[सीनियर सिटीजन एक्ट] वकील मेंटेनेंस ट्रिब्यूनल के समक्ष पक्षकारों का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं, धारा 17 का कोई प्रतिबंध नहीं: दिल्ली हाईकोर्ट

Update: 2022-10-04 05:41 GMT

दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि माता-पिता और सीनियर सिटीजन का भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम, 2007 की धारा 17 पक्षकारों को भरण-पोषण न्यायाधिकरण (Maintenance Tribunal) के समक्ष कानूनी विशेषज्ञ का प्रतिनिधित्व करने से नहीं रोकेगी।

अधिनियम, 2007 की धारा 17 में विशेष रूप से कहा गया कि किसी न्यायाधिकरण या अपीलीय न्यायाधिकरण के समक्ष कार्यवाही में किसी भी पक्ष का प्रतिनिधित्व किसी कानूनी व्यवसायी द्वारा नहीं किया जाएगा, चाहे किसी भी कानून में कुछ भी शामिल हो। हाईकोर्ट के समक्ष 2019 में दायर याचिकाओं के बैच ने प्रावधान को चुनौती देते हुए आरोप लगाया कि यह एडवोकेट एक्ट की धारा 30 का उल्लंघन है, जो वकीलों को अदालतों और न्यायाधिकरणों में प्रैक्टिस करने का अधिकार देता है।

जस्टिस विभू बाखरू और जस्टिस अमित महाजन की खंडपीठ ने हाल के फैसले में पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट के 2014 के फैसले पर अपनी सहमति व्यक्त की, जिसमें यह माना गया कि यदि कोई न्यायाधिकरण कानूनी रूप से साक्ष्य लेने के लिए अधिकृत है तो वकील को वहां प्रैक्टिस करने का अधिकार है।

अदालत ने यह भी कहा कि पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने अपने फैसले में केंद्र से एडवोकेट एक्ट, 1961 की धारा 30 के संदर्भ में 2007 के अधिनियम के प्रावधानों पर फिर से विचार करने का अनुरोध किया।

खंडपीठ ने 27 सितंबर को अपने आदेश में कहा,

"हमें सूचित किया जाता है कि अभी तक इस संबंध में न तो कोई निर्णय लिया गया और न ही माननीय पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट द्वारा पारित फैसले के खिलाफ कोई अपील दायर की गई।"

याचिकाकर्ताओं में से एक एडवोकेट पवन रिले ने प्रावधान का हवाला देते हुए मेंटेनेंस ट्रिब्यूनल द्वारा प्रवेश से इनकार करने के बाद 2019 में 2007 अधिनियम की धारा 17 को चुनौती दी। एक महिला ने मेंटेनेंस ट्रिब्यूनल के समक्ष अधिनियम के तहत दायर शिकायत के संबंध में रिले को उसके वकील के रूप में नियुक्त किया।

अदालत के समक्ष यह भी तर्क दिया गया कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) का उल्लंघन होने के कारण भरण-पोषण अधिनियम की धारा 17 असंवैधानिक है।

केरल हाईकोर्ट द्वारा 2021 में पारित फैसले पर भरोसा करने के अलावा, जिसमें धारा 17 को एडवोकेट एक्ट की धारा 30 के लिए अल्ट्रा वायर्स के रूप में घोषित किया गया था, याचिकाकर्ता ने पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट के 28.05.2014 के फैसले पर भरोसा करते हुए कहा कि पक्षकार एडवोकेट एक्ट की धारा 30 के मद्देनजर कानूनी प्रतिनिधित्व से इनकार नहीं किया जा सकता।

दूसरी ओर केंद्र ने कहा कि उसने केरल या पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट के फैसलों को चुनौती नहीं दी।

खंडपीठ के समक्ष याचिकाकर्ताओं ने प्रस्तुत किया कि वे संतुष्ट होंगे यदि मेंटेनेंस ट्रिब्यूनल के समक्ष पक्षकार को कानूनी प्रतिनिधित्व की अनुमति है और यदि इस तरह के अधिकार की अनुमति है तो वे अधिनियम की धारा 17 के संवैधानिक अधिकारों को चुनौती नहीं देना चाहते।

याचिकाओं का निपटारा करते हुए खंडपीठ ने कहा:

"हम माननीय पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट द्वारा लिए गए दृष्टिकोण से सहमत हैं और निर्देश देते हैं कि अधिनियम की धारा 17 मेंटेनेंस ट्रिब्यूनल के समक्ष पक्षकारों की ओर से कानूनी प्रतिनिधित्व के रास्ते में नहीं आएगी।"

पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने अपने 2014 के फैसले में कहा कि एडवोकेट एक्ट, 1961 की धारा 30, मेंटेनेंस एक्ट, 2007 के लागू होने के काफी बाद 15.06.2011 को लागू हुई।

अधिनियम की धारा 17 [अधिनियम, 2007] और धारा 30 [अधिनियम, 1961] को सामंजस्यपूर्ण रूप से लागू करते हुए अदालत ने कहा:

"इसमें कोई संदेह नहीं है कि उक्त अधिनियम की धारा 17 के खंड से शुरू होती है। हालांकि, कानूनी व्यवसायी द्वारा प्रतिनिधित्व के अधिकार का निर्धारण करते समय इस्तेमाल किया गया पूरा वाक्यांश "किसी भी कानून में निहित कुछ के बावजूद" है। संदर्भ कानून में केवल वही कानून हो सकता है जो लागू हो। जिस तारीख को उक्त अधिनियम 31.12.2007 को लागू हुआ, उस दिन एडवोकेट एक्ट की धारा 30 क़ानून की किताब में मौजूद नहीं थी। कार्यपालिका को यह सूचित करने का अधिकार दिया कि यह प्रावधान किस तारीख से लागू होगा। इस प्रकार, एडवोकेट एक्ट की धारा 30 केवल "कोई कानून" होगी यदि यह क़ानून की किताब पर है। यह प्रावधान क़ानून की किताब पर 15.06.2011 से ही प्रभावी हुआ है।"

केस टाइटल: पवन रिले और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य और अन्य जुड़े मामले

साइटेशन: लाइव लॉ (दिल्ली) 928/2022 

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