यदि अभियोजन पक्ष हत्या के समय अभियुक्त की उपस्थिति साबित करने में विफल रहता है तो भारतीय साक्ष्य अधिनिय की धारा 114 के तहत कोई प्रतिकूल निष्कर्ष नहीं : कर्नाटक हाईकोर्ट
कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा है कि यदि अभियोजन पक्ष अपराध के स्थान पर अभियुक्त की उपस्थिति को साबित करने में विफल रहता है तो भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 के अनुसार प्रतिकूल निष्कर्ष निकालना उचित नहीं है और न्यायालय आरोपी को अपराध के कारणों का खुलासा करने का निर्देश देने के लिए अधिनियम की धारा 106 को लागू नहीं कर सकता है।
जस्टिस बी वीरप्पा और जस्टिस एस. रचैया की खंडपीठ ने उस आरोपी की तरफ से दायर अपील को आंशिक तौर पर स्वीकार कर लिया,जिसे अपनी पत्नी की हत्या के आरोप में आजीवन कारावास की सजा दी गई थी।
पीठ ने कहा कि,
''किसी भी गवाह ने घटना के स्थान पर आरोपी की उपस्थिति के बारे में बयान नहीं दिया है। चूंकि अभियोजन पक्ष घटना की तारीख पर आरोपी की उपस्थिति को साबित करने में विफल रहा है, इसलिए भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 के प्रावधान के तहत प्रतिकूल निष्कर्ष निकालना उचित नहीं होगा और न्यायालय भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 के तहत प्रावधान को लागू नहीं कर सकता है और अपीलकर्ता से अपनी पत्नी की हत्या के कारणों को बताने के लिए नहीं कह सकता है।''
इसके अलावा यह भी कहा, ''शुरुआत में, अभियोजन पक्ष को इस प्रारंभिक बोझ का निर्वहन करना पड़ता है कि घटना की कथित तारीख पर, आरोपी अकेले मृतक के साथ मौजूद था। इस मामले में, जैसा कि ऊपर कहा गया है, किसी भी गवाह ने इस बात का समर्थन नहीं किया है या बयान नहीं दिया है कि अपीलकर्ता अपनी पत्नी के साथ मौजूद था। इसलिए, निचली अदालत यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकती थी कि आरोपी ही एकमात्र व्यक्ति है जिसने कथित घटना के समय अपनी पत्नी की हत्या की है।''
मामले का विवरणः
आरोपी सुरेश ने सत्र न्यायाधीश द्वारा भारतीय दंड संहिता की धारा 302 और 498ए के तहत पारित दोषसिद्धि और सजा के आदेश को चुनौती देते हुए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।
आरोप है कि जब आरोपी की शिकायतकर्ता की बेटी से शादी हुई थी,उस वक्त आरोपी ने 50 हजार रुपये और सोने की चेन देने की मांग की थी। हालांकि शिकायतकर्ता ने केवल 20,000 रुपये और एक सोने की चेन दी थी।
आरोपी मृतक से बाकी राशि की मांग कर रहा था। दहेज की बाकी राशि का भुगतान नहीं करने पर उसे प्रताड़ित किया जा रहा था। दहेज की मांग के अलावा आरोपी मृतका की वफादारी पर शक करता था और उसके साथ मारपीट करता था।
शिकायतकर्ता और अन्य बुजुर्गों ने एक पंचायत बुलाई और आरोपी नंबर 1 को पारिवारिक जीवन में मृतक के साथ तालमेल बिठाने और खुशहाल जीवन जीने की सलाह दी। पंचायत में बड़ों द्वारा यह निर्णय लिया गया कि उन्हें खुश रहने के लिए एक अलग घर और आपसी समझ बनाने की आवश्यकता है।
शिकायतकर्ता ने अपनी बेटी की खातिर एक अलग घर का निर्माण किया और उन्हें खुशी-खुशी रहने के लिए कहा। हालांकि, आरोपी ने अपने संदेह करने वाले चरित्र को नहीं बदला। ऐसे में 14.12.2012 को सुबह करीब छह बजे शिकायतकर्ता को सूचना मिली कि आज उसकी बेटी के घर का दरवाजा नहीं खुला है। जब वह उसके घर गया तो पाया कि उसकी बेटी फर्श पर पड़ी थी और वह मर चुकी थी। जिसके बाद उसने 15 दिसंबर 2012 को पुलिस में शिकायत दर्ज कराई।
अपीलकर्ता की प्रस्तुतियांः
अपीलकर्ता की ओर से पेश एडवोकेट नागराज रेड्डी डी ने कहा कि पूरा मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर आधारित है। ट्रायल कोर्ट ने रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों को गलत तरीके से पढ़ा है और निष्कर्ष निकाला है कि अपीलकर्ता ने यह अपराध किया है जबकि यह रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों के विपरीत है।
आगे यह भी कहा गया कि रिश्तेदारों और इच्छुक/रुचि रखने वाले गवाहों को छोड़कर बाकी सभी गवाह मुकर गए हैं। इसलिए धारणा और अनुमान पर आधारित दोषसिद्धि आपराधिक न्यायशास्त्र के लिए प्रतिकूल/विरुद्ध है।
