"

एक अन्य उदाहरण केरल हाईकोर्ट के जज ज‌स्टिस पीवी कुन्हीकृष्णन हो सकते हैं। नवंबर 2018 में केंद्र ने एक कॉलेजियम प्रस्ताव में प्रस्तावित चार अन्य नामों को मंजूरी देते हुए उनके नाम की मंजूरी रोक दी थी। हालांकि सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने फरवरी 2019 में उनके नाम को दोहराया लेकिन केंद्र से अंतिम मंजूरी एक साल बाद मार्च 2020 में मिली। शपथ ग्रहण समारोह के दौरान न्यायमूर्ति कुन्हीकृष्णन ने पीड़ादायक प्रतीक्षा के बारे में टिप्पणी की। उन्होंने कहा , "दो साल का इंतजार वास्तव में परेशान करने वाला है, खासकर जब आप नियुक्ति में देरी के कारण के बारे में नहीं जानते हैं।"

इसी तरह, केंद्र द्वारा अंतिम कॉलेजियम प्रस्तावों में से नामों को चुनिंदा रूप से अलग रखने के बाद, महीनों (और कुछ मामलों में वर्षों) के बाद जजों के कम वरिष्ठता की पोजिशन लेने के कई मामले हैं।

नवंबर 2019 में तत्कालीन सीजेआई रंजन गोगोई ने केंद्र द्वारा कॉलेजियम प्रस्तावों को विभाजित करने पर नाखुशी व्यक्त की थी। कॉलेजियम के प्रस्तावों में से नामों को अलग करना, जो अपवाद था, एक नियमित अभ्यास बनता जा रहा है। प्रक्रिया की गोपनीयता के कारण यह एक चिंताजनक प्रवृत्ति है। यह मनमानी के लिए जगह देता है और उन व्यक्तियों को निशाना बनाने के लिए भी, जिन्होंने प्रतिकूल निर्णय दिए हों या कार्यपालिका के खिलाफ वैचारिक रूप से विपरीत रुख अपनाया हो। यह ज्ञात नहीं है कि अलगाव के हालिया उदाहरण कॉलेजियम के साथ किसी परामर्श के बाद किए गए हैं, या क्या वे केंद्र की एकतरफा कार्रवाई थे। अलगाव के कारणों और उस पर कॉलेजियम की प्रतिक्रियाओं के बारे में जनता को अंधेरे में रखा जाता है।

चिंता का एक अन्य कारण छह साल पहले एनजेएसी को रद्द करने के बाद जजों की नियुक्ति के लिए प्रक्रिया के मेमोरेंडम को अंतिम रूप नहीं देना है। एक स्पष्ट रूप से परिभाषित मानदंड वह होना चाहिए, जो उन परिस्थितियों पर मार्गदर्शन प्रदान कर सके जिनमें असाधारण परिस्थितियों में नामों का चयन किया जा सकता है। जजों की नियुक्तियों (जिसकी एनजेएसी के फैसले में पुष्टि की गई थी) में न्यायिक सर्वोच्चता को प्रभावित करने वाले नामों का एकतरफा और मनमाना अलगाव और जजशिप के उम्मीदवारों का मनोबल गिराता है।

( मनु सेबेस्टियन LiveLaw के प्रबंध संपादक हैं। उनका ईमेल manu@livelaw.in और ट्विटर हैंडल @manuvichar है। 

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