दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली यूनिवर्सिटी प्रोफेसर को यौन उत्पीड़न का दोषी ठहराने वाला ICC का फैसला बरकरार रखा
दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर द्वारा दायर उस याचिका को खारिज कर दिया जिसमें उन्होंने आंतरिक शिकायत समिति (ICC) की उस रिपोर्ट को चुनौती दी थी, जिसमें उन्हें छात्राओं और एक पूर्व छात्रा द्वारा लगाए गए यौन उत्पीड़न के आरोपों में दोषी ठहराया गया था। प्रोफेसर की अनिवार्य सेवानिवृत्ति (Compulsory Retirement) के निर्णय को भी कोर्ट ने बरकरार रखा।
जस्टिस सुब्रमण्यम प्रसाद ने कहा कि विश्वविद्यालय की कार्यकारी समिति ने प्रोफेसर को पूरा अवसर दिया था, और बोलकर आदेश न देना पक्षपात का आधार नहीं बनता।
यह याचिका प्रोफेसर अमित कुमार ने दायर की थी जिनके खिलाफ वर्ष 2018 में चार शिकायतें दर्ज की गई थीं—तीन छात्राओं और एक पूर्व छात्रा द्वारा। शिकायतों में प्रोफेसर पर फेसबुक मैसेंजर और व्हाट्सऐप पर आपत्तिजनक और अनुचित संदेश भेजने के आरोप लगे थे। इन शिकायतों को विश्वविद्यालय की आंतरिक शिकायत समिति (ICC) को सौंपा गया।
फरवरी 2018 में प्रोफेसर को कैम्पस में प्रवेश से रोक दिया गया और उन्हें छुट्टी पर भेजा गया। उन्होंने इन आरोपों से इनकार किया और कहा कि छात्राओं ने उनके इरादों को गलत समझा और उनके विरुद्ध विभाग और छात्रों ने षड्यंत्र रचा।
जुलाई 2018 में ICC की कार्यवाही पूरी हुई, और मई 2018 तक शिकायतकर्ताओं और उनके गवाहों के बयान दर्ज हो चुके थे। इसके बाद की देरी प्रोफेसर के व्यवहार के कारण हुई।
ICC ने चारों आरोपों को सिद्ध पाया और प्रोफेसर को दुराचार (Misconduct) का दोषी ठहराया। समिति ने सर्वसम्मति से उनकी अनिवार्य सेवानिवृत्ति की सिफारिश की।
इसके बाद, गवर्निंग बॉडी ने प्रोफेसर को उपस्थित होने का अवसर दिया और शोकॉज नोटिस जारी किया। अक्टूबर 2018 में, उनकी मौखिक प्रस्तुतियों के बाद, गवर्निंग बॉडी ने ICC की सिफारिश स्वीकार की और प्रोफेसर को तत्काल प्रभाव से अनिवार्य सेवानिवृत्त कर दिया, जिसे कुलपति ने भी मंजूरी दी।
हाईकोर्ट में प्रोफेसर ने ICC और जांच समिति की गठन प्रक्रिया, रिपोर्ट की निष्पक्षता और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के उल्लंघन का आरोप लगाया।
कोर्ट ने याचिका खारिज करते हुए कहा:
"यह मामला ऐसा है जहां छात्राओं ने अपने शिक्षक के खिलाफ शिकायत की है। भारतीय सामाजिक मूल्यों में शिक्षकों को उच्च स्थान दिया जाता है, इसलिए छात्राएं इस तरह की शिकायत करने से आमतौर पर कतराती हैं।"
कोर्ट ने प्रोफेसर के फेसबुक और व्हाट्सऐप संदेशों की भाषा को इतनी अश्लील बताया कि उन्हें फैसले में प्रस्तुत करना भी उचित नहीं समझा।
कोर्ट ने कहा,"शिक्षक छात्रों का भविष्य संवारते हैं। ऐसे शिक्षक ही जब यौन उत्पीड़न करें, तो इसका छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ता है। अक्सर छात्राएं ऐसे मामलों की रिपोर्ट करने से हिचकिचाती हैं, और कई बार कॉलेज तक छोड़ देती हैं।"
हालांकि कोर्ट ने यह भी कहा कि POSH कानून का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए और निर्दोष लोगों को सजा नहीं मिलनी चाहिए, लेकिन कार्यान्वयन की प्रक्रिया में मामूली त्रुटियों के आधार पर न्याय का बलिदान नहीं दिया जा सकता।
कोर्ट ने पाया कि:
- ICC का गठन POSH नियमों की धारा 7(7) के अनुरूप हुआ था,
- जांच प्रक्रिया न तो अनुचित थी, न ही मनमानी,
- प्रोफेसर को अपने पक्ष में पूरा अवसर मिला,
- प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं हुआ,
- विश्वविद्यालय ने निर्णय से पहले सभी आवश्यक दस्तावेज और प्रस्तुतियाँ देखीं।
अंततः कोर्ट ने कहा, "याचिकाकर्ता द्वारा उठाए गए सभी बिंदुओं पर फैसला उसके खिलाफ गया है। अतः यह रिट याचिका खारिज की जाती है।"