पुलिस गवाह के बयानों पर केवल इसलिए संदेह नहीं किया जा सकता क्योंकि वे पुलिस के ऑफिशियल गवाह हैं : जम्मू एंड कश्मीर हाईकोर्ट

Update: 2021-04-06 12:06 GMT

जम्मू एंड कश्मीर हाईकोर्ट ने कहा कि पुलिस के बयान या गवाहों पर केवल इसलिए संदेह नहीं किया जा सकता क्योंकि वे पुलिस के ऑफिशियल गवाह हैं। इन गवाहों के बयानों पर संदेह पैदा करने के लिए बचाव में इससे अधिक सबूतों की आवश्यकता है।

जस्टिस ताशी रैब्स्टर और जस्टिस विनोद चटर्जी कोल की डिवीजन बेंच ने यह स्पष्ट कर दिया कि सिर्फ इसलिए कि अभियोजन पक्ष ने किसी भी नागरिक या स्वतंत्र व्यक्ति को गवाह के रूप प्रस्तुत नहीं किया है तो यह निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए कि अभियोजन का मामला संदेह के घेरे में है और आरोपी को मामले में झूठा फंसाया गया।

पीठ ने आदेश में आगे कहा कि,

"आधिकारिक गवाहों के बयानों पर केवल उनकी आधिकारिक स्थिति के आधार पर संदेह और अविश्वास नहीं जताया जा सकता है। यहां तक कि यह भी देखा गया है कि लोग आम तौर पर अधिकांश आपराधिक मामलों में अच्छे से जानते हुए भी गवाह बनने से या बयान देने से इनकार करते या बचते हैं।"

पीठ ने इस बिंदु पर जरनैल सिंह बनाम पंजाब राज्य (2011) 3 एससीसी 52 मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर भरोसा जताया।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि,

"यह एक पुरानी धारणा है कि पुलिस अधिकारी के कार्रवाई पर प्रारंभ में विश्वास नहीं जताया जाता है। हालांकि अब समय है कि पुलिस द्वारा किए गए कार्रवाई और बनाए गए दस्तावेजों पर कम से कम प्रारंभिक विश्वास करना शुरू किया जाए। कोर्ट को पहले ही यह अनुमान नहीं लगाना चाहिए कि पुलिस रिकॉर्ड पर विश्वास नहीं किया जा सकता है। कानून की धारणा के रूप में अनुमान दूसरे तरीके से होगा। पुलिस के आधिकारिक कृत्यों को नियमित रूप से निष्पादित किया जाता है। यह अनुमान का सिद्धांत है और विधायिका द्वारा भी मान्यता भी प्राप्त है।"

पीठ ने यह टिप्पणी याचिकाकर्ता को दिए गए सजा खिलाफ एक आपराधिक अपील के मामले में की है। दरअसल, पुलिस द्वारा याचिकाकर्ता के पास से 720 किलोग्राम की कंट्राबैंड जब्त किया गया था।

डिवीजन बेंच ने नारकोटिक्स ड्रग्स एंड साइकोट्रॉपिक सबस्टेंस एक्ट (एनडीपीएस) के तहत याचिकाकर्ता के सजा को बरकरार रखते हुए कहा कि सर्च और जब्ती के दौरान अपीलकर्ताओं से जुड़े स्वतंत्र गवाह अभियोजन मामले में आकांक्षा नहीं रखते हैं।

बेंच ने आगे कहा कि बचाव पक्ष के वकील भी गवाही पर कोई आपत्ति नहीं जाता सकते सिवाय इसके कि वे आधिकारिक गवाह हैं।

सजा को बरकरार रखने के अन्य आधार इस प्रकार हैं;

1. अभियोजन पक्ष के गवाहों द्वारा अदालत में जब्ती के दस्तावेज साबित हुए। ऐसी परिस्थितियों में पहचान के लिए अदालत में गवाहों को कथित प्रतिवाद दिखाना घातक नहीं है।

2. कथित तौर पर भारी बारिश और अन्य कारकों के कारण एफएसएल को जब्त किए गए कंट्राबैंड सैंपल को एफएसएल को सौंपने में देरी किसी भी तरह से अभियोजन पक्ष के मामले को प्रभावित नहीं करती है, क्योंकि सील किसी भी तरह से छेड़छाड़ या क्षतिग्रस्त नहीं हुई है। यहां तक कि सबूतों की श्रृंखला भी पूरी और पाई गई है।

3. ऐसे मामले में जहां सूचना देने वाला खुद ही जांच करता है तो उसके द्वारा यह नहीं कहा जा सकता है कि जांच पक्षपात या इस तरह के कारक के आधार पर की गई है।

बेंच ने हालांकि आंशिक रूप से अपील की अनुमति देते हुए कैद की सजा को 20 साल से घटाकर 15 साल कर दिया, इस तथ्य के मद्देनजर कि अपीलकर्ता का प्रथम अपराध है [बलविंदर सिंह बनाम सीमा और केंद्रीय उत्पाद शुल्क के सहायक आयुक्त (2005) 4 एससीसी 146] और अपलीकर्ता पर गए 1 लाख रूपये के जुर्माने को बनाए रखा।

राज्य के लिए ओर से एएजी असीम साहनी पेश हुए थे और अपीलकर्ताओं की ओर से एडवोकेट आरके कोतवाल पेश हुए थे।

केस का शीर्षक: जसपाल सिंह और अन्य बनाम जम्मू-कश्मीर राज्य

आदेश की कॉपी यहां पढ़ें:



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