सीआरपीसी की धारा 427 – आजीवन कारावास से फरार अपराधी की सजा एक साथ नहीं चलेगी: कर्नाटक हाईकोर्ट
कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा है कि पैरोल की छुट्टी के बाद फरार होने को लेकर सजा सुनाए जाने पर आजीवन कारावास का दोषी, यह दावा नहीं कर सकता कि कम गंभीर प्रकृति वाली उसकी बाद की सजा उस जेल की अवधि के साथ-साथ चलेगी, जिसे वह पहले से काट रहा था।
कोर्ट ने कहा कि भागा हुआ दोषी सीआरपीसी की धारा 427(2) का लाभ नहीं ले सकता है, जिसमें कहा गया है कि पहले से ही कारावास की सजा काट रहे व्यक्ति की अगली सजा साथ-साथ चलेगी।
कोर्ट ने माना कि यह प्रावधान एक फरार अपराधी के लिए उपलब्ध नहीं है।
जस्टिस एचपी संदेश ने कहा,
"जब किसी अवधि के लिए कारावास की सजा एक भागे हुए अपराधी को सीआरपीसी के तहत दी जाती है, तो धारा सीआरपीसी की धारा 426 (2) (ए) लागू होती है और अदालत को भगोड़े अपराधी की सजा के संबंध में किए गए स्पष्ट प्रावधानों पर ध्यान देना होता है। कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि धारा 426 (2) (बी) में भी स्पष्ट है कि यदि ऐसी सजा उस सजा से अधिक गंभीर नहीं है जो अपराधी को उसके भाग जाने पर भुगतनी होगी, तो नई सजा तब शुरू होगी जब भागने के कारण बची हुई पहले की सजा पूरी हो जाएगी।"
इसके अलावा, मामले के तथ्यों में, बेंच ने कहा,
"याचिकाकर्ता ने पैरोल पर रिहा होने से संबंधित आदेश का पालन नहीं किया है और उसने पैरोल पर अपनी रिहाई का दुरुपयोग किया है और वह भी साढ़े 5 साल की अवधि के लिए, इसलिए उक्त याचिकाकर्ता के संबंध में नरमी बरतने के अनुरोध पर विचार नहीं किया जा सकता है। यदि इस तरह की उदारता आरोपी/याचिकाकर्ता के लिए दिखाई गयी, जो साढ़े पांच साल की अवधि के लिए तक कठोर कारावास से फरार रहा, उसके लिए यदि उदाहरता दिखाई जाती है तो यह न्याय का मजाक होगा।".
मामले की पृष्ठभूमि:
दोषी बंदनवाज ने तृतीय अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, विजयपुरा द्वारा 15.03.2021 को पारित आदेश को चुनौती देते हुए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। इस मामले में देरी के कारण उसकी अपील खारिज कर दी गई थी और कर्नाटक जेल अधिनियम की धारा 58 के तहत छह महीने के साधारण कारावास की सजा की पुष्टि की गयी थी।
आरोपी को हत्या के आरोप में दोषी ठहराया गया था और वर्ष 2005 में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। उसे 2011 में 15 दिनों की अवधि के लिए पैरोल अवकाश दिया गया था। हालांकि, वह वापस नहीं आया और साढ़े 5 साल बाद उसे गिरफ्तार कर लिया गया। बाद में उस पर कर्नाटक जेल अधिनियम की धारा 58 के तहत मुकदमा चलाया गया, जिसमें उसने अपना दोष स्वीकार कर लिया और उसे दोषी ठहराया गया।
कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि छह महीने की साधारण कारावास की अवधि याचिकाकर्ता द्वारा आजीवन कारावास की सजा पूरी करने के बाद शुरू होगी। उक्त आदेश को सत्र न्यायाधीश के समक्ष चुनौती दी गई थी। चूंकि अपील दायर करने में 960 दिनों की देरी हुई, इसलिए अपील खारिज कर दी गई।
याचिकाकर्ता की दलीलें:
याचिकाकर्ता की ओर से पेश अधिवक्ता आर एस लगली ने तर्क दिया था कि ट्रायल जज का आदेश कानून के तय सुझाव के खिलाफ है और आजीवन कारावास की सजा पूरी होने के बाद सजा भुगतने की शर्त कठोर है।
वकील ने सीआरपीसी की धारा 427(2) का हवाला दिया और 'जितेंद्र उर्फ कल्ला बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार एआईआर 2018 एससी 5253' मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा जताया, जिसमें यह व्यवस्था दी गयी थी कि जब हत्या के दो अपराधों के संबंध में आजीवन कारावास की सजा का आदेश दिया गया था, तो लगातार सजा देने का कोई सवाल ही नहीं है और सजा एक साथ चलेगी।
अभियोजन पक्ष ने किया याचिका का विरोध :
