अधिकारी के पीठ पीछे दुर्व्यवहार की जांच के आधार पर बर्खास्तगी आदेश PNJ का उल्लंघन: दिल्ली हाइकोर्ट

Update: 2024-05-07 09:02 GMT

दिल्ली हाइकोर्ट की जस्टिस वी. कामेश्वर राव और जस्टिस अनूप कुमार मेंदीरत्ता की खंडपीठ ने दिल्ली सरकार और अन्य बनाम वीरेंद्र के मामले में सिविल रिट याचिका पर फैसला सुनाते हुए कहा कि समाप्ति आदेश, जो जांच रिपोर्ट पर आधारित है, जिसमें अधिकारी की पीठ पीछे निश्चित प्रकृति का दुर्व्यवहार पाया गया, प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है।

मामले की पृष्ठभूमि

वीरेंद्र (प्रतिवादी) को 29.06.2016 के ज्ञापन के माध्यम से केंद्रीय जेल में वार्डन के रूप में नियुक्त किया गया था। वह 2 साल की अवधि के लिए परिवीक्षा पर था। अप्रैल 2017 में प्रतिवादी को जनकपुरी बस स्टॉप पर प्रतिबंधित वस्तुओं के साथ पकड़ा गया और उसके खिलाफ एनडीपीएस अधिनियम (NDPS Act) के प्रासंगिक प्रावधानों के तहत एफआईआर दर्ज की गई। प्रतिवादी के समग्र आचरण और इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि वह अभी भी परिवीक्षा पर था, प्रतिवादी की सेवाओं को महानिदेशक, कारागार द्वारा सीसीएस (अस्थायी सेवा) नियम1965 (अस्थायी सेवा नियम) के तहत समाप्त कर दिया गया।

प्रतिवादी ने केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (न्यायाधिकरण) के समक्ष मूल आवेदन दायर किया, जिसमें इस आधार पर समाप्ति आदेश रद्द करने की मांग की गई कि प्रतिवादी की सेवाएं बिना कारण बताओ नोटिस और अस्थायी सेवा नियमों के तहत जांच के बिना समाप्त कर दी गईं। यह भी तर्क दिया गया कि समाप्ति आदेश में प्रयुक्त अभिव्यक्ति असंतोषजनक और नौकरी की आवश्यकताओं के अनुकूल नहीं प्रकृति में कलंकपूर्ण थी और प्रतिवादी को केवल एफआईआर दर्ज होने के कारण सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था।

न्यायाधिकरण ने मूल आवेदन इस आधार पर स्वीकार किया कि बर्खास्तगी आदेश दुर्व्यवहार और अनुशासनहीनता के आधार पर था। इस प्रकार दंडात्मक और कलंकपूर्ण था, क्योंकि बर्खास्तगी आदेश बिना किसी जांच के पारित किया गया, इसलिए यह कानून में टिकने योग्य नहीं है। इस प्रकार याचिकाकर्ताओं ने न्यायाधिकरण के आदेश के खिलाफ रिट याचिका दायर की।

याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि जेल अधीक्षक द्वारा किए गए औचक निरीक्षण के दौरान प्रतिवादी ड्यूटी के घंटों के दौरान अपने वार्ड में सोता हुआ पाया गया। प्रतिवादी को दिसंबर 2016 में अपनी ड्यूटी से अनुपस्थित पाया गया, जिसके लिए उसे चेतावनी दी गई। यह भी तर्क दिया गया कि परिवीक्षा अवधि के दौरान दर्ज की गई एफआईआर प्रतिवादी की सेवाओं को समाप्त करने का मकसद थी। इसके अलावा, केवल यह कहना कि प्रदर्शन संतोषजनक नहीं था, बर्खास्तगी आदेश को कलंकपूर्ण नहीं बनाता।

