आग न बुझाना, मौत के बोध और इरादे को दर्शाता हैः बॉम्बे हाईकोर्ट ने पत्नी की हत्या करने वाले पति की सजा बरकरार रखी

Update: 2023-01-31 15:30 GMT

Bombay High Court

बॉम्बे हाईकोर्ट ने हाल ही में एक व्यक्ति को हत्या के मामले में दी गई सजा को बरकरार रखते हुए कहा है कि उसने आग बुझाने की कोशिश नहीं की,जो यह दर्शाता है कि उसका इरादा अपनी पत्नी की हत्या करने का था।

जस्टिस नितिन डब्ल्यू सांबरे और जस्टिस आर एन लड्डा की खंडपीठ ने कहा,

‘‘मृतक के शरीर पर मिट्टी का तेल डालने, उसे आग लगाने और आग न बुझाने का अभियुक्त का कृत्य पूरी तरह से उसके खिलाफ माना जाएगा और यह अपीलकर्ता के इरादे और बोध को प्रदर्शित करता है। मृतक अपीलकर्ता की पत्नी थी और घर में अकेली थी। अपीलकर्ता ने स्थिति का अनुचित लाभ उठाया और क्रूर व्यवहार किया। भले ही विचाराधीन घटना पूर्व नियोजित न हो और अचानक हुई हो, प्रतिशोध का तरीका असंगत है।’’

अभियोजन पक्ष के अनुसार अपीलकर्ता शराब पीने के बाद अपनी पत्नी को धमकी देता था कि वह उसे जीवित नहीं छोड़ेगा। एक दिन उसने शराब पी और पत्नी को काम पर जाने से रोक दिया। जब उसने मना किया तो वह आगबबूला हो गया और उस पर मिट्टी का तेल डालकर आग लगा दी। उसका चेहरा, छाती, पेट और जांघ जल गई और उसकी मौत हो गई। मरने से पहले दिए अपने बयान में उसने कहा कि उसके पति ने उस पर मिट्टी का तेल डालकर आग लगा दी थी।

अपीलकर्ता ने दलील दी थी कि उसकी पत्नी खाना बनाते समय मिट्टी के तेल के चूल्हे के फटने से झुलस गई थी। सत्र न्यायाधीश ने मरने से पहले दिए गए बयान और गवाहों की गवाही पर भरोसा किया और उसे भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत दोषी ठहराया।

अपीलकर्ता के वकील अभिषेक अवचट ने तर्क दिया कि मृत्यु से पहले दिए गए बयान पर भरोसा नहीं किया जा सकता क्योंकि यह मजिस्ट्रेट को नहीं बल्कि बिना किसी स्पष्टीकरण के एक पुलिस अधिकारी को दिया गया था। इसके अलावा, मृतका बयान देने के लिए फिट स्थिति में नहीं थी क्योंकि वह 72 प्रतिशत जल गई थी।

अतिरिक्त लोक अभियोजक जी. पी. मुलेकर ने कहा कि मरने से पहले बयान दर्ज करने वाला पुलिस हेड कांस्टेबल (पीएचसी) जांच अधिकारी नहीं था, न ही उसे पुलिस स्टेशन में तैनात किया गया था। एक हत्या के मामले में मजिस्ट्रेट के बजाय एक पुलिस अधिकारी के समक्ष मरने से पहले दिया गया सच्चा बयान भी अभियुक्त को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त है।

अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों पर भरोसा किया और दोहराया कि यह जरूरी नहीं है कि मरने से पहले बयान केवल मजिस्ट्रेट को ही दिया जाए। आवश्यक शर्त यह है कि मरने से पहले दिए गए बयान को दर्ज करने वाले व्यक्ति को इस बात से संतुष्ट होना चाहिए कि मृतक स्वस्थ दिमागी स्थिति में था।

‘‘यह प्रदर्शित करना बचाव पक्ष पर है कि पुलिस अधिकारी के पास झूठा बयान दर्ज करने या अपराध के पीड़ित के बयान को गढ़ने का कुछ एजेंडा या मकसद है। किसी व्यक्ति को अकेले उस मृत्युकालिक बयान के आधार पर ही दोषी करार दिया जा सकता है जो बयान न्यायालय के विश्वास को प्रेरित करता है। यदि बयान के बारे में कुछ भी संदेहास्पद नहीं है, तो कोई पुष्टि आवश्यक नहीं है। न्यायालय को संतुष्ट होना चाहिए कि कोई बहलावा या प्रलोभन नहीं था।’’

अदालत ने कहा कि अभियुक्त ने गलती से चूल्हा फटने के मामले को साबित करने के लिए कोई सामग्री नहीं पेश की। अदालत ने कहा कि साक्ष्य घटना स्थल पर मिट्टी के तेल के चूल्हे की उपस्थिति को नहीं दिखाते हैं तो उसका घटनास्थल पर फटना तो दूर की बात है।

पीएचसी ने गवाही दी कि उसने चिकित्सा अधिकारी की उपस्थिति में मृत्यु पूर्व बयान दर्ज किया था। चिकित्सा अधिकारी ने गवाही दी कि मृतका बयान देने के पहले, दौरान और अंत में समय, स्थान और व्यक्ति के प्रति सचेत और उन्मुख थी।

अदालत ने कहा कि यह संदेह करने के लिए कोई सामग्री नहीं है कि पीएचसी और चिकित्सा अधिकारी के पास मरने से पहले दिए गए बयान को गढ़ने का कोई कारण है।

अदालत ने आगे कहा कि जब मृतका को अस्पताल में भर्ती कराया गया था, तब उसका पति उसके साथ मौजूद था। अदालत ने कहा कि यह स्वतः ही उसे झूठे मामले में फंसाने के लिए मृतका को बहलाने की संभावना से इनकार करता है।

अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि मरने से पहले दिया गया बयान सत्य और स्वैच्छिक है और मृतका एक वैध बयान देने के लिए स्वस्थ स्थिति में थी।

अदालत ने यह भी कहा कि अपीलकर्ता ने यह दावा नहीं किया कि उसने अपनी पत्नी को जलने से बचाने की कोशिश की थी। इसलिए, अदालत ने बचाव पक्ष की इस दलील पर विश्वास नहीं किया कि यह आकस्मिक मृत्यु का मामला था।

अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि,‘‘सत्र न्यायाधीश ने आक्षेपित निर्णय में ठीक ही कहा है कि अभियुक्त द्वारा मृतका को आग लगाने का कार्य उसकी मृत्यु के लिए जानबूझकर किया गया कार्य था, और यह उसके द्वारा पहले दी गई धमकियों से भी पता चलता है कि वह उसे जीवित नहीं रहने देगा। इस प्रकार, किसी भी तरह की कल्पना से यह नहीं कहा जा सकता है कि यह अपराध भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत हत्या के लिए दंडनीय नहीं होगा।’’

केस संख्या- आपराधिक अपील नंबर 63/ 2014

केस टाइटल-उत्तम अन्ना लांडे बनाम महाराष्ट्र राज्य

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