कोर्ट के आदेश के बाद भी पत्नी को पति के साथ रहने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता : गुजरात हाईकोर्ट

Update: 2021-12-31 09:12 GMT

एक महत्वपूर्ण फैसले में गुजरात हाईकोर्ट ने कहा है कि वैवाहिक अधिकारों की बहाली (Restitution Of Conjugal Rights) के लिए पति द्वारा दायर मुकदमे में एक महिला को अदालत की डिक्री (आदेश) के माध्यम से भी अपने पति के साथ रहने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।

जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस निराल मेहता की खंडपीठ ने यह फैसला सुनाते हुए एक फैमिली कोर्ट के उस आदेश को पलट दिया है, जिसके तहत एक मुस्लिम महिला को अपने ससुराल वापस जाने और अपने पति के साथ वैवाहिक दायित्व निभाने का निर्देश दिया गया था।

संक्षेप में मामला

फैमिली कोर्ट (गुजरात में बनासकांठा जिला) के समक्ष प्रतिवादी-पति का मामला यह था कि उसकी पत्नी (जिसके साथ उसने वर्ष 2010 में निकाह किया था) उसने बिना किसी उचित कारण के और बिना किसी को बताए ही 20 जुलाई 2017 को उनके नाबालिग बेटे के साथ अपना वैवाहिक घर छोड़ दिया था।

अदालत के समक्ष आगे यह तर्क दिया गया कि पत्नी को वैवाहिक घर में वापस लाने के लिए उसने कई बार उसे मनाने का प्रयास किया परंतु वह अपनी पत्नी को वापिस लाने में विफल रहा है। इसलिए, उसने मुस्लिम कानून की धारा 282 को लागू करते हुए वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए फैमिली कोर्ट का रुख किया है।

दोनों पक्षों की दलीलों को ध्यान में रखते हुए, बनासकांठा फैमिली कोर्ट ने पति द्वारा दायर वाद को स्वीकार कर लिया और उसकी पत्नी को अपने ससुराल वापस जाने और वैवाहिक दायित्वों को निभाने का निर्देश दिया।

बनासकांठा फैमिली कोर्ट के इस आदेश को चुनौती देते हुए, महिला ने हाईकोर्ट का रुख किया और कहा कि उस पर ऑस्ट्रेलिया में जाकर बसने के लिए दबाव डाला जा रहा है क्योंकि उसके ससुरालवाले जानते हैं कि वह एक योग्य नर्स है और उसे ऑस्ट्रेलिया में आसानी से एक अच्छी नौकरी मिल सकती है। लेकिन वह अपने पति और ससुराल वालों के इस तरह के विचार के खिलाफ है, इसलिए उसने वर्ष 2017 में अपना वैवाहिक घर छोड़ दिया था।

न्यायालय की टिप्पणियां

न्यायालय ने कहा कि वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए एक मुकदमे में दिया जाने वाला निर्णय पूरी तरह से पति के अधिकार पर निर्भर नहीं करता है और फैमिली कोर्ट को यह भी विचार करना चाहिए कि क्या पत्नी को अपने पति के साथ रहने के लिए मजबूर करना उसके लिए न्यायसंगत होगा?

कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि मुसलमानों के बीच विवाह एक नागरिक अनुबंध है और वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए एक मुकदमा इस अनुबंध के तहत एक संघ के अधिकार को लागू करने से ज्यादा कुछ नहीं है (एक अनुबंध का विशिष्ट प्रदर्शन)।

इस मामले के तथ्यों पर कोर्ट ने कहा कि एक अनुबंध के विशिष्ट प्रदर्शन (वैवाहिक अधिकारों की बहाली) के लिए एक डिक्री, एक समान राहत है और न्यायसंगत सिद्धांतों के अनुसार इसे देना या अस्वीकार करना न्यायालय के अधिकारों के अंतर्गत आता है।

''उपरोक्त से यह इस प्रकार है कि एक मुस्लिम पति द्वारा अपनी पत्नी के खिलाफ वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए दायर एक मुकदमे में, अगर अदालत सबूतों की समीक्षा के बाद यह महसूस करती है कि परिस्थितियों से यह जाहिर हो रहा है कि पति अपनी पत्नी के अनावश्यक उत्पीड़न का दोषी है या पति के इस तरह के आचरण के कारण अदालत के लिए उसकी पत्नी को उसके साथ रहने के लिए मजबूर करना न्यायसंगत नहीं है, तो वह इस तरह ही राहत से इनकार कर देगी।''

न्यायालय ने सीपीसी के आदेश XXI नियम 32(1) और (3)(Order XXI Rule 32(1) and (3) CPC) का भी उल्लेख किया, जो यह प्रावधान करता है कि वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए एक डिक्री को दूसरे पक्ष की संपत्ति की कुर्की या मुआवजे और मासिक लाभ के जरिए ही लागू किया जा सकता है। इनके अलावा किसी अन्य तरीके से इस डिक्री को लागू नहीं किया जा सकता है।

अदालत ने कहा कि वर्तमान मामले में, यह इंगित करने के लिए रिकॉर्ड पर कुछ भी नहीं है कि अपीलकर्ता-पत्नी की अपनी कोई संपत्ति है जिसे कुर्क किया जा सकता है।

कोर्ट ने यह भी कहा कि,

''सीपीसी के आदेश XXI नियम 32(1) और (3) के पीछे का उद्देश्य यह है कि कोई भी व्यक्ति किसी महिला या उसकी पत्नी को सहवास करने और वैवाहिक अधिकार स्थापित करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता है। अगर पत्नी सहवास करने से इनकार करती है, तो ऐसे मामले में, उसे एक मुकदमे में एक डिक्री द्वारा वैवाहिक अधिकारों को स्थापित करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है।''

इसके साथ ही, अदालत ने पत्नी द्वारा दायर अपील को स्वीकार कर लिया और इस प्रकार पालनपुर, जिला बनासकांठा, फैमिली कोर्ट द्वारा दिनांक 07.07.2021 को पारित आक्षेपित निर्णय और डिक्री को रद्द कर दिया है।

वहीं मुस्लिम कानून की धारा 282 को लागू करते हुए वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए पति द्वारा दायर पारिवारिक मुकदमे को भी खारिज कर दिया गया।

केस का शीर्षक - जिन्नत फातमा वजीरभाई एएमआई (पत्नी निशात अलीमदभाई पोलरा )बनाम निशात अलीमदभाई पोलरा

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