आईपीसी धारा 498ए वैवाहिक-बलात्कार के खिलाफ उपाय नहीं है: एमिकस क्यूरी रेबेका जॉन ने दिल्ली हाईकोर्ट से कहा
दिल्ली हाईकोर्ट ने सोमवार को भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के अपवाद को चुनौती देने वाली विभिन्न याचिकाओं की सुनवाई जारी रखी, जो एक पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ बलपूर्वक संभोग को बलात्कार के अपराध से छूट देता है।
मामले में न्याय मित्र के रूप में पेश वरिष्ठ अधिवक्ता रेबेका जॉन ने न्यायमूर्ति राजीव शकधर और न्यायमूर्ति सी हरि शंकर की पीठ से कहा कि आईपीसी की धारा 375 के अपवाद 2 को बरकरार रखा जाना संवैधानिक नहीं होगी।
जॉन ने यह भी दलील दी कि आईपीसी की धारा 498ए, 304बी, घरेलू हिंसा अधिनियम और अन्य नागरिक उपचार सहित विभिन्न कानूनों में अन्य प्रावधानों की उपलब्धता, एक पत्नी द्वारा अपने पति पर बलात्कार का आरोप लगाने से संबंधित धारा 375 के तहत बलात्कार के अपराध से निपटने के लिए अपर्याप्त है।
यह कहते हुए कि उक्त प्रावधानों और आईपीसी की धारा 375 के बीच कोई स्पष्ट समानता नहीं है, उन्होंने तर्क दिया कि मूल अपराध के कुछ तत्व मौजूद हो सकते हैं, हालांकि, हर अपराध पर अलग से मुकदमा चलाया जाना चाहिए।
जॉन ने दलील दी,
"इसलिए यह तर्क देना कि पत्नियों के पास धारा 498A के तहत घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत घरेलू और इस तरह के अधिनियमों के तहत उपचार हैं, एक तर्कसंगत दलील नहीं है। बेशक, वे मौजूद हैं, लेकिन अलग-अलग अपराधों के लिए, जो किसी दिए गए मामले को एक गंभीर अपराध में जोड़ा जा सकता है।"
उन्होंने कहा,
"यह व्यक्तिगत मामले के तथ्यों पर निर्भर करता है। धारा 375 की सामग्री अलग है और ऐसा कोई कारण नहीं है कि धारा 498ए को धारा 375 के विकल्प के रूप में क्यों इस्तेमाल किया जा सकता है। इसका अतिरिक्त तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है लेकिन यह एक विकल्प नहीं है।"
जॉन दिल्ली सरकार की ओर से पेश उस दलील पर यह टिप्पणी कर रही थी कि वैवाहिक बलात्कार के गैर-अपराधीकरण से संबंधित आईपीसी की धारा 375 का अपवाद विवाहित महिला को उसके पति द्वारा जबरन यौन संबंध बनाने के मामले में बिना उपचार के नहीं छोड़ती है। दिल्ली सरकार द्वारा यह तर्क दिया गया था कि अपवाद पत्नी को पति के साथ संभोग करने के लिए मजबूर नहीं करता है और ऐसी स्थितियों में आपराधिक कानून के तहत अन्य उपायों सहित तलाक का उपाय उसके लिए उपलब्ध है।
इसलिए जॉन का तर्क था कि केवल तथ्य यह है कि क़ानून की किताबों में अन्य प्रावधान उपलब्ध हैं, इसका मतलब यह नहीं हो सकता कि वैवाहिक बलात्कार को धारा 375 से छूट दी जानी चाहिए।
आज बहस के दौरान, जॉन ने गुजरात हाईकोर्ट की एकल न्यायाधीश पीठ द्वारा ''निमेशभाई भरतभाई देसाई बनाम गुजरात सरकार'' मामले में दिए गए फैसले का भी उल्लेख किया, जिसमें यह देखा गया था कि वैवाहिक बलात्कार छूट का कुल वैधानिक उन्मूलन समाज को यह सिखाने की दिशा में पहली जरूरत है कि महिलाओं के साथ अमानवीय व्यवहार को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और वैवाहिक बलात्कार एक पति का विशेषाधिकार नहीं है, बल्कि एक हिंसक कृत्य और एक अन्याय है जिसे अपराध घोषित किया जाना चाहिए।
उन्होंने एक अन्य घटनाक्रम का भी उल्लेख किया जिसमें 2021 में गुजरात हाईकोर्ट की एक खंडपीठ ने आईपीसी की धारा 375 के अपवाद 2 की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका पर नोटिस जारी किया था।
