अनुच्छेद 227 के तहत अधीक्षण की शक्ति सीमित, दूसरी अदालत के दृष्टिकोण को प्रतिस्‍थापित करने भर के लिए हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता: गुजरात हाईकोर्ट का वाद संपत्ति की मरम्मत का निर्देश देने से इनकार

Update: 2022-05-06 10:35 GMT

गुजरात हाईकोर्ट ने यह कहते हुए कि संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत शक्तियों का प्रयोग केवल ट्रिब्यूनल/ अधीनस्थ न्यायालयों को अधिकार की सीमा के भीतर रखने के दृष्टिकोण से ही संयम से किया जाना चाहिए।

उक्‍त टिप्‍पणियों के साथ हाईकोर्ट ने एक याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें प्रतिवादी को यह निर्देश देने की प्रार्थना की गई थी वह वाद संपत्ति में आवश्यक मरम्मत करा दे। सिटी सिविल कोर्ट ने याचिकाकर्ता की प्रार्थनका आस्वीकार कर दिया था, जिसके बाद उसने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।

जस्टिस अशोक कुमार जोशी की खंडपीठ ने कहा,

"हाईकोर्ट केवल कानून या तथ्य की त्रुटियों को ठीक करने के लिए हस्तक्षेप नहीं कर सकता है या सिर्फ इसलिए कि ट्रिब्यूनल या उसके अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा लिया गया एक अन्य दृष्टिकोण एक संभावित दृष्टिकोण है। दूसरे शब्दों में अधिकार क्षेत्र का बहुत कम प्रयोग किया जाना चाहिए।"

याचिकाकर्ता (मूल वादी) ने प्रतिवादी (मूल प्रतिवादी) के स्वामित्व की संपत्ति की मरम्मत के लिए एक वाद दायर किया। वाद संपत्ति 2003 में याचिकाकर्ताओं को किराए पर दी गई थी, जिसमें वे रेडीमेड कपड़े बेच रहे थे।

याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि संपत्ति का एक हिस्सा टूट गया था, जिससे गिरने और चोट लगने की संभावना थी। नतीजतन, नियमित रूप से किराए के भुगतानकर्ता के रूप में, याचिकाकर्ता ने प्रतिवादी को संपत्ति की मरम्मत कराने का अनुरोध किया। हालांकि, प्रतिवादियों ने इससे इनकार कर दिया। इसके बाद याचिकाकर्ता ने दीवानी वाद दायर किया जिसे निचली अदालत ने खारिज कर दिया।

यह कहते हुए कि ट्रायल कोर्ट मामले के तथ्यात्मक पहलुओं को ध्यान में रखने में विफल रहा, याचिकाकर्ता ने प्रस्तुत किया कि आदेश संपत्ति के हस्तांतरण अधिनियम में निहित इक्विटी के सिद्धांतों के खिलाफ था।

परिसर को श्रमिकों के लिए रहने योग्य बनाने के लिए मरम्मत की अनुमति दी जानी चाहिए थी क्योंकि संपत्ति में एक गो-डाउन शामिल था। यह भी कहा गया कि महामारी के कारण याचिकाकर्ता बहुत वित्तीय संकट में था और फिर भी प्रतिवादी ने मरम्मत की अनुमति नहीं दी।

प्रतिवादी ने अदालत के आदेश का समर्थन किया और आग्रह किया कि अनुच्छेद 227 के तहत सीमित शक्तियों के कारण हाईकोर्ट आदेश में हस्तक्षेप नहीं कर सकता है। विवादों को ध्यान में रखते हुए, शालिनी श्याम शेट्टी और अन्य बनाम राजेंद्र शंकर पाटिल, (2010) 8 एससीसी 329 पर भरोसा किया गया।

अनुच्छेद 227 के तहत अधीक्षण की शक्ति न तो मूल है और न ही अपीलीय है और प्रशासनिक और न्यायिक अधीक्षण दोनों के लिए विस्तारित है। अनुच्छेद 226 का प्रयोग आम तौर पर तब किया जाता है जब कोई पक्ष प्रभावित होता है, लेकिन अनुच्छेद 227 का प्रयोग हाईकोर्ट द्वारा न्याय के स्वप्रेरणा संरक्षक के रूप में किया जाता है।

खंडपीठ ने अनुच्छेद 226 और अनुच्छेद 227 के बीच निम्नलिखित अंतर बताए-

#अनुच्छेद 227 के तहत एक याचिका रिट याचिका नहीं है क्योंकि अनुच्छेद 227 के तहत अधीक्षण की शक्ति अनुच्छेद 226 के तहत शक्ति से काफी अलग है।

#हाईकोर्ट धारा 226 के तहत शक्ति का प्रयोग ऐसे मामलों में जहां वैकल्पिक वैधानिक उपाय उपलब्ध हैं, संयम के साथ ही कर सकती है।

इन अंतरों को ध्यान में रखते हुए, पुरी इन्वेस्टमेंट्स बनाम यंग फ्रेंड्स एंड कंपनी और अन्य MANU/SC0290/2022 का संदर्भ दिया गया, जिसके जर‌िए यह विचार किया गया जहां ट्रिब्यूनल के आदेश में कोई विकृति नहीं है या प्राकृतिक न्याय के मूल सिद्धांतों पर न्याय की घोर और प्रकट विफलता है, हाईकोर्ट केवल कानून या तथ्य की त्रुटियों को ठीक करने के लिए हस्तक्षेप नहीं कर सकता है या सिर्फ इसलिए दूसरी अदालत ने एक अलग दृष्टिकोण लिया है।

नतीजतन, जस्टिस जोशी ने याचिका को मेरिट से रहित बताते हुए खारिज कर दिया।

केस टाइटल: शिव गारमेंट THROUGH SOLE PROP. रमेशचंद्र गीगाजी मौर्या बनाम सूर्यबेन कांतिलाल मेहता

केस नंबर: C/SCA/19421/2021

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