दिल्ली हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट को प्री-ट्रायल स्टेज में शिकायतकर्ताओं को नोटिस जारी करने का निर्देश देने से इनकार किया

Update: 2024-02-08 06:07 GMT

दिल्ली हाईकोर्ट ने राष्ट्रीय राजधानी में ट्रायल कोर्ट को किसी आपराधिक मामले में प्री-ट्रायल स्टेज में शिकायतकर्ता या पीड़ित को अनिवार्य रूप से नोटिस जारी करने का निर्देश देने से इनकार किया।

एक्टिंग चीफ जस्टिस मनमोहन और जस्टिस मनमीत प्रीतम सिंह अरोड़ा की खंडपीठ ने कहा कि इस तरह के निर्देश से ट्रायल में टालने योग्य और अवांछित देरी होने की संभावना है और यह शीघ्र ट्रायल के उद्देश्य के खिलाफ काम करने की संभावना है।

अदालत ने कहा कि अगर इस तरह का सुझाव स्वीकार कर लिया जाता है तो यह 'बीमारी से भी बदतर इलाज' के रूप में काम करेगा।

अदालत ने कहा,

“कानून में ऐसा कोई आदेश नहीं है जो आपराधिक न्यायालय को शिकायतकर्ता/पीड़ित को प्री-ट्रायल स्टेज में नोटिस जारी करने के लिए बाध्य करता हो। हम याचिकाकर्ता के इस सुझाव को स्वीकार करने में असमर्थ हैं कि आपराधिक अदालत के लिए आपराधिक कार्यवाही में प्री-ट्रायल और ट्रायल के हर स्टेज में शिकायतकर्ता/पीड़ित को नोटिस जारी करना अनिवार्य बनाया जाना चाहिए।”

खंडपीठ वकील विवेक कुमार गौरव द्वारा दायर जनहित याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें सभी जिला अदालतों या पुलिस स्टेशनों को शिकायतकर्ताओं को आरोप पत्र या अंतिम रिपोर्ट की कॉपी मुफ्त में उपलब्ध कराने का निर्देश देने की मांग की गई।

याचिका में जिला अदालतों को संज्ञान लेने के समय शिकायतकर्ताओं को नोटिस जारी करने का निर्देश देने की भी मांग की गई, जिससे पीड़ितों को सुनवाई के अपने अधिकार का प्रयोग करने और प्री-ट्रायल आपराधिक कार्यवाही में भाग लेने में सक्षम बनाया जा सके।

याचिका का निपटारा करते हुए खंडपीठ ने कहा कि दिल्ली हाईकोर्ट के नियम यह स्पष्ट करते हैं कि आपराधिक मामले का पक्षकार आवेदन दाखिल करने पर मामले के रिकॉर्ड की प्रतियां प्राप्त करने का हकदार है।

अदालत ने कहा,

"मुफ्त प्रति प्राप्त करने की इच्छुक पक्षकार इस संबंध में आवेदन करके नियम 5 के तहत भी ऐसा कर सकती है।"

इसमें आगे कहा गया कि केंद्र सरकार ने पहले ही सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को एसओपी लागू करने के लिए निर्देश जारी कर दिया, जिसमें कहा गया कि यौन अपराधों के पीड़ितों (महिलाओं और बच्चों) को बिना किसी लागत के आरोप पत्र की कॉपी दी जाएगी।

अदालत ने कहा,

“इसलिए हमारी राय है कि दिल्ली हाईकोर्ट के नियमों के साथ-साथ महिलाओं और बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों से संबंधित मामलों में भारत संघ द्वारा जारी उपरोक्त निर्देशों के मद्देनजर पर्याप्त वैधानिक तंत्र अस्तित्व में है। पीड़ित या शिकायतकर्ता को प्रतियां/प्रमाणित प्रतियां प्राप्त करने और रिट की प्रार्थना (ए) में मांगी गई कोई और दिशा नहीं देने योग्य है।”

दूसरी प्रार्थना के संबंध में खंडपीठ ने कहा कि संज्ञान लेने के समय और सुनवाई से पहले आपराधिक कार्यवाही में शिकायतकर्ता की सुनवाई के अधिकार को सुप्रीम कोर्ट ने जगजीत सिंह बनाम आशीष मिश्रा में मान्यता दी।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जहां भी पीड़ित आपराधिक कार्यवाही में भाग लेने के लिए आगे आएगा, उसे निष्पक्ष और प्रभावी सुनवाई का अवसर दिया जाएगा।

खंडपीठ ने कहा,

“इस प्रकार, जगजीत सिंह बनाम आशीष मिश्रा (सुप्रा) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले और 2008 के संशोधन अधिनियम द्वारा सीआरपीसी में किए गए संशोधनों को ध्यान में रखते हुए पीड़ित/शिकायतकर्ता को यदि वह ऐसा चुनता है तो ट्रायल और ट्रायल की कार्यवाही की पूर्व-प्रक्रिया में प्रभावी ढंग से भाग लेने के लिए पर्याप्त अधिकार दिए गए। इसलिए इस न्यायालय को रिट की प्रार्थना (बी) में मांगे गए निर्देश जारी करने का कोई आधार नहीं मिलता है।”

याचिकाकर्ता के वकील: रोहित शुक्ला, अभय सोलंकी और मुहम्मद शावेज़, कामिल खान।

प्रतिवादी के वकील: अनुराग अहलूवालिया, सीजीएससी, शिवम सचदेवा, जीपी आर-1/यूओआई के साथ।

केस टाइटल: विवेक कुमार गौरव बनाम भारत संघ

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