एडवोकेट गुरुराज वी हसिलकर ने दलील दी कि इस मामले में सीआरपीसी की धारा 427 (2) लागू नहीं होगा, क्योंकि याचिकाकर्ता सजा बच गया था और वह भी तब साढ़े 5 साल की अवधि के लिए फरार हो गया था जब उसे पैरोल पर रिहा किया गया था। यह भी दलील दी गयी थी कि ऐसे मामले में सीआरपीसी की धारा 426 लागू होती है न कि धारा 427 (दो)।
न्यायालय का निष्कर्ष:
कोर्ट ने सीआरपीसी की धारा 427 और 426 का हवाला दिया और कहा,
"सीआरपीसी की धारा 427, पहले से ही किसी अन्य अपराध के लिए सजा पाए अपराधी को सजा के संबंध में खुलासा करती है। लेकिन मौजूदा मामले में यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि वह पहले से ही आईपीसी की धारा 302 के तहत दंडनीय अपराध के लिए दोषी ठहराया गया था और माना जाता है कि वह सजा काट रहा था और इसमें कोई संदेह नहीं है कि धारा 427(2) कहती है कि, जब एक व्यक्ति पहले से ही आजीवन कारावास की सजा काट रहा है, तो उसे बाद में एक खास अवधि के लिए कारावास या आजीवन कारावास की सजा सुनाई जाती है तो बाद की सजा ऐसी पिछली सजा के साथ-साथ चलेगी।"
इसमें कहा गया है,
"जब एक भागे हुए अपराधी को एक अवधि के लिए कारावास की सजा दी जाती है, तो सीआरपीसी की धारा 426 (2) (ए) लागू होती है और कोर्ट को इस संबंध में भागे हुए अपराधी के बारे में सजा को लेकर स्पष्ट प्रावधानों पर ध्यान देना होता है। कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि धारा 426 (2) (बी) में भी स्पष्ट है कि यदि ऐसी सजा उस सजा से अधिक गंभीर नहीं है जो अपराधी को उसके भाग जाने पर भुगतनी होगी, तो नई सजा तब शुरू होगी जब भागने के कारण बची हुई पहले की सजा पूरी हो जाएगी।''
तदनुसार यह व्यवस्था दी गयी,
"वर्तमान मामले में, कर्नाटक कारागार अधिनियम, 1963 की धारा 58 के तहत अपराध के लिए सजा छह महीने कारावास की है और पहले की सजा सश्रम आजीवन कारावास है। इसलिए, मामले के तथ्यों पर धारा 426(2) )(बी) लागू होती है।"
इसके अलावा कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता को हत्या के अपराध के लिए आजीवन कारावास की कठोर सजा दी गई थी और वह 15 दिनों की पैरोल अवधि पर छूटने के बाद लौटने के बजाय साढ़े पांच साल की अवधि के लिए भाग गया और यह अवधि कोई छोटी अवधि नहीं है।
इसमें कहा गया,
"जब याचिकाकर्ता का आचरण इस प्रकार है, तो सीआरपीसी की धारा 427 (2) का प्रावधान लागू नहीं हो सकता, जैसा कि याचिकाकर्ता के विद्वान वकील ने दलील दी है और मामले पर विचार करते समय याचिकाकर्ता के आचरण को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।"
कोर्ट ने 'मोहम्मद जाहिद बनाम एनसीबी के जरिये सरकार' के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा जताया और याचिकाकर्ता की इस दलील को खारिज कर दिया कि याचिकाकर्ता के आचरण पर ट्रायल कोर्ट द्वारा विचार नहीं किया जा सकता और जब सजा को लगातार चलाने की बात आती है तब भी कोर्ट विवेकाधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता।
कोर्ट ने कहा,
"अपराध की प्रकृति या किए गए अपराधों और स्थिति में तथ्यों के आधार पर विवेकपूर्ण तरीके से विवेकाधिकार का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। इस मामले में, याचिकाकर्ता ने हत्या का जघन्य अपराध किया और कठोर आजीवन कारावास से गुजर रहा था। दोनों अपराध अलग हैं और मामले अलग-अलग निर्णयों द्वारा तय किए गए हैं। इसलिए, याचिकाकर्ता को सीआरपीसी की धारा 427 के तहत लाभ नहीं मिल सकता है।"
केस शीर्षक: बंदेनवाज बनाम कर्नाटक सरकार
साइटेशन : 2022 लाइव लॉ (कर) 6
केस नंबर: Crl.Rp.No.200077/2021
आदेश की तिथि: 23 दिसंबर 2021
वकील: याचिकाकर्ता के लिए अधिवक्ता आर.एस. लगली; प्रतिवादी के लिए एडवोकेट गुरुराज वी. हसिलकर।
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