आतंकी मुठभेड़ में BSF कांस्टेबल की बाईं आंख चली गई; दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार के विरोध को खारिज किया, एकमुश्त मुआवजा दिया
दिल्ली हाईकोर्ट की एक खंडपीठ ने एक रिटायर्ड बीएसएफ अधिकारी की रिट याचिका को स्वीकार किया और यूनियन ऑफ इंडिया को उन्हें ड्यूटी के दरमियान हुई विकलांगता के लिए एकमुश्त मुआवजा प्रदान करने का निर्देश दिया।
जस्टिस नवीन चावला और जस्टिस शालिंदर कौर की खंडपीठ ने माना कि वह केंद्रीय सिविल सेवा (असाधारण पेंशन) नियम, 1972 के नियम 9(3) के तहत मुआवजे का हकदार है, क्योंकि उसकी विकलांगता उसकी सेवा के कारण थी। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि विकलांग व्यक्ति द्वारा न्यायालय में जाने में की गई कोई भी देरी विकलांगता मुआवजे से इनकार करने का वैध कारण नहीं है।
पृष्ठभूमि
जगतार सिंह 1996 में कांस्टेबल के रूप में बीएसएफ में शामिल हुए। वर्षों बाद उन्हें सब-इंस्पेक्टर के पद पर पदोन्नत किया गया। जगतार सिंह को 1993 में जम्मू और कश्मीर में घेराबंदी और तलाशी अभियान के दरमियान हुई एक आतंकवादी मुठभेड़ में चेहरे पर गोली लगी थी। इस चोट के कारण उनकी बाईं आंख को स्थायी नुकसान पहुंचा और उनके चेहरे की कई हड्डियाँ टूट गईं। समय पर सर्जरी करवाने के बावजूद, उन्होंने अपनी बाईं आंख की सारी रोशनी खो दी।
चोट लगने के बाद, उनकी हालत लगातार खराब होती गई। 2004 में 30% स्थायी विकलांगता का आकलन किए जाने के बावजूद, उन्होंने 2005 में सेवानिवृत्त होने तक काम करना जारी रखा। हालांकि, उन्हें (उनकी चिकित्सा स्थिति के कारण) किसी भी आगे की पदोन्नति से वंचित कर दिया गया, और उन्हें केवल उनकी नियमित पेंशन प्रदान की गई। कोई विकलांगता पेंशन या अनुग्रह राशि नहीं दी गई। व्यथित होकर, उन्होंने अनुच्छेद 226 के तहत हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
कोर्ट ने निर्णय में सबसे पहले विलंब के सवाल की चर्चा की। अदालत ने माना कि उनकी विकलांगता का आकलन सेवानिवृत्ति के ठीक एक साल बाद फरवरी 2004 में ही किया गया था। इसके अलावा, अदालत ने समझाया कि चोट के प्रभाव के कारण जगतार सिंह को 2003 में पदोन्नति से भी वंचित कर दिया गया था। इस प्रकार, अदालत ने माना कि यह अपेक्षा करना अनुचित था कि जगतार सिंह को चोट लगने के 5 साल के भीतर मुआवजे के लिए आवेदन करना चाहिए था।
दूसरे, न्यायालय ने पूर्व सिपाही चैन सिंह बनाम यूनियन आफ इंडिय, सिविल अपील डायरी संख्या 30073/2017 का हवाला दिया। न्यायालय ने कहा कि पेंशन और विकलांगता मुआवजे से संबंधित दावों को निरंतर गलत माना जाता है। इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि इसे मांगने में देरी घातक नहीं है, खासकर जब किसी तीसरे पक्ष के अधिकार प्रभावित नहीं हो रहे हों।
तीसरे, न्यायालय ने सीसीएस (ईओपी) नियमों के नियम 3-ए की बात की। नियम 3-ए में प्रावधान है कि सरकारी सेवा के कारण होने वाली कोई भी विकलांगता मुआवजे के लिए योग्य है। इसके अलावा, नियम 9 उन लोगों के बीच अंतर करता है जिन्हें विकलांगता के कारण निकाल दिया जाता है, और जिन्हें इसके बावजूद रखा जाता है। बाद वाले एकमुश्त मुआवजे के हकदार हैं, जबकि पहले वाले को मासिक विकलांगता पेंशन प्रदान की जाती है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जगतार सिंह का मामला बाद की श्रेणी में आता है, और इस प्रकार, वह नियम 9(3) के तहत एकमुश्त मुआवजे के हकदार हैं।
चौथा, न्यायालय ने पाया कि जगतार सिंह की 30% की स्थायी विकलांगता थी, जिसे चिकित्सकीय रूप से सेवा के कारण प्रमाणित किया गया था। इसके अलावा, उन्हें बोर्ड आउट नहीं किया गया था, बल्कि उन्हें सेवा में बनाए रखा गया था और उम्र के हिसाब से सेवानिवृत्त किया गया था। इस प्रकार, जबकि वह मासिक विकलांगता पेंशन के हकदार नहीं थे, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि वह नियम 9 के तहत एकमुश्त मुआवजे के हकदार थे।
इस प्रकार, न्यायालय ने रिट याचिका को अनुमति दे दी। यूनियन आफ इंडिय को तीन महीने के भीतर एकमुश्त मुआवजा वितरित करने का निर्देश दिया गया।