प्रिंसिपल एम्प्लॉयर और कॉन्ट्रैक्टर के ज़रिए रखे गए मज़दूर के बीच कोई मालिक-कर्मचारी संबंध नहीं: दिल्ली हाईकोर्ट
जस्टिस रेनू भटनागर की बेंच वाली दिल्ली हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि कॉन्ट्रैक्टर के ज़रिए रखा गया मज़दूर प्रिंसिपल एम्प्लॉयर का कर्मचारी नहीं होता, अगर दावा करने वाला व्यक्ति विश्वसनीय सबूतों के साथ सीधा मालिक-कर्मचारी संबंध साबित करने में नाकाम रहता है।
मामले के तथ्य
मज़दूर 2001 से इंद्रप्रस्थ गैस लिमिटेड (IGL) में ड्राइववे सेल्स मैन (DSM) के तौर पर काम कर रहा था। उसे 2005 में नौकरी से निकाल दिया गया। उसने दावा किया कि उसकी सेवाएं इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट्स एक्ट का पालन किए बिना गैर-कानूनी तरीके से खत्म की गईं। IGL ने इस बात का विरोध किया कि वह सीधा कर्मचारी नहीं था, बल्कि उसे एक कॉन्ट्रैक्टर के ज़रिए काम पर रखा गया था। मज़दूर ने लेबर कोर्ट में दावा दायर किया।
लेबर कोर्ट ने कहा कि जहां प्रिंसिपल एम्प्लॉयर कॉन्ट्रैक्टर के ज़रिए रखे गए कर्मचारियों की तैनाती, सुपरविज़न और हटाने या बदलने की शक्ति पर पूरा कंट्रोल रखता है तो ऐसा कॉन्ट्रैक्ट दिखावा होता है। इसके अलावा, मैनेजमेंट और कर्मचारियों के बीच मालिक-कर्मचारी संबंध मौजूद होता है। इसलिए लेबर कोर्ट ने उसे पूरे पिछले वेतन के साथ बहाल करने का निर्देश दिया।
इससे नाराज़ होकर IGL ने रिट याचिका दायर करके दिल्ली हाई कोर्ट में इस फैसले को चुनौती दी।
IGL ने तर्क दिया कि मज़दूर को कॉन्ट्रैक्टर के सीधे सुपरविज़न और कंट्रोल में काम पर रखा गया और वह काम कर रहा था। इसलिए मज़दूर असल में कॉन्ट्रैक्टर का कर्मचारी था। इसके अलावा, मज़दूर IGL के साथ अपनी नौकरी साबित करने के लिए कोई अपॉइंटमेंट लेटर, सैलरी स्लिप या मस्टर रोल पेश नहीं कर सका।
यह बताया गया कि पहले मज़दूर को रेगुलराइज़ेशन का दावा इसलिए मना कर दिया गया, क्योंकि उसका स्टेटस कॉन्ट्रैक्टर के ज़रिए रखे गए कॉन्ट्रैक्ट लेबर का था। इसके अलावा, मज़दूर यह भी साबित करने में नाकाम रहा कि उसने नौकरी से निकाले जाने से पिछले साल में 240 दिन काम किया, जो गैर-कानूनी छंटनी के लिए एक कानूनी शर्त है। यह भी बताया गया कि IGL एक सरकारी उपक्रम होने के नाते, उसकी एक तय भर्ती प्रक्रिया थी और मज़दूर के मामले में किसी भी प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया।
दूसरी ओर, मज़दूर ने तर्क दिया कि उसे 2001 से IGL द्वारा सीधे ड्राइववे सेल्स मैन के तौर पर काम पर रखा गया, जो उसके CNG स्टेशनों पर उसके कंट्रोल और सुपरविज़न में काम कर रहा था। उसने दावा किया कि 2005 में उसे नौकरी से निकालना गैर-कानूनी था, क्योंकि यह बिना किसी जांच, नोटिस या इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट्स एक्ट की धारा 25F के अनिवार्य प्रावधानों का पालन किए बिना किया गया।
