धारा 27(2) पॉक्सो एक्ट | महिला पीड़ित की जांच पुरुष चिकित्सक ने की, अभियुक्त इसे कवच के रूप में इस्तेमाल नहीं कर सकता: उड़ीसा हाईकोर्ट
उड़ीसा हाईकोर्ट ने हाल ही में स्पष्ट किया कि पॉक्सो अधिनियम की धारा 27(2) के तहत जनादेश का अनुपालन न करने पर किसी आरोपी के अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है।उक्त प्रावधान के अनुसार पीड़िता का चिकित्सकीय परीक्षण केवल महिला डॉक्टरों ही कर सकती है।
संगम कुमार साहू की एकल न्यायाधीश पीठ ने कहा,
उक्त प्रावधान का महत्वपूर्ण उद्देश्य "न्यायिक कार्यवाही के हर चरण में बच्चों के हित और भलाई की रक्षा करना है। पॉक्सो अधिनियम की धारा 27 (2) को बालिकाओं को शर्मिंदगी से बचाने और यह सुनिश्चित करने के लिए शामिल किया गया है कि वे सहज रहें। इसका अभिप्राय अभियुक्तों के पक्ष में सुरक्षा कवच बनाना नहीं है।”
मॉडल पुलिस स्टेशन, परलाखेमुंडी के समक्ष पीड़िता के पिता ने एक प्राथमिकी दर्ज कराई थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि अपीलकर्ता, जो उसका पड़ोसी था, उसने उसकी बेटी की योनि में अपनी उंगलियां डालीं, जो घटना के समय लगभग सात वर्ष की थी।
पुलिस ने अपीलकर्ता के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 376-एबी/376(2)(एन) सह पठित पॉक्सो अधिनियम की धारा 6 के तहत आरोप पत्र प्रस्तुत किया।
ट्रायल कोर्ट ने पीड़िता के हाइमन पर पाई गई चोट पर ध्यान दिया और रिकॉर्ड पर मौजूद मौखिक और दस्तावेजी सबूतों पर भी विचार किया ताकि यह निष्कर्ष निकाला जा सके कि अभियोजन पक्ष ने अपने मामले को सभी उचित संदेहों से परे साबित किया है और तदनुसार आरोपी को आईपीसी की धारा 376(2)(2)(एन), सहपठित पॉक्सो एक्ट की धारा 6 के तहत दोषी ठहराया।
उक्त आदेश से व्यथित होकर अभियुक्त ने हाईकोर्ट में अपील प्रस्तुत की।
दोषसिद्धि के आदेश को चुनौती देने के लिए, अन्य बातों के साथ-साथ अपीलकर्ता ने यह प्रस्तुत किया कि पॉक्सो अधिनियम की धारा 27 (2) के तहत आदेश के बावजूद पीड़िता की चिकित्सा जांच एक पुरुष चिकित्सक ने की थी, जिसमें विशेष रूप से कहा गया है कि यदि पीड़िता एक बालिका है तो चिकित्सा परीक्षण एक महिला चिकित्सक करेगी।
न्यायालय ने कहा कि पीड़ित लड़की के पिता की सहमति के बाद ही पुरुष चिकित्सक ने पीड़िता की चिकित्सा जांच की। परीक्षा के लिए दिए गए सहमति पत्र से यह स्पष्ट है।
कोर्ट ने कहा, इस तरह की जांच के कारण अपीलकर्ता को कैसे पूर्वाग्रह हुआ, इस बारे में रिकॉर्ड में कुछ भी नहीं है। इसमें कोई विवाद नहीं है कि पॉक्सो अधिनियम का उद्देश्य नाबालिगों को एक वर्ग के रूप में मानना और उनके साथ अलग व्यवहार करना है, ताकि उनके खिलाफ यौन उत्पीड़न और यौन शोषण जैसे अपराध न हो।"
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि प्रावधान अभियुक्तों के पक्ष में सुरक्षा के लिए नहीं है। इसलिए, वर्तमान मामले में, चूंकि अपीलकर्ता किसी भी पूर्वाग्रह को दिखाने में असमर्थ था, जो केवल इसलिए हुआ क्योंकि पीड़िता की जांच एक पुरुष चिकित्सक द्वारा की गई थी और न ही उसने रिपोर्ट की सत्यता को चुनौती दी थी, अदालत ने इस तरह की प्रस्तुति को स्वीकार करने से इनकार कर दिया।
पीड़िता ने दावा किय कि अपीलकर्ता ने उसके साथ दो बार ऐसा ही कृत्य किया था, जबकि कोई एफआईआर नहीं की गई थी और इस बात का कोई विशेष सबूत भी नहीं था कि ऐसी घटना कब हुई थी, अदालत ने पीड़िता के बयान को स्वीकार करना मुश्किल पाया। और इसलिए, धारा 376(2)(एन) के तहत सजा को रद्द कर दिया गया।
कोर्ट ने पॉक्सो एक्ट की धारा 6 के तहत अपीलकर्ता की दोषसिद्धि और दस साल के कठोर कारावास को बरकरार रखा। हालांकि, अपीलकर्ता की खराब वित्तीय स्थिति को देखते हुए ट्रायल कोर्ट की ओर से लगाई गई 10,000 रुपये की जुर्माना राशि को घटाकर 1,000 रुपये कर दिया। छह महीने की अवधि के लिए आरआई की डिफॉल्ट सजा को एक महीने कर दिया।
कोर्ट ने पीड़िता को ओडिशा पीड़ित मुआवजा योजना, 2012 के तहत मुआवजा प्रदान करने के लिए जिला विधिक सेवा प्राधिकरण को संस्तुति की।
केस टाइटल: बरिका प्रधान बनाम ओडिशा राज्य
केस नंबर: जेसीआरएलए नंबर 20 ऑफ 2020
साइटेशन: 2023 लाइवलॉ (मूल) 53