दिल्ली हाईकोर्ट ने कल यह निर्णय दिया कि भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498A — जो किसी विवाहित महिला के प्रति उसके पति या ससुराल वालों द्वारा की गई क्रूरता को अपराध घोषित करती है — तब भी लागू होगी जब पति-पत्नी के बीच विवाह बाद में अवैध घोषित कर दिया जाए।
जस्टिस नीना बंसल कृष्णा ने कहा,
“पति की परिभाषा की उद्देश्यमूलक व्याख्या करते हुए यह कहा जा सकता है कि ऐसे व्यक्ति भी इसके दायरे में आते हैं जो विवाहिक संबंध में प्रवेश करते हैं, भले ही वह विवाह बाद में तकनीकी रूप से अमान्य घोषित हो जाए। इसलिए धारा 498A आईपीसी लागू रहेगी।”
यह फैसला उस याचिका पर दिया गया जिसमें एक पति ने अपनी दूसरी पत्नी द्वारा दर्ज कराई गई FIR को रद्द करने की मांग की थी।
मामला यह था कि महिला पहले से विवाहित थी और उसके बच्चे भी थे। उसने तलाक लेने के लिए कानूनी मदद के उद्देश्य से याचिकाकर्ता (जो स्वयं एक वकील थे) से संपर्क किया। इसी दौरान वर्ष 2007 में, जब उसका पहला विवाह अभी तक समाप्त नहीं हुआ था, दोनों ने आर्य समाज मंदिर में विवाह कर लिया और कई वर्षों तक साथ रहे। वर्ष 2010 में महिला को उसके पहले विवाह से एकतरफा (ex-parte) तलाक डिक्री मिल गई।
इसके बाद महिला ने याचिकाकर्ता पर दहेज उत्पीड़न, 40 लाख रुपये के गहनों के गबन और संयुक्त बैंक खाते से अवैध निकासी के आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज कराई।
वर्ष 2022 में पारिवारिक न्यायालय ने हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 11 के तहत महिला और याचिकाकर्ता के बीच हुआ विवाह शून्य (Void) घोषित कर दिया, यह कहते हुए कि महिला का पहला विवाह 2010 में ही समाप्त हुआ था।
इसके बाद दोनों पक्षों ने हाईकोर्ट में FIR, चार्जशीट और समन आदेश को रद्द करने की मांग की, यह कहते हुए कि उनका विवाह वैध नहीं था और आरोप झूठे, अस्पष्ट तथा ब्लैकमेलिंग के उद्देश्य से लगाए गए हैं।
जस्टिस कृष्णा ने सुप्रीम कोर्ट के रीमा अग्रवाल बनाम अनुपम मामले में दिए गए फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि “पति” की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है, परंतु जो व्यक्ति किसी महिला के साथ विवाह जैसा संबंध बनाता है और पति के रूप में उसके साथ रहता है, वह भी धारा 498A के दायरे में आएगा, भले ही बाद में वह विवाह अमान्य घोषित कर दिया जाए।
हाईकोर्ट ने कहा कि भले ही बाद में विवाह को शून्य घोषित कर दिया गया, परंतु यह तथ्य नहीं नकारा जा सकता कि दोनों ने पति-पत्नी के रूप में साथ जीवन व्यतीत किया। शिकायत में लगाए गए आरोप भी उसी समयावधि से संबंधित थे जब दोनों पति-पत्नी के रूप में रह रहे थे।
अदालत ने कहा,
“महत्वपूर्ण यह है कि उस समय विवाह को शून्य या अमान्य घोषित नहीं किया गया था; पारिवारिक न्यायालय ने यह घोषणा बाद में 05.05.2022 को की। इसलिए याचिकाकर्ता केवल इसी आधार पर धारा 498A से बच नहीं सकता।”
हालांकि, कोर्ट ने यह भी पाया कि शिकायत और जांच में ऐसा कोई ठोस या प्रथमदृष्टया प्रमाण नहीं है जो क्रूरता या उत्पीड़न को साबित कर सके।
न्यायालय ने कहा कि आरोप “अस्पष्ट, सामान्य और बिना ठोस विवरण वाले” हैं — इनमें न तो विशिष्ट तारीखें हैं और न कोई ठोस परिस्थिति।
अदालत ने निष्कर्ष दिया —
“उत्तरदाता संख्या 2 की शिकायत से IPC की धारा 498A के आवश्यक तत्व सिद्ध नहीं होते। शिकायत और जांच के दौरान संकलित साक्ष्य, यदि पूरे के पूरे सत्य भी मान लिए जाएं, तो भी अपराध साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं।”
इस प्रकार, हाईकोर्ट ने FIR और चार्जशीट दोनों को रद्द कर दिया।