प्रतिकूल कब्जे के जरिये अपने नागरिकों की जमीन पर सरकार को पूर्ण स्वामित्व की अनुमति नहीं दी जा सकती : सुप्रीम कोर्ट

Update: 2020-01-10 04:00 GMT

उच्चतम न्यायालय ने हिमाचल प्रदेश की एक 80-वर्षीया निरक्षर विधवा को राहत प्रदान की है, जिसकी जमीन राज्य सरकार ने 1967-68 में सड़क निर्माण के लिए कानूनी प्रक्रिया अपनाये बिना जबरन ले ली थी।

न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा और न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी की पीठ ने व्यवस्था दी कि सरकार नागरिकों से हड़पी जमीन पर पूर्ण स्वामित्व के लिए प्रतिकूल कब्जे (एडवर्स पजेशन) के सिद्धांत का इस्तेमाल नहीं कर सकती। कोर्ट ने कहा कि कानूनी प्रक्रिया अपनाये बगैर निजी सम्पत्ति से किसी को जबरन बेदखल करना उसके मानवाधिकार तथा संविधान के अनुच्छेद 300ए के तहत उसके संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन है।

पृष्ठभूमि

अपीलकर्ता विद्या देवी की जमीन सरकार ने 1967-68 में सड़क निर्माण के लिए जबरन ले ली थी। चूंकि वह निरक्षर थी, इसलिए उसे कानूनी उपायों की जानकारी नहीं थी।

वर्ष 2004 में कुछ अन्य लोगों ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था जिनकी जमीनें राज्य सरकार ने इसी तरीके से हड़प ली थी। तीन वर्ष बाद हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वह याचिकाकर्ताओं की जमीनें भूमि अधिग्रहण कानून 1894 के तहत अधिग्रहीत करे और संबंधित लोगों को कानून के प्रावधानों के अनुरूप मुआवजा दे।

इस आदेश की जानकरी मिलने के बाद, अपीलकर्ता (विद्या देवी) ने भी 2010 में हाईकोर्ट में एक रिट याचिका दायर की थी, जिसमें उन्होंने भूमि अधिग्रहण कानून के प्रावधानों के तहत मुआवजे का दावा किया था। राज्य सरकार ने इस याचिका का यह कहते हुए विरोध किया कि 42 वर्षों तक 'प्रतिकूल कब्जे' के जरिये उसने पूर्ण स्वामित्व हासिल कर लिया है। राज्य सरकार ने यह भी दलील दी थी कि उक्त जमीन पर सड़क बनायी जा चुकी है और अपीलकर्ता को दीवानी मुकदमा का रास्ता अपनाना चाहिए था।

वर्ष 2013 में हाईकोर्ट ने यह कहते हुए रिट याचिका खारिज कर दी कि इस मामले में तथ्य संबंधी विवादित सवाल मौजूद हैं, हालांकि उसने अपीलकर्ता को दीवानी मुकदमा दायर करने की अनुमति दी थी।

इस आदेश से असंतुष्ट होकर अपीलकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।

बगैर प्रक्रिया अपनाये सम्पत्ति से जबरन बेदखल नहीं किया जा सकता

सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 300ए का हवाला देते हुए कहा :

"किसी व्यक्ति को कानूनी प्रक्रिया अपनाये बगैर उसकी निजी सम्पत्ति से जबरन बेदखल करना मानवाधिकार का तथा संविधान के अनुच्छेद 300ए के तहत प्रदत्त संवैधानिक अधिकार का भी उल्लंघन है।" 

कोर्ट ने कहा :

"कानून के शासन से संचालित लोकतांत्रिक राजतंत्र में सरकार कानून की मंजूरी के बिना अपने ही नागरिक को उसकी सम्पत्ति से वंचित नहीं कर सकती।"

"कानून के शासन द्वारा संचालित कल्याणकारी सरकार होने के नाते सरकार खुद को संविधान के दायरे से बाहर नहीं ले जा सकती।" नागरिकों की सम्पत्ति कब्जाने के लिए प्रतिकूल कब्जे की दलील नहीं दी जा सकती

सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार की ओर से पेश 'प्रतिकूल कब्जे' की दलील पर आश्चर्य जताया। इसने कहा कि कोई भी कल्याणकारी सरकार अपने नागरिक की सम्पत्ति कब्जाने के लिए 'प्रतिकूल कब्जे' के सिद्धांत का इस्तेमाल नहीं कर सकती।

"हमें राज्य सरकार द्वारा हाईकोर्ट में पेश दलील को लेकर आश्चर्य हो रहा है कि चूंकि उस जमीन पर उसका 42 वर्ष से लगातार कब्जा है, इसलिए यह 'प्रतिकूल' कब्जे के समान माना जायेगा। कल्याणकारी सरकार होने के नाते राज्य को 'प्रतिकूल कब्जे' की दलील की अनुमति नहीं दी जा सकती, जिसके तहत अनधिकृत व्यक्ति (नुकसान पहुंचाने या किसी अपराध के दोषी व्यक्ति) को भी किसी सम्पत्ति पर 12 साल से अधिक कब्जा जमाये बैठे रहने के आधार पर कानूनी स्वामित्व दे दिया जाता है। सरकार को प्रतिकूल कब्जे के सिद्धांत का इस्तेमाल करके जमीन पर पूर्ण स्वामित्व हासिल करने की अनुमति नहीं दी जा सकती, जैसा कि इस मामले में किया गया है।"

कोर्ट ने राज्य सरकार द्वारा मामले में की गयी देरी की दलील भी खारिज कर दी। राज्य सरकार की यह भी दलील दरकिनार कर दी गयी कि अधिग्रहण के लिए मौखिक सहमति दी गयी थी।

"एक ऐसा मामला, जिसमें न्याय की मांग इतनी अकाट्य है, तो एक संवैधानिक अदालत न्याय को बढ़ावा देने के लिए अपने अधिकार क्षेत्र का इस्तेमाल करेगी, न कि न्याय को हराने के लिए।"

कोर्ट ने कहा कि राज्य सरकार ने किसी कानूनी मंजूरी के बिना एक विधवा औरत को उसकी सम्पत्ति से करीब आधी सदी वंचित रखा। इसलिए शीर्ष अदालत की नज़र में संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत प्रदत्त असाधारण शक्तियों का इस्तेमाल करने के लिए यह उचित मामला है।

खंडपीठ के लिए न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा ने फैसला लिखते हुए कहा,

"हम संविधान के अनुच्छेद 136 और 142 के तहत प्रदत्त असाधारण अधिकारों का इस्तेमाल करते हैं और राज्य सरकार को यह निर्देश देते हैं कि वह अपीलकर्ता को मुआवजे का भुगतान करे।"

इस मामले को 'डीम्ड एक्वीजिशन' की तरह मानते हुए राज्य सरकार को अपीलकर्ता को उतना ही मुआवजा देने को निर्देश दिया गया, जितना मुआवजा बगल की उस जमीन के लिए दिया गया है, जिसका उल्लेख इस मामले में हुआ है। कोर्ट ने इस तथ्य का संज्ञान लेते हुए कि उल्लेखित मामले में दावाकर्ताओं ने मुआवजे में बढ़ोतरी के लिए हाईकोर्ट में अपील दायर की है, मौजूदा अपीलकर्ता को आठ सप्ताह के भीतर अपील दायर करने की अनुमति दे दी।

इन सबके अलावा, राज्य सरकार को यह भी निर्देश दिया गया कि वह अपीलकर्ता (विद्या देवी) को कानूनी खर्चे के तौर पर एक लाख रुपये का भुगतान करे।

मुकदमे का ब्योरा

शीर्षक : विद्या देवी बनाम हिमाचल प्रदेश सरकार एवं अन्य

केस नं. :- सिविल अपील नं. 60-61/2020

कोरम :- न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा और न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी 


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