दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला: अचानक हुई ज़ब्ती का वीडियोग्राफ़ी न होना NDPS मामले में बरामदगी को अमान्य नहीं करता

Update: 2025-10-09 12:08 GMT

दिल्ली हाईकोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया है कि किसी आरोपी से कथित मादक पदार्थ की अचानक हुई बरामदगी की वीडियोग्राफी करने या सीसीटीवी फुटेज पेश करने में विफलता मात्र से ज़ब्ती की कार्यवाही अमान्य नहीं हो जाती है।

जस्टिस रविंदर डुडेजा की पीठ ने कहा कि यद्यपि स्वापक औषधि और मनःप्रभावी पदार्थ अधिनियम 1985 (NDPS Act) में ज़ब्ती की वीडियोग्राफी अनिवार्य नहीं है लेकिन भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता 2023 (BNSS) की धारा 105 अब तलाशी और ज़ब्ती को ऑडियो-वीडियो इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से रिकॉर्ड करना अनिवार्य बनाती है।

कोर्ट ने इस बात को स्वीकार किया कि 'बंटू बनाम दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र राज्य' (2024) मामले में हाईकोर्ट ने भी BNSS की धारा 105 को अनिवार्य माना है।

वहीं जस्टिस डुडेजा ने स्पष्ट किया कि,

"सीसीटीवी फुटेज एकत्र न करना या वीडियोग्राफी का अभाव एक कमी हो सकता हैवतथापि इस तरह की चूक अपने आप में ज़ब्ती की कार्यवाही को अमान्य नहीं कर सकती।"

वर्तमान मामले में बरामदगी का समय रात के लगभग 3 बजे था और यह अचानक हुई बरामदगी थी। जज ने माना कि ऐसे मामले में सीसीटीवी फुटेज पेश न कर पाना बरामदगी को खारिज करने का एकमात्र आधार नहीं हो सकता।

न्यायालय ने पहले भी यह टिप्पणी की थी कि NDPS मामलों में तकनीक का उपयोग पुलिस जांच की प्रभावशीलता और पारदर्शिता को बढ़ाता है लेकिन ऐसी स्थितयां हो सकती हैं जहां ऑडियो/वीडियो रिकॉर्डिंग संभव न हो।

यह फैसला एक दोषी द्वारा दायर याचिका पर आया, जिसने 25.086 किलोग्राम गांजा रखने के लिए सुनाई गई 10 साल की कठोर कारावास की सज़ा को निलंबित करने की मांग की थी।

दोषी ने तर्क दिया था कि उसका दोष-सिद्धि केवल पुलिस अधिकारियों की गवाही पर आधारित है और सार्वजनिक स्थान पर बरामदगी के बावजूद कोई स्वतंत्र गवाह नहीं जोड़ा गया। इसके अलावा आस-पास कैमरे लगे होने के बावजूद कोई वीडियोग्राफी या सीसीटीवी फुटेज पेश नहीं की गई।

हाईकोर्ट ने इस तर्क को अस्वीकार कर दिया। न्यायालय ने कहा कि पुलिस गवाहों की गवाही सुसंगत है जो ज़ब्ती मेमो, FSL रिपोर्ट और अभिरक्षा की शृंखला द्वारा उचित रूप से समर्थित है, इसलिए केवल स्वतंत्र गवाहों को शामिल न करने के कारण बरामदगी पर संदेह नहीं किया जा सकता।

कोर्ट ने ज़ोर देकर कहा कि पुलिस अधिकारियों को केवल इसलिए अविश्वसनीय नहीं माना जा सकता क्योंकि वे आधिकारिक गवाह हैं जब तक कि झूठा फंसाने का कोई मकसद सिद्ध न हो।

अतः इन तर्कों के आधार पर हाईकोर्ट ने सज़ा निलंबन की याचिका को खारिज कर दिया।

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