बलात्कार के अपराध को साबित करने के लिए सेमिनल डिस्चार्ज महत्वपूर्ण नहीं, दिल्ली हाईकोर्ट ने अभियुक्तों की सजा रखी बरक़रार, पढ़ें निर्णय

Update: 2019-08-27 02:16 GMT

वर्तमान मामले में एक निचली अदालत ने दो आरोपी को मानसिक रूप से बीमार महिला के साथ बलात्कार करने के लिए, भारतीय दंड संहिता की धारा 324, 366 और 376 (1) और 376 डी के तहत दोषी ठहराया गया था। उन्हें 20 वर्ष सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई थी, इसके साथ ही उनपर कुल 26000 रुपये का जुर्माना भी लगाया गया था, यह रकम उन्हें अभियोजन पक्ष (पीड़िता) को मुआवजे के रूप में चुकानी थी।

आरोपियों ने अपनी दोषसिद्धि के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट में अपील दायर की, अपीलकर्ता अभियुक्त ने यह तर्क दिया कि उन्हें कुछ भ्रम के तहत दोषी ठहराया गया है और यह गलत पहचान का मामला था। इसके अलावा, उनके द्वारा यह बताया गया कि चूंकि एमएलसी रिपोर्ट, योनि स्वैब (vaginal swab) पर spermatozoa की मौजूदगी से इंकार करती है, इसलिए इस मामले में योनि में प्रवेश की संभावना से इनकार किया जाता है। इसके अलावा उनका तर्क था कि मामले को लेकर एफआईआर दर्ज करने में भी देरी हुई।

अदालत ने एमएलसी रिपोर्ट के बारे में अपीलकर्ता के दावे को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि बलात्कार के अपराध को साबित करने के लिए सेमिनल डिस्चार्ज महत्वपूर्ण नहीं है। प्रताप मिश्रा एवं अन्य बनाम उड़ीसा राज्य, (1977) 3 एससीसी 41 के मामले पर शीर्ष अदालत ने भरोसा करते हुए यह कहा।

अदालत ने यह भी कहा कि पीड़िता की भेद्यता (vulnerability) और उसकी मानसिक स्थिति को देखते हुए, तुरंत प्राथमिकी दर्ज न करने के लिए उसे उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। अदालत ने कहा, "समाज के हाशिए पर रहने वाले और कमजोर वर्ग से होने के चलते, पीड़ित पक्ष द्वारा अगली सुबह (यानी 19.03.2019) पुलिस से संपर्क करने में देरी का मामला, अभियोजन पक्ष के लिए घातक नहीं हो सकता है।" अदालत ने तुलसीदास कनोलकर बनाम गोवा राज्य (2003) 8 एससीसी 590 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर भरोसा किया, यह मामला एक समान पृष्ठभूमि पर आधारित था।

अदालत ने अपील को खारिज करते हुए इस बात पर प्रकाश डाला कि जब दोनों अपीलार्थियों को अभियोगात्मक परिस्थितियों (incriminating circumstances) को स्पष्ट करने के लिए कहा गया तो उनके द्वारा न केवल अस्पष्ट खंडन किये गए, बल्कि परिस्थितियों को लेकर झूठी और स्वाभाविक रूप से विरोधाभासी व्याख्या भी दी गयी। इसके अलावा, अदालत ने राजिंदर बनाम एच.पी. राज्य, (2009) 16 एससीसी 69 के मामले पर भरोसा किया कि यदि गवाही विश्वसनीय है तो अभियोजन पक्ष की एकमात्र गवाही के आधार पर सजा दी जा सकती है। उच्च न्यायालय ने निचली अदालत द्वारा सुनाई गयी सजा और लगाये गए जुर्माने की भी पुष्टि की। 

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