केवल धोखाधड़ी का साधारण आरोप, पक्षों के बीच समझौते के प्रभाव को समाप्त करने का आधार नहीं हो सकता, सुप्रीम कोर्ट का फैसला

धोखाधड़ी की याचिका के समर्थन में जालसाजी/फेब्रिकेशन के गंभीर एवं सामान्य/साधारण आरोपों के बीच एक अंतर है।

Update: 2019-09-14 05:09 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया है कि केवल धोखाधड़ी का साधारण/सामान्य आरोप, पक्षों के बीच मध्यस्थता समझौते के प्रभाव को समाप्त करने का आधार नहीं हो सकता है।

न्यायमूर्ति रोहिंटन फली नरीमन, न्यायमूर्ति आर. सुभाष रेड्डी और न्यायमूर्ति सूर्यकांत की पीठ ने कहा कि ए. अय्यसामी बनाम ए. परमासिवम के फैसले में 2 परीक्षण दिए गए हैं। वे इस प्रकार हैं: (1) क्या यह दलील पूरे अनुबंध को और उससे भी ऊपर, मध्यस्थता के समझौते को, खत्म/दूषित (Permeate) करदेती है, जिसके परिणामस्वरूप वह शून्य हो जाता है, या (2) क्या धोखाधड़ी के आरोप, पार्टियों के आंतरिक मामलों से सम्बंधित हैं, जिसका प्रभाव सार्वजानिक क्षेत्र पर नहीं होता।

इस मामले में [राशिद रज़ा बनाम सदफ अख्तर], उच्च न्यायालय ने एक साझेदार द्वारा मध्यस्थ की नियुक्ति की मांग को यह देखते हुए ख़ारिज कर दिया कि कुछ अन्य साझेदारों द्वारा दर्ज की गई एक FIR में फंड की हेराफेरी और कई अन्य व्यवसायिक गड़बड़ियों के आरोप लगाए गए थे, जो कि वर्तमान में अन्वेषण का विषय थे। पीठ ने ए. अय्यासामी में किए गए अवलोकन पर भरोसा किया कि वह विवाद जिसमे जटिल प्रकृति के धोखाधड़ी के गंभीर आरोप शामिल हैं, वे मध्यस्थता की कार्यवाही में तय किए जाने के लिए उपयुक्त नहीं हैं।

अपील में, ए. अय्यसामी में उल्लिखित परीक्षणों पर ध्यान देते हुए पीठ ने कहा:

इन दो परीक्षणों को देखते हुए, यह स्पष्ट है कि यह एक ऐसा मामला है जो "सामान्य/साधारण आरोपों" की श्रेणी में आता है, क्योंकि धोखाधड़ी का ऐसा कोई आरोप नहीं है, जो कि समग्र रूप से इस साझेदारी को या, विशेष रूप से, उक्त मध्यस्थता संबंधी खंड को समाप्त कर देगा। दूसरा, उन सभी आरोपों पर, जिनपर उत्तरदाता की ओर से पेश विद्वान वकील द्वारा भरोसा किया गया है, साझेदारी के मामलों से और उसमे धन की हेराफेरी से संबंधित हैं, और सार्वजनिक क्षेत्र के किसी भी मामले से नहीं।

यह मानते हुए कि इस मामले में पक्षकारों के बीच उठे विवाद मध्यस्था योग्य हैं, पीठ ने देखा कि माध्यस्थम और सुलह अधिनियम,1996 के तहत धारा 11 का आवेदन बनाए रखा जाएगा।

पीठ ने देखा कि ए. अय्यासामी के फैसले का पैरा 25, इस मामले में कानून तय करता है:

"हमारी पूर्वोक्त चर्चाओं के मद्देनजर, हम इस राय के हैं कि केवल सामान्य/साधारण धोखाधड़ी का आरोप, पार्टियों के बीच मध्यस्थता समझौते के प्रभाव को खत्म करने का आधार नहीं हो सकता है। यह केवल उन मामलों में, जहां न्यायालय, अधिनियम की धारा 8 के साथ व्यवहार करते हुए यह पाता है कि मामले में धोखाधड़ी के बहुत गंभीर आरोप हैं, जो अपराध का एक मामला बनाते हैं या जहां धोखाधड़ी के आरोप इतने जटिल हैं कि यह पूरी तरह से आवश्यक हो जाता है कि ऐसे जटिल मुद्दों पर सिविल कोर्ट द्वारा, सबूतों के उत्पादन और उनकी सराहना करने के पश्चात निर्णय लिया जा सकता है, वहां अदालत धारा 8 के तहत आवेदन को खारिज करके और समझौते को दरकिनार करते हुए योग्यता के आधार पर मुक़दमे के साथ आगे बढ़ सकती है।

यह उन मामलों में भी किया जा सकता है, जहां धोखाधड़ी