दूसरी ओर प्रतिवादी ने तर्क दिया कि प्रतिवादी के खिलाफ काम पर सोने की कथित शिकायतें झूठी थीं। प्रतिवादी को एफआईआर दर्ज करने के आधार पर बर्खास्त किया गया। इस प्रकार यह कलंकपूर्ण प्रकृति का है। प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है, क्योंकि उसे अपना पक्ष रखने का अवसर नहीं दिया गया। आगे यह तर्क दिया गया कि प्रतिवादी के खिलाफ एफआईआर उसकी सेवाओं की समाप्ति का आधार थी।

अदालत के निष्कर्ष

अदालत ने राधेश्याम गुप्ता बनाम यू.पी. स्टेट एग्रो इंडस्ट्रीज कॉर्पोरेशन लिमिटेड के फैसले पर भरोसा किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने मकसद और आधार के बीच अंतर निर्धारित किया और कहा कि किसी कर्मचारी को नौकरी से निकालते समय बर्खास्तगी के मकसद के मामले में नियोक्ता कुछ प्रथम दृष्टया तथ्य एकत्र करने के बाद आरोपों की सच्चाई की जांच नहीं करता, बल्कि केवल कर्मचारी की सेवाओं को जारी न रखने का फैसला करता है। हालांकि अगर नियोक्ता कदाचार के लिए जांच करता है और कर्मचारी की बात नहीं सुनी जाती है तो ऐसी जांच बर्खास्तगी का आधार होगी और ऐसी बर्खास्तगी कानून की दृष्टि से गलत होगी।

न्यायालय ने रत्नेश कुमार चौधरी बनाम इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान, पटना, बिहार एवं अन्य के निर्णय पर भी भरोसा किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि बर्खास्तगी से पहले जांच की जाती है और अधिकारी की पीठ पीछे कदाचार का पता चलता है तथा जांच रिपोर्ट के आधार पर बर्खास्तगी आदेश जारी किया जाता है तो बर्खास्तगी आदेश प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन होगा।

ऐसे मामलों में बर्खास्तगी को कदाचार पर आधारित माना जाएगा और यह दंडात्मक होगा। न्यायालय ने आगे कहा कि यदि नियुक्ति की शर्तों या नियमों द्वारा सरल बर्खास्तगी आदेश की अनुमति दी जाती है, जिससे कर्मचारी को अपने शेष करियर के लिए कलंक का सामना न करना पड़े तो ऐसा बर्खास्तगी आदेश अनुमेय हो सकता है, क्योंकि नियोक्ता सरकारी कर्मचारी के खिलाफ आरोपों की सच्चाई का पता लगाने में रुचि नहीं रखता था।

न्यायालय ने यह भी टिप्पणी की कि यदि कोई जांच की जाती है जहां साक्ष्य प्राप्त होते हैं और कर्मचारी की पीठ पीछे कदाचार साबित होता है। ऐसी जांच की रिपोर्ट के आधार पर बर्खास्तगी आदेश जारी किया जाता है तो ऐसा आदेश प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है।

न्यायालय ने आगे कहा कि प्रतिवादी को इस आधार पर बर्खास्त किया गया कि उसका काम असंतोषजनक और अनुकूल नहीं था।

याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि प्रतिवादी सेवा से अनुपस्थित था और प्रतिवादी के खिलाफ NDPS Act के तहत जारी एफआईआर का भी संदर्भ दिया गया। इस प्रकार, प्रतिवादी की अनुपस्थिति/एफआईआर का रजिस्ट्रेशन उसकी सेवाओं को समाप्त करने का आधार था। इस प्रकार प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन किए बिना उसकी सेवाएं समाप्त नहीं की जा सकतीं। इसलिए बर्खास्तगी आदेश दंडात्मक और कलंकपूर्ण प्रकृति का था।

उपर्युक्त टिप्पणियों के साथ सिविल रिट याचिका खारिज कर दी गई।

केस टाइटल- दिल्ली सरकार और अन्य बनाम वीरेंद्र

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