''आरोपी का 'क्रॉस टू एग्जामिनेशन' का अधिकार उसके वकील की अनुपस्थिति के कारण छीना नहीं जा सकता, कानूनी सहायता के लिए वकील प्रदान करना न्यायालय का कर्तव्य'' : हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट
हाल ही में हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा, "याचिकाकर्ता का प्रति परीक्षण ( क्रॉस-एग्जामिनेशन) का अधिकार उसके वकील की अनुपस्थिति के कारण विद्वत न्यायालय द्वारा बंद नहीं किया जा सकता, बल्कि ऐसी स्थिति में, अदालत को अभियुक्त को कानूनी सहायता वकील उपलब्ध कराने चाहिए थे ।
न्यायमूर्ति संदीप शर्मा की एकल पीठ द्वारा पारित आदेश न्याय के हित में सीआरपीसी की धारा 482 के तहत उच्च न्यायालय द्वारा अंतर्निहित शक्ति का प्रयोग करने का जीता जागता उदाहरण है।
विशेष रूप से, यहां याचिकाकर्ता ने नियमित जमानत के लिए सीआरपीसी की धारा 439 के तहत उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था। हालांकि, सुनवाई के दौरान, उन्होंने जमानत के लिए प्रार्थना पत्र नहीं दिया, बल्कि निचली अदालत के 8 अप्रैल, 2020 के एक आदेश को चुनौती दी, जिसके तहत अभियोजन पक्ष के गवाहों से क्रॉस एक्सामिन करने का उनका अधिकार उनके वकील की अनुपस्थिति के कारण ख़त्म कर दिया गया था, जिन्होंने अदालत को सूचित किया था कि वह नालागढ़ में कुछ काम होने के कारण आने में असमर्थ हैं।
याचिकाकर्ता ने अदालत से सीआरपीसी की धारा 482 के तहत अपनी अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग करने और उक्त आदेश को रद्द करने और क्रॉस एग्जामिनेशन के अपने अधिकार को बहाल करने की दलील दी थी ।
अदालत ने कहा कि निचले अदालत को "क्रॉस एक्सामिन करनी चाहिए थी । इसमें आगे कहा गया है कि अदालत को अभियोजन पक्ष के गवाहों की क्रॉस एक्सामिन कराने के लिए याचिकाकर्ता को कानूनी सहायता के लिए वकील उपलब्ध कराने चाहिए थे और याचिकाकर्ता के अधिकार को छीनना नहीं करना चाहिए था ।
पीठ ने कहा -
"कोई भी इस तथ्य की दृष्टि से ओझल नहीं हो सकता कि यह याचिकाकर्ता है, जिसने वकील की उपस्थिति न होने के कारण नुकसान हुआ है, जिसके परिणामस्वरूप अभियोजन पक्ष के गवाहों से जिरह करने का उनका अधिकार ख़त्म कर दिया गया है । याचिकाकर्ता जो सलाखों के पीछे है, उसे इस बात की भी जानकारी नहीं हो सकती कि उसके वकील उस दिन उपस्थित नहीं थे जब अभियोजन पक्ष के गवाहों की जांच की जा रही थी, ऐसी स्थिति में, यह सुनिश्चित करना अदालत का कर्तव्य है कि अभियुक्त का निहित अधिकार, जो अपना बचाव करने में असमर्थ है/स्वयं को विधिवत संरक्षित किया जाए।"
गौरतलब है कि राज्य ने निम्नलिखित मामलों पर प्राथमिकी को रद्द करने का विरोध किया था:
· वर्तमान कार्यवाही में रद्द किए जाने के आदेश को चुनौती देने के लिए क़ानून के तहत विशिष्ट उपाय प्रदान किया गया है;
· उपरोक्तानुसार प्रार्थना की गई है, जिसे सीआरपीसी की धारा 439 के तहत दायर तात्कालिक कार्यवाही में नहीं माना जा सकता है;
· 8.4.2019 के आदेश को तत्काल कार्यवाही में रद्द करने की मांग की गई थी और एक साल से अधिक समय पहले पारित किया गया था और अदालत में आने में देरी के कारण रिकॉर्ड पर कोई प्रशंसनीय स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है ।
इन दलीलों को खारिज करते हुए अदालत ने कहा कि,
"इसमें कोई संदेह नहीं है, आदेश को तत्काल कार्यवाही में रद्द करने की मांग की गई है, अन्यथा चुनौती देने की आवश्यकता है, अगर सीआरपीसी कीधारा 397 के तहत आपराधिक संशोधन दाखिल करने के तरीके सहपठित धारा 401 सीआरपीसी , लेकिन, जैसा कि ऊपर यहां ध्यान दिया गया है। न्यायालय में धारा 401, 482 और 483 सीआरपीसी के तहत शक्ति का प्रयोग करते समय, यह भी हस्तक्षेप कर सकता है कि जब यह उसके संज्ञान में आता है कि अधीनस्थ अदालत द्वारा पारित आदेश, यदि कायम रखने की अनुमति दी जाती है, तो न्याय का गंभीर दुरुपयोग होगा।"
पीठ ने आगे कहा,
"उच्च न्यायालय द्वारा अंतर्निहित शक्ति के प्रयोग पर कोई पूर्ण रोक नहीं है, खासकर जहां कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग होता है या असाधारण स्थिति उपरोक्त क्षेत्राधिकार के प्रक्टिक में अदालत के ध्यान में आता है । विद्वान उप महाधिवक्ता द्वारा उठाई गई सीमा की दलील वर्तमान मामले में लागू नहीं होती है, क्योंकि यदि स्पष्ट अन्याय अदालत को अपने चेहरे पर साफ झलकता है, तो अदालत का यह कर्तव्य है कि वह उचित आदेश पारित करके उस ज्वलंत अन्याय को सही करे।"
केस टाइटल: लवली बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य