एम्प्लॉयर-एम्प्लॉई संबंध साबित करने के लिए उसने अपने ओरिजिनल पहचान पत्र, सैलरी शीट, 2001 का दिवाली गिफ्ट रिकॉर्ड, जिसमें उसका नाम था। IGL कर्मचारियों और कॉन्ट्रैक्ट स्टाफ को दिए गए एक्स-ग्रेशिया पेमेंट रिकॉर्ड की कॉपी जैसे डॉक्यूमेंट्स पर भरोसा किया। यह तर्क दिया गया कि IGL यह दिखाने के लिए कोई रिकॉर्ड पेश नहीं कर पाया कि उसका रोज़गार कब और कैसे एक कॉन्ट्रैक्टर को ट्रांसफर किया गया।
कोर्ट के निष्कर्ष
कोर्ट ने पाया कि एम्प्लॉयर-एम्प्लॉई संबंध साबित करने का बोझ दावेदार पर होता है। हालांकि, मज़दूर इसे साबित करने में नाकाम रहा। पहचान पत्र, दिवाली गिफ्ट रिकॉर्ड और एक्स-ग्रेशिया पेमेंट लिस्ट जैसे डॉक्यूमेंट्स में प्रामाणिकता की कमी थी, क्योंकि उन पर मैनेजमेंट की मुहर या स्टैम्प या किसी अधिकृत अधिकारी के हस्ताक्षर नहीं है। इसलिए ये डॉक्यूमेंट्स एम्प्लॉयर-एम्प्लॉई संबंध के अस्तित्व को साबित करने के लिए अपर्याप्त हैं। इसलिए ऐसे डॉक्यूमेंट्स को रोज़गार का पक्का सबूत नहीं माना गया।
यह देखा गया कि मज़दूर के पास IGL से कोई अपॉइंटमेंट लेटर नहीं था। उसे भर्ती प्रक्रिया के बारे में भी पता नहीं था। इसके अलावा, उसे बिना किसी PF या ESI कटौती के कैश में सैलरी मिलती थी। कोर्ट ने पाया कि IGL द्वारा पेश किए गए दस्तावेज़, जैसे कि कॉन्ट्रैक्ट एग्रीमेंट, वेतन रजिस्टर, अटेंडेंस रिकॉर्ड, और PF और ESI दस्तावेज़, जिन्हें कॉन्ट्रैक्टर द्वारा मेंटेन किया जाता था, उनमें मज़दूर का नाम था। यह साबित हुआ कि मज़दूर IGL का नहीं, बल्कि कॉन्ट्रैक्टर का कर्मचारी था। इसके अलावा, मज़दूर के मामले में सरकारी संगठन के लिए भर्ती प्रक्रिया का भी पालन नहीं किया गया। इसलिए वह कभी भी IGL का सीधा कर्मचारी नहीं था।
गोपाल बनाम भारत संचार निगम लिमिटेड के फैसले पर भरोसा करते हुए कोर्ट ने कहा कि कोई भी सरकारी संगठन अपॉइंटमेंट लेटर जारी किए बिना और निर्धारित भर्ती प्रक्रिया का पालन किए बिना नियुक्तियाँ नहीं कर सकता।
इसके अलावा, विनय शर्मा और अन्य बनाम IGL के फैसले पर भरोसा करते हुए कोर्ट ने कहा कि रेगुलराइज़ेशन की मांग करने वाले मज़दूरों के इसी तरह के दस्तावेज़ और दावों को खारिज कर दिया गया, क्योंकि मज़दूरों को कॉन्ट्रैक्टरों के माध्यम से काम पर रखा गया और वे मैनेजमेंट के सीधे कर्मचारी नहीं है।
कोर्ट ने देखा कि औद्योगिक विवाद अधिनियम एक लाभकारी कानून है, लेकिन इसकी व्याख्या इस तरह से नहीं की जा सकती कि ऐसे मामलों में राहत देना सही ठहराया जा सके, जहां दावेदार विश्वसनीय सबूतों के माध्यम से ज़रूरी बुनियादी तथ्यों को स्थापित करने में विफल रहा है।
नतीजतन, लेबर कोर्ट का फैसला कोर्ट द्वारा रद्द कर दिया गया। यह स्पष्ट किया गया कि ID Act की धारा 17B के तहत मज़दूर को मिली सैलरी को मुआवज़ा माना जाएगा। इसलिए मज़दूर को इसे वापस करने की ज़रूरत नहीं है।
उपरोक्त टिप्पणियों के साथ IGL द्वारा दायर रिट याचिका को कोर्ट ने निपटा दिया।
Case Name : Indraprastha Gas Limited vs. Ambrish Kumar