सेक्‍शन 45 पीएमएलएः बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा, जमानत की जुड़वां शर्तें जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक घोषित किया था, 2018 संशोधन अधिनियम के जर‌िए पुनर्जीवित

Update: 2022-02-01 01:18 GMT

बॉम्बे हाईकोर्ट

बॉम्बे हाईकोर्ट की दो जजों की बेंच ने हाल के एक मामले में कहा कि धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 की धारा 45(1) में जमानत की जुड़वा शर्तों, जिन्हें निकेश टी शाह बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2018) 11 एससीसी 1 में सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक घोषित किया गया था, 2018 के संशोधन अधिनियम 13 के तहत विधायी हस्तक्षेप के मद्देनजर पुनर्जीवित किया गया है।

इन टिप्‍पणियों के सा‌थ खंडपीठ ने समीर एम भुजबल बनाम सहायक निदेशक, प्रवर्तन निदेशालय में बॉम्बे हाईकोर्ट की सिंगल बेंच की ओर से पहले व्यक्त किए गए विचार से हट गई है। यह ध्यान दिया जा सकता है कि जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस एमएम सुंदरेश की सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने हाल ही में दोहराया था कि धारा 45 के तहत जमानत देने के लिए जुड़वां शर्तें लागू नहीं थीं।

07.10.2021 के आदेश में स्पष्टीकरण की मांग के लिए दायर आवेदन पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आरोप पत्र दाखिल किये जाने पर जांच के दरमियान गिरफ्तार नहीं किये गये आरोपियों को जमानत दिये जाने के पहलू पर दिशा निर्देश जारी करते स्पष्ट किया कि जमानत देने के लिए प्रिवेंशन ऑफ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट (पीएमएलए) की धारा 45 में निर्दिष्ट जुड़वां शर्तों को रद्द कर दिया गया है।

दोनों शर्तें इस प्रकार हैं-

-लोक अभियोजक को ऐसी रिहाई के लिए आवेदन का विरोध करने का अवसर दिया गया है; और

-जहां लोक अभियोजक आवेदन का विरोध करता है, अदालत संतुष्ट होती है कि यह मानने के लिए उचित आधार हैं कि वह इस प्रकार के अपराध का दोषी नहीं है और जमानत पर रहते हुए उसके कोई अपराध करने की संभावना नहीं है:…

मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट की खंडपीठ सिंगल जज के फैसले के संदर्भ पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें कहा गया था कि विधायी हस्तक्षेप को देखते हुए असंवैधानिकता की घोषणा का आधार हटा दिया गया और इसलिए समीर भुजबल और योगेश देशमुख के मामलों में विद्वान एकल न्यायाधीशों द्वारा व्यक्त विचारों से सहमत होने में असमर्थता व्यक्त की।

खंडपीठ को भेजा गया प्रश्न था-

"क्या 2002 अधिनियम की धारा 45(1) में जुड़वां शर्तें, जिन्हें निकेश टी शाह बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2018)11 SCC 1 में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय द्वारा असंवैधानिक घोषित किया गया था, उसे 2018 के संशोधन अधिनियम 13 के तहत विधायी हस्तक्षेप के मद्देनजर पुनर्जीवित किया गया है ?"

संदर्भ का उत्तर देते हुए, जस्टिस विनय जोश द्वारा लिखे गए निर्णय में कहा गया है कि विधायिका संशोधन के माध्यम से न्यायालय के निर्णय को पूर्ववत नहीं कर सकती है, लेकिन उसके पास संशोधन के माध्यम से न्यायालय के निर्णय द्वारा उजागर किये गये दोष में सुधार करने की शक्ति है।

फैसले में आगे कहा गया कि संशोधन की संवैधानिक वैधता को हाईकोर्ट के समक्ष चुनौती नहीं दी गई है। वास्तव में, सुप्रीम कोर्ट के समक्ष इसकी संवैधानिक वैधता को लंबित रखते हुए, इसे संवैधानिक रूप से वैध माना जाना चाहिए।

फैसले में कहा गया,

"यह मुद्दा कि क्या 2018 के संशोधन अधिनियम 13 ने सभी दोषों को ठीक कर दिया है, सीधे 2018 के संशोधन अधिनियम 13 की वैधता के पहलू से जुड़ा है जो विचार के लिए मामला नहीं है और न ही इस संदर्भ के तहत वैधानिक प्रावधान के तहत दायर जमानत आवेदन से पैदा मामले से निपटा जा सकता है।" (पैरा 39))

"निकेश शाह (सुप्रा) के निर्णय के बाद संसद ने अधिनियम की धारा 45 में एक संशोधन पेश किया है, जिसने पूरे ढांचे को बदल दिया है। केवल इसलिए कि पूरे खंड को फिर से लागू नहीं किया गया है, इसका कोई परिणाम नहीं है। बेशक, संशोधन अधिनियम को अदालतों द्वारा अभी तक खारिज नहीं किया गया है क्योंकि उक्त चुनौती लंबित है। चूंकि आज की तारीख में विधायी संशोधन अस्तित्व में है, इसलिए संवैधानिकता की धारणा लागू होगी।" (पैरा 45)

न्यायालय ने इस तथ्य पर भी ध्यान दिया है कि संशोधन अधिनियम के लिए संवैधानिक चुनौती लंबित होने के बावजूद, पी चिदंबरम में सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्धारित नहीं किया कि निकेश शाह मामले को देखते हुए जुड़वां शर्तें जीवित नहीं रहेंगी। कोर्ट ने संदर्भ का उत्तर यह कहते हुए दिया है कि पीएमएलए, 2002 की धारा 45 के तहत जमानत के लिए जुड़वां शर्तें संशोधन अधिनियम के आधार पर पुनर्जीवित और संचालित होंगी, जो आज की तारीख में लागू है।

तद्नुसार, संबंधित न्यायालय को उक्त टिप्पणियों के आलोक में अपीलकर्ता की जमानत अर्जी पर विचार करने का निर्देश दिया गया है।

केस शीर्षक: अजय कुमार बनाम प्रवर्तन निदेशालय

सिटेशन: 2022 लाइव लॉ (बॉम्‍बे) 27

कोरम: जस्टिस विनय जोशी, जस्टिस वीएम देशपांडे

निर्णय यहां पढ़ें/डाउनलोड करें

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