अवैध विक्रय समझौते को वादी के पक्ष में लागू नहीं किया जा सकता, पढ़िए सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि कानून के विरुद्ध किये गये किसी भी इकरारनामे पर वादी को हक नहीं दिया जा सकता, यह जानते हुए भी कि कानून-विरोधी करार में प्रतिवादी भी शामिल था और इससे उसे लाभ हुआ है।
इकरारनामे की शर्तों पर अमल करने (स्पिसिफिक परफॉर्मेंस) से संबंधित इस मुकदमे में यह सवाल उठाया गया था कि वादी के पक्ष में 'बाले वेंकटरमनप्पा' द्वारा 15 मई 1990 को किया गया विक्रय समझौता (एग्रीमेंट टू सेल) लागू होगा या नहीं? यह पाया गया था कि यह विक्रय समझौता रिफॉर्म्स एक्ट की धारा 61 के विरुद्ध था। इसी आधार पर मुकदमा खारिज कर दिया गया।
सुप्रीम कोर्ट को 'नारायणम्मा बनाम गोविंदप्पा' मामले में इस बात पर विचार करना था कि जब दोनों पक्ष गैर-कानूनी इकरारनामे में शामिल हों तो ऐसी स्थिति में 'न्याय का तराजू' किसके पक्ष में झुकना चाहिए?
न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, न्यायमूर्ति एम आर शाह और न्यायमूर्ति बी आर गवई की पीठ ने 'इम्मानी अप्पा राव एवं अन्य बनामम गोल्लापल्ली रामलिंगामूर्ति (1962)' मामले में दिये गये फैसले का उल्लेख करते हुए कहा :-
"जैसा कि इम्मानी अप्पा राव मामले में व्यवस्था दी गयी है, कि यदि गैर-कानूनी करार के आधार पर वादी के पक्ष में फैसला दिया जाता है तो कोर्ट कानून-असम्मत समझौते को प्रत्यक्ष रूप में मान्यता देता है। और इसके विपरीत, यदि फैसला प्रतिवादी के पक्ष में दिया जाता है तो इसमें कोई संदेह नहीं कि पूर्ववर्ती द्वारा गैर-काननूी करार किये जाने के बावजूद प्रतिवादी फायदे में रहेगा। हालांकि कोर्ट केवल निश्चेष्ट सहयोग (पैसिव असिस्टेंस) ही कर पायेगा। इम्मानी अप्पा राव मामले में जस्टिस गजेंद्र गडकर ने व्यवस्था दी थी कि पहला तरीका स्पष्ट रूप से जनहित के लिहाज से असंगत होगा, जबकि दूसरा तरीका पहले की तुलना में जनहित की दृष्टि से कम हानिकारक होगा।"
बेंच ने सुप्रीम कोर्ट के उन फैसलों का हवाला दिया, जिनमें गैर-कानूनी गतिविधियों में शामिल वादी एवं प्रतिवादी की एक-दूसरे के खिलाफ अर्जी पर विचार किया गया था। कोर्ट ने कहा, -
"कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि 'इस तरह के मामले में कौन सा सिद्धांत अपनाया जायेगा', यह उस सवाल पर निर्भर करेगा कि कौन सा सिद्धांत ज्यादा जनहितकारी होगा। कोर्ट का मानना है कि अदालत के समक्ष पहुंचे दोनों पक्ष यदि धोखाधड़ी में सह-अपराधी हों, तो कोर्ट को यह तय करना होगा कि कौन से रुख से जनता के हित कम प्रभावित होंगे।"
न्यायालय ने कहा कि " चाहे जो भी रुख अपनाया जाये, एक को सफलता मिलेगी और दूसरा असफल होगा। इसलिए यह तय करना आवश्यक है कि किस पक्ष की सफलता जनहित को कम नुकसान पहुंचायेगी। कोर्ट ने इस मामले के तथ्यों में पाया कि यदि वादी के पक्ष में आदेश सुनाया जाता है कि उसकी धोखाधड़ी में कोर्ट का प्रत्यक्ष सहयोग माना जायेगा एवं ऐसी स्थिति में कोर्ट को गैर-कानूनी कार्यों के लिए इस्तेमाल किये जाने की आजादी मिल जायेगी। यह स्पष्ट तौर पर जनहित के सापेक्ष नहीं होगा।"
न्यायालय ने आगे कहा कि "यदि दोनों पक्ष समान रूप से दोषी है और उन्होंने धोखाधड़ी की है तो स्थिति यह होगी कि संरक्षण मांग रहा पक्ष प्रत्यक्ष रूप से अदालत का सहयोग नहीं मांग रहा है। यह व्यवस्था दी गयी है कि धोखाधड़ी में शामिल किसी अपराधी को कोर्ट से फैसला लेने की अनुमति नहीं होगी, क्योंकि जिन दस्तावेजों के आधार पर हक जताया गया है वे वास्तव में इनका हक साबित नहीं करते हैं।
इस मामले के तथ्यों के आधार पर यह व्यवस्था दी गयी कि कोर्ट के फैसले से प्रतिवादी का कब्जा बरकरार रहेगा, लेकिन यह फैसला निश्चेष्ट सहयोग (पैसिव असिस्टेंस) होगा जो जनहित की दृष्टि से कम नुकसानदायक होगा। इस प्रकार कोर्ट का मानना है कि संबंधित प्रोपर्टी पर मौजूदा पक्ष का कब्जा बरकरार रहेगा, क्योंकि यह फैसला पहले की तुलना में जनहित की दृष्टि से कम हानिकारक होगा।
इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि यद्यपि प्रतिवादी ने न तो इकरारनामे की अवैधता की दलील दी, न ही अपने बचाव में इसका जिक्र किया, इसके बावजूद न्यायालय साक्ष्य में अवैधता सामने आने पर इसका संज्ञान लेगा और संबंधित अर्जी खारिज कर देगा। इसने व्यवस्था दी है कि कोई भी मैले हाथ न्याय की पवित्र देवी को नहीं छूएगा। इसने कहा है कि जहां दोनों पक्ष गैर-कानूनी इकरारनामे या अन्य लेनदेन में शामिल हों, कोर्ट एक ही अपराध में शामिल दोनों पक्षों को कोई राहत नहीं देगा।"