आगे भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत प्रदान किए गए दोहरे परीक्षण का उल्लेख करते हुए, जॉन ने सुप्रीम कोर्ट के दो निर्णयों, अर्थात् 'नवतेज जौहर बनाम भारत सरकार (2018)' और 'तमिलनाडु सरकार बनाम नेशनल साउथ इंडियन रिवर इंटरलिंकिंग एग्रीकल्चरिस्ट एसोसिएशन (2021)' मामले में की गयी टिप्पणियां कोर्ट के समक्ष रखी। ।
दूसरे मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था,
"भारतीय संविधान के तहत समानता खंडों के सही अर्थ में कानून के 'प्रभाव' के बजाय - 'उद्देश्य' पर विशेष जोर, खासकर तब जब उद्देश्य स्पष्ट है- को आगे नहीं बढ़ाया जाना चाहिए।"
उक्त संदर्भ में, जॉन ने दलील दी कि जहां न्यायालय अपवाद 2 की संवैधानिकता की जांच के लिए दोहरे परीक्षण को लागू करेगा, तथापि, दो निर्णयों में दिए गए उक्त मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।
भारत के अंतरराष्ट्रीय दायित्वों का उल्लेख करते हुए, जॉन ने दलील दी कि यह एक अच्छी तरह से स्थापित स्थिति है कि अंतरराष्ट्रीय संधियों और कानूनों को घरेलू कानून के साथ पढ़ा जा सकता है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि वे घरेलू कानूनों के अनुरूप हैं।
जॉन ने दलील दी,
"ऐसा ही धारा 375 अपवाद 2 के मामले में भी किया जा सकता है।"
अपनी दलीलें समाप्त करते हुए, जॉन ने कहा कि वैवाहिक बलात्कार के मुद्दे पर अपने विचारों के कारण पिछले कुछ दिनों में उन्हें बहुत सारे नफरत भरे ईमेल प्राप्त हुए हैं, उन्होंने कहा कि अंततः इस मुद्दे पर संवैधानिकता की कसौटी पर फैसला करना होगा।
दूसरी ओर, पहले के अनुरोध को दोहराते हुए, भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कोर्ट से मामले में बहस फिर शुरू करने के लिए केंद्र को कुछ और समय देने का अनुरोध किया।
मेहता ने कहा,
"(इस मामले में) केवल एक प्रावधान की संवैधानिक वैधता तय नहीं कर रहा है। इसे सूक्ष्म कोण से नहीं देखा जा सकता है। एक महिला की गरिमा दांव पर है। पारिवारिक मुद्दे हैं।"
उन्होंने दलील दी कि चूंकि ऐसे कई विचार होंगे जिन्हें केंद्र को समझने होंगे, इसलिए तत्काल प्रतिक्रिया देना संभव नहीं होगा, खासकर तब जब कोई आसन्न खतरा नहीं था कि किसी को कुछ होने वाला है।
उन्होंने कहा,
"हमें जवाब देने के लिए उचित समय की आवश्यकता होगी।"
इस पर न्यायमूर्ति शकधर ने कहा:
"हमारी चिंता यह है कि यह यहीं खत्म नहीं होने वाला है। जो भी पक्ष नाराज होगा ... महत्व के कारण ... संबंधित पार्टी इसे अपीलीय कोर्ट में ले जा सकती है। यदि यह विधायी मोड में है, तो यह वहीं खत्म होने जा रहा है।''
"सरकार का अपना दृष्टिकोण हो सकता है, लेकिन इसे एक विशेष अवधि से आगे लटकाए रखने पर इसका अर्थ समाप्त हो जाता है।"
तदनुसार, कोर्ट ने सॉलिसिटर जनरल को 10 दिनों की अवधि के बाद अपनी दलील के साथ वापस आने का निर्देश दिया।
इससे पहले, जॉन ने दलील दी थी कि भारतीय दंड संहिता की धारा 375 से अपवाद 2 को हटाने से कोई नया अपराध नहीं होगा।
उन्होंने जोर देकर कहा था कि आईपीसी की धारा 375 के अपवादों में 'सहमति' एक अंतर्निहित शर्त है। जॉन ने यह स्थापित करने की कोशिश की कि 'सहमति से' किए जाने पर 'यौन कार्य' अपराध नहीं हैं। हालांकि, जब यही यौन क्रिया "महिला की सहमति के बिना" की जाती है, तो यह आईपीसी की धारा 375 को लागू करने का मूलभूत आधार बन जाता है।
वैवाहिक बलात्कार के खिलाफ याचिकाएं गैर सरकारी संगठनों आरआईटी फाउंडेशन, अखिल भारतीय लोकतांत्रिक महिला संघ और दो अन्य व्यक्तियों द्वारा दायर की गई हैं।