हिरासत में लिए गए व्यक्ति को दस्तावेजों की आपूर्ति करने से इनकार करना, उसके संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट
जम्मू और कश्मीर हाईकोर्ट ने हाल ही में हिरासत में लिए गए एक व्यक्ति को यह कहते हुए रिहा कर दिया गया कि बंदियों को हिरासत से संबंधित दस्तावेजों की आपूर्ति करना आवश्यक है। इस प्रकार के दस्तावेज देने से इनकार करना और उन्हें अंधेरे में रखना अवैध और उनके संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन है।
यह टिप्पणी जस्टिस रजनीश ओसवाल ने की। उन्होंने कहा,
"याचिकाकर्ता को सभी सामग्रियों की आपूर्ति की जाए, उसके बाद ही वह हिरासतकर्ता प्राधिकरण और सरकार के समक्ष प्रभावशाली प्रतिनिधित्व पेश कर सकता है और यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो वह अपने मूल्यवान संवैधानिक अधिकार से वंचित हो जाएगा। प्रतिवादी संख्या 2 ने हिरासत का आदेश पारित करते समय, जिन सामग्रियों पर भरोसा किया था, उनकी आपूर्ति नहीं कर पाना, इसे अवैध बनाता है।"
याचिकाकर्ता ने हिरासतकर्ता प्राधिकारी के हिरासत आदेश के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाया था, जिसमें आरोप लगाया गया था कि उसे प्राधिकरण द्वारा हिरासत के लिए भरोसा की गई सामग्री और अन्य दस्तावेज उसे दिए नहीं गए और इस प्रकार उसे हिरासत के आदेश के खिलाफ अपना प्रतिनिधित्व पेश करने के अधिकार से वंचित कर दिया गया।
इसके अलावा, याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि उसके खिलाफ लगाए गए आरोप पूरी तरह से आपराधिक प्रकृति के थे और हिरासत में लेने वाला प्राधिकारी यह साबित कर पाने में विफल रहा कि मौजूद कानून बंदी को आपराधिक प्रकृति की गतिविधियों में शामिल होने से रोकने के लिए पर्याप्त क्यों नहीं है।
याचिकाकर्ता को कथित तौर पर 06.09.2020 को उसके घर से पकड़ा गया और फिर एक एफआईआर दर्ज की गई थी। उसके खिलाफ 06.02.2021 को आरोप तय किए गए और उन्हें 13.02.2021 को अदालत ने जमानत दे दी। हालांकि, उसे हिरासत से रिहा नहीं किया गया और एक अन्य एफआईआर उसके खिलाफ दर्ज कर दी गई।
न्यायालय ने पाया कि प्रक्रियात्मक आवश्यकताएं ही हिरासत में लिए जाने वाले व्यक्ति के लिए उपलब्ध एकमात्र सुरक्षा उपाय हैं क्योंकि न्यायालय हिरासत में लेने वाले प्राधिकारी की व्यक्तिपरक संतुष्टि के पीछे नहीं जा सकता है। इसने यह भी उल्लेख किया कि न तो डोजियर में और न ही नजरबंदी के आदेश में, यह उल्लेख किया गया था कि हिरासत आदेश जारी होने से पहले याचिकाकर्ता को 13.02.2021 को जमानत दी गई थी।
यह इस तथ्य की ओर इशारा करता है कि पूरी सामग्री को हिरासत में लेने वाले प्राधिकारी के सामने नहीं रखा गया था ताकि वह अपनी व्यक्तिपरक संतुष्टि को दर्ज कर सके कि याचिकाकर्ता को राज्य की सुरक्षा के लिए हानिकारक गतिविधियों में लिप्त होने से रोकने के लिए निरोध आदेश पारित करना आवश्यक है, जो अदालत की राय में नजरबंदी के आदेश का उल्लंघन करता है। उपरोक्त को ध्यान में रखते हुए, अदालत ने याचिका को अनुमति देने का फैसला किया और बंदी को रिहा करने का निर्देश दिया।
याचिकाकर्ता का प्रतिनिधित्व अधिवक्ता शफकत नजीर ने किया और प्रतिवादी का प्रतिनिधित्व अधिवक्ता इंशा हारून ने किया।
केस शीर्षक: आदिल फारूक मीर बनाम जम्मू-कश्मीर राज्य और अन्य