पत्नी द्वारा वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए पति की याचिका का विरोध करना घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत उसके निवास के अधिकार को प्रभावित नहीं करता : दिल्ली हाईकोर्ट
दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि घरेलू हिंसा अधिनियम, 2008 के तहत निवास का अधिकार, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9 के तहत उत्पन्न होने वाले किसी भी अधिकार से विशिष्ट और अलग है, जो वैवाहिक अधिकारों की बहाली से संबंधित है।
जस्टिस चंद्रधारी सिंह इस मामले में एक दंपति द्वारा दायर एक याचिका पर विचार कर रहे थे, जिसमें अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के आदेश को चुनौती दी गई थी। सत्र न्यायाधीश ने उनके बेटे की पत्नी/प्रतिवादी नंबर 1 के पक्ष में दिए गए निवास के अधिकार के आदेश की पुष्टि की थी।
शुरुआत में प्रतिवादी पत्नी और उसके ससुराल वालों के बीच संबंध सौहार्दपूर्ण थे, हालांकि, समय के साथ यह बिगड़ना शुरू हो गए। प्रतिवादी ने 16 सितंबर, 2011 को अपना ससुराल छोड़ दिया। जिसके बाद दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के खिलाफ 60 से अधिक मामले दायर कर दिए,जिसमें दीवानी और आपराधिक,दोनों तरह के मामले शामिल हैं। इनमें से एक मामला प्रतिवादी-पत्नी द्वारा घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 के तहत दायर किया था और कार्यवाही के दौरान प्रतिवादी ने संबंधित संपत्ति में निवास के अधिकार का दावा किया था।
मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट ने माना था कि प्रतिवादी पत्नी उक्त संपत्ति की पहली मंजिल में निवास के अधिकार की हकदार है। इस आदेश को अपीलीय न्यायालय ने बरकरार रखते हुए कहा था कि प्रतिवादी नंबर-1 अपनी शादी के बाद से उक्त परिसर में रह रही थी और उस घर में उसके पति की 50 प्रतिशत हिस्सेदारी है,जिसने उसे वहां रहने का अधिकार दिया था।
ससुराल पक्ष द्वारा शुरू की गई वर्तमान कार्यवाही में, हाईकोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता और प्रतिवादी के बीच तनावपूर्ण संबंधों का अस्तित्व इस तथ्य से अच्छी तरह से स्थापित होता है कि दोनों पक्षों के बीच लगभग 60 से अधिक आपराधिक और दीवानी मामले लंबित हैं।
कोर्ट ने आगे कहा कि,
''प्रतिवादी ने डीवी अधिनियम के तहत मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट की कोर्ट में आवेदन दायर किया, जिसमें उसने निवास के अधिकार की मांग करते हुए एक अंतरिम आवेदन भी दायर किया। मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट ने हालांकि डीवी अधिनियम के तहत लगाए गए आरोपों पर कोई फैसला नहीं सुनाया, लेकिन प्रतिवादी के अपने ससुराल में रहने के अधिकार की मांग को सही पाया।''
याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि उनके बेटे ने कई बार प्रतिवादी के साथ अपने संबंध ठीक करने का प्रयास किया और प्रतिवादी द्वारा लगातार इनकार करने के बाद उसने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9 के तहत वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए याचिका दायर की। प्रतिवादी ने इस याचिका का भी विरोध किया और इसे खारिज करने की मांग की, जो अपने पति के साथ रहने की उसकी अनिच्छा को साफ दर्शाता है।
इस प्रकार, यह तर्क दिया गया कि चूंकि प्रतिवादी पत्नी अपने पति के साथ नहीं रहना चाहती थी और इसलिए उसने उसके साथ रहने से इनकार कर दिया, ऐसे में वह अपने वैवाहिक घर में निवास के अधिकार का दावा नहीं कर सकती है।
इस तर्क में कोई गुण न पाते हुए,न्यायालय ने कहा,
''डीवी अधिनियम के तहत निवास का अधिकार,हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9 के तहत उत्पन्न होने वाले किसी भी अधिकार से विशिष्ट और अलग है और इस तरह, इस संबंध में अपीलीय न्यायालय द्वारा किया गया अवलोकन भी एकदम सही है।''
न्यायालय ने माना कि अपीलीय न्यायालय ने ठीक ही इस बात की सराहना की है कि प्रतिवादी पत्नी को अपने पति की सह-स्वामित्व वाली संपत्ति में रहने का अधिकार है और इस बात की वास्तविक आशंका थी कि याचिकाकर्ता उसे घर से निकाल देंगे। वहीं याचिकाकर्ताओं के खिलाफ मामले दायर करने की संभावना, उसके ससुराल में रहने के अधिकार को प्रभावित नहीं कर सकती है।
पूर्वाेक्त के मद्देनजर, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि 5 दिसंबर, 2013 के आदेश में हस्तक्षेप करने का कोई आधार नहीं बनता है।
कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि,
''अदालत के समक्ष दिए गए तर्कों, तथ्यों और परिस्थितियों, मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के निष्कर्षों के साथ-साथ अपीलीय न्यायालय द्वारा की गई टिप्पणियों को ध्यान में रखते हुए, इस न्यायालय को 1 नवंबर, 2013(जिसके तहत निवास का अधिकार प्रतिवादी के पक्ष में दिया गया था) और 5 दिसंबर, 2013(जिसके तहत 1 नवंबर, 2013 के आदेश को बरकरार रखा गया था) को दिए गए आदेशों में कोई त्रुटि नहीं मिली है।''
तदनुसार, याचिका खारिज कर दी गई।
केस का शीर्षक- ओम प्रकाश गुप्ता व अन्य बनाम अंजनी गुप्ता व अन्य
साइटेशन- 2022 लाइव लॉ (दिल्ली) 224
आदेश पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें