एससी/एसटी अधिनियम के तहत 'पीड़ित' में उस व्यक्ति के मां-बाप और परिवार के सदस्य भी शामिल, जिसके ख़िलाफ़ अपराध हुआ : कर्नाटक हाईकोर्ट

Update: 2020-07-25 03:30 GMT

कर्नाटक हाईकोर्ट की कलबुर्गी पीठ ने मंगलवार को कहा कि एससी/एसटी उत्पीड़न निवारण अधिनियम के तहत पीड़ित में उस व्यक्ति के मां-बाप और परिवार के लोग भी शामिल हैं जिसके ख़िलाफ़ अपराध हुआ है।

अदालत ने कहा कि अधिनियम के तहत "पीड़ित" की परिभाषा काफ़ी विस्तृत है। अगर किसी व्यक्ति को किसी अपराध के कारण कोई शारीरिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक या आर्थिक नुक़सान हुआ है तो वह खुद, उसके मां-बाप, परिवार के सदस्य भी 'पीड़ित' की उक्त परिभाषा के तहत पीड़ित की श्रेणी में आते हैं।

इसे देखते हुए न्यायमूर्ति हंचते संजीव कुमार की पीठ ने निम्नलिखित दिशानिर्देश जारी किए :

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 15-A के तहत पीड़ित या उसके आश्रितों का अधिकार बनता है कि वह इस अधिनियम के तहत कार्यवाही में शामिल होने का अधिकार रखता है।

इस मामले की सुनवाई करने वाली विशेष अदालत ज़िला विधिक सेवा प्राधिकरण को पीड़ित या उसके आश्रितों को वक़ील उपलब्ध कराने का प्रबंध करेगी।

याचिकाकर्ता-आरोपी ने अपनी याचिका में कहा था कि पीड़ित की मां को इस मामले में पक्षकार बनाए जाने की आवश्यकता नहीं है।

पीठ ने कहा कि अधिनयम की धारा 15-A(5) में पीड़ित या उसके आश्रित को मामले की सुनवाई में शामिल होने का अधिकार देती है।

कोर्ट ने कहा कि इस अधिनियम के तहत पीड़ित या उसके आश्रित को अदालत में अपनी बात रखने का अधिकार है और इस तरह पीड़ित या उसके आश्रित इस मामले में आरोपी की ज़मानत, डिस्चार्ज, छोड़े जाने, पैरोल, दोषी ठहराने, सज़ा सुनाने की कार्यवाही के समय सुने जाने का अधिकार रखते हैंं।

अधिनियम की धारा 15-A(3) और 15A(5) की तुलना के बारे में पीठ ने कहा कि 15-A(3) के तहत पीड़ित की ओर से विशेष लोक अभियोजक का राज्य के प्रति कर्तव्य है जबकि 15A(5) में पीड़ित या गवाह को किसी भी सुनवाई में भाग लेने का अधिकार देता है।

एससी/एसटी अधिनियम के तहत पीड़ित कौन है?

अधिनियम की धारा 2 के तहत ऐसा कोई भी व्यक्ति जो एससी/एसटी अधिनियम के तहत आता है, जिसे शारीरिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक या मौद्रिक नुक़सान हुआ है या उसकी परिसंपत्ति को नुक़सान पहुंचा है।

कोर्ट ने कहा कि वर्तमान मामले में सूचना देने वाली घायल व्यक्ति की मां है और इसलिए वह "निश्चित" तौर पर पीड़ित है।

कोर्ट ने कहा कि प्रथम सूचना देने वाली नाबालिग लड़के की मां है, जिसको याचिकाकर्ता एवं अन्य आरोपियों के हमले के कारण चोट लगी है। इसलिए एससी/एसटी अधिनियम के तहत पीड़ित और गवाहों को कुछ अधिकार मिले हुए हैं।

कोर्ट ने कहा कि एससी/एसटी समूह के सदस्यों को मुफ़्त क़ानूनी सेवा प्राप्त करने का अधिकार है। क़ानूनी सेवा का अर्थ सिर्फ क़ानूनी परामर्श ही नहीं बल्कि एक वक़ील की मदद लेने से भी है।

मामला

याचिककर्ता-आरोपी ने 14 साल के एक लड़के पर कुल्हाड़ी से हमला किया। इन लोगों ने इस लड़के के साथ उसकी जाति के आधार पर गाली गलौज भी की।

मामले की गंभीरता को देखते हुए कोर्ट ने कहा कि वह आरोपी को ज़मानत पर छोड़ने की राय नहीं रखता क्योंकि अगर उसे छोड़ा गया तो इस बात की आशंका है कि वह पीड़ित, उसके मां-बाप को धमकी दे सकता है और सबूतों से भी छेड़छाड़ कर सकता है और उसके लापता हो जाने की भी आशंका है और इस तरह वह न्याय की गिरफ़्त से बाहर हो जाएगा।

एफआईआर दर्ज कराने में देरी के बाबत कोर्ट ने कहा कि इसके कई कारण हो सकते हैं, लेकिन इस पर मामले की पूर्ण सुनवाई के दौरान ही ध्यान दिया जा सकता है पर …सिर्फ़ इस आधार पर कि मामला दर्ज कराने में देरी हुई है, याचिका को स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि इस पर तथ्यों के आधार पर पूर्ण सुनवाई के दौरान ही ग़ौर किया जा सकता है, इस समय नहीं।

आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें 



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