इसके अलावा, अभियोजन पक्ष यह स्थापित करने में विफल रहा है कि आरोपी घटना के समय घटनास्थल पर उपस्थित था या उससे एक दिन पहले वहां उपस्थित था। चूंकि अभियोजन पक्ष ने आरोपी की उपस्थिति स्थापित नहीं की है, इसलिए आरोपी को सीआरपीसी की धारा 313 के तहत दर्ज बयान में जवाब देने की जरूरत नहीं है। चूंकि अभियोजन पक्ष ने प्रारंभिक बोझ का निर्वहन नहीं किया है, इसलिए भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 को लागू करने का सवाल ही नहीं उठता है।
अभियोजन पक्ष का तर्कः
अभियोजन पक्ष के एडवोकेट विजयकुमार मजागे ने कहा कि ट्रायल कोर्ट ने मौखिक और दस्तावेजी साक्ष्य दोनों को देखने के बाद आरोपी को सही तरीके से दोषी ठहराया है, जिसमें इस अदालत के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।
इसके अलावा पिता, माता और गांव के बुजुर्गों के साक्ष्य मृतक के प्रति आरोपी के संदेह करने वाले चरित्र और अतिरिक्त दहेज की मांग करने के अनुरूप हैं। चूंकि इस हत्या का मकसद है,इसलिए ट्रायल कोर्ट ने आरोपी नंबर 1 को सही तरीके से दोषी ठहराया है और तर्कसंगत फैसले में हस्तक्षेप अनावश्यक है।
न्यायालय का निष्कर्षः
पीठ ने गवाहों के साक्ष्यों को देखा और कहा, ''सभी गवाहों के पूरे साक्ष्य को ध्यान से पढ़ने पर ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ गवाहों ने मामले का समर्थन किया है और कुछ गवाह मुकर गए हैं। जिन्होंने अभियोजन पक्ष के मामले का समर्थन किया है वे रिश्तेदार और इच्छुक गवाह हैं और अन्य गवाह भी आधिकारिक गवाह हैं।''
मनोज कुमार रूप सिंह बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य, 2016 आपराधिक कानून जर्नल 5015 के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले पर भरोसा करते हुए पीठ ने कहा,
''मृतक और रिश्तेदारों के बीच मौजूदा संबंधों के आधार पर संबंधित गवाहों के साक्ष्य को खारिज नहीं किया जा सकता है।''
कोर्ट ने कहा कि पूरा मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर आधारित है। इसलिए, ''यह कानून का स्थापित सिद्धांत है कि जब मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर आधारित होता है, तो बदली हुई परिस्थितियों को अभियोजन पक्ष द्वारा श्रृंखला बनाने वाली कोई भी कड़ी छोड़े बिना साबित करना होता है।''
''संदेह कितना भी मजबूत हो, लेकिन यह सबूत का विकल्प नहीं है। अभियोजन पक्ष को दोष सिद्ध करने के लिए मामले को सभी उचित संदेह से परे साबित करना होगा। ''सच हो सकता है'' और ''सच होना चाहिए'' के बीच एक लंबी दूरी है और अभियोजन पक्ष को मामले को सभी उचित संदेह से परे साबित करने के लिए हर संभव प्रयास करना पड़ता है।''
तदनुसार यह माना गया कि,
''रिकॉर्ड पर उपलब्ध मौखिक और दस्तावेजी साक्ष्य का विश्लेषण करने के बाद, पीठ की राय है कि ट्रायल कोर्ट ने आईपीसी की धारा 302 के तहत अपराध के लिए आरोपी / अपीलकर्ता को दोषी ठहराने में गंभीर त्रुटि की है। इसलिए, उक्त अपराध के लिए दोषसिद्धि रद्द करने योग्य है।''
पीठ ने कहा कि
''आरोपी की उपस्थिति आरोपी के खिलाफ प्रतिकूल निष्कर्ष निकालने के लिए अनिवार्य शर्त है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 रिड विद धारा 106 के तहत परिकल्पित प्रतिकूल अनुमान को लागू करने के लिए, आरोपी की उपस्थिति या तो मृत्यु से पहले या मृत्यु के तुरंत बाद आवश्यक है।''
''गवाहों के साक्ष्य से यह सिद्ध तथ्य है कि अतिरिक्त दहेज की मांग के संबंध में उत्पीड़न और क्रूरता की गई है और आरोपी नंबर 1 को मृतक की वफादारी पर संदेह था। यही तथ्य पंचायतदारों द्वारा साबित किया गया है,जिन्होंने इस मामले में गवाह के तौर अपना बयान दर्ज करवाया है।''
जिसके बाद कोर्ट ने कहा कि अपीलकर्ता/अभियुक्त नंबर 1 को आईपीसी की धारा 302 के तहत दंडनीय अपराध के लिए बरी किया जाता है। भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए के तहत दंडनीय अपराध के लिए अपीलकर्ता/अभियुक्त नंबर 1 को दोषी ठहराने व उसको सजा देने वाले आपेक्षित निर्णय (दोषसिद्धि दिनांक 13.12.2018 और सजा दिनांक 17.12.2018) की पुष्टि की जाती है।
केस का शीर्षक- सुरेश बनाम कर्नाटक राज्य
केस नंबर- आपराधिक अपील संख्या 981/2019
साइटेशन- 2022 लाइव लॉ (केएआर) 140
आदेश की तिथि- 22 अप्रैल, 2022
प्रतिनिधित्व- अपीलकर्ता के लिए एडवोकेट नागराज रेड्डी डी; प्रतिवादी के लिए विशेष लोक अभियोजक विजयकुमार मजागे
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