लिव-इन रिलेशन को सामाजिक नैतिकता की धारणा के बजाय व्यक्तिगत स्वायत्तता की आंखों से देखने की जरूरत: इलाहाबाद हाईकोर्ट

Update: 2021-10-29 04:19 GMT

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मंगलवार को कहा कि लिव-इन संबंधों को सामाजिक नैतिकता की धारणा के बजाय व्यक्तिगत स्वायत्तता की आंखों से देखा जाना चाहिए।

न्यायमूर्ति प्रिंकर दिवाकर और न्यायमूर्ति आशुतोष श्रीवास्तव की खंडपीठ ने इंटरफेथ लिव-इन जोड़ों द्वारा दायर दो सुरक्षा की मांग वाली याचिकाओं पर विचार करते हुए यह टिप्पणी की।

शायरा खातून और उसके साथी (दोनों पिछले दो साल से अधिक समय से एक-दूसरे के साथ लिव-इन-रिलेशनशिप में हैं और दोनों शादी की आयु प्राप्त कर चुके हैं) और ज़ीनत परवीन और उसके साथी (दोनों पिछले 1 साल से रिलेशनशिप में हैं और दोनों शादी की आयु प्राप्त कर चुके हैं) द्वारा सुरक्षा की मांग की गई थी।

दोनों अंतरधार्मिक दंपति ने याचिका में आरोप लगाया कि लड़की के पिता (धर्म से मुस्लिम) याचिकाकर्ताओं के दैनिक जीवन में हस्तक्षेप कर रहे हैं।

यह भी कहा गया कि उन्होंने संबंधित पुलिस अधिकारियों से संपर्क किया, लेकिन पुलिस अधिकारियों ने कोई मदद नहीं की और परिणामस्वरूप, उन्होंने दावा किया कि उनके जीवन और स्वतंत्रता को कम आंका गया है।

कोर्ट ने शुरू में इस बात को रेखांकित किया कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन का अधिकार हर कीमत पर संरक्षित होने के लिए उत्तरदायी है।

आगे कहा कि,

"लिव-इन-रिलेशनशिप जीवन का हिस्सा बन गया है और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनुमोदित है। लिव-इन रिलेशनशिप को भारत के संविधान को अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत जीने के अधिकार में सामाजिक नैतिकता की धारणा के बजाय उत्पन्न व्यक्तिगत स्वायत्तता की आंखों से देखा जाना आवश्यक है।"

अदालत ने मामले में कहा कि याचिकाकर्ताओं के अधिकारों की रक्षा करना पुलिस अधिकारियों का दायित्व है।

कोर्ट ने आदेश दिया कि यदि याचिकाकर्ता अपने जीवन और स्वतंत्रता के लिए किसी भी तरह के खतरे की शिकायत करने के लिए पुलिस अधिकारियों से संपर्क करते हैं, तो पुलिस अधिकारी कानून के तहत उनसे अपेक्षित अपने कर्तव्यों का पालन करेंगे।

आदेश की कॉपी यहां पढ़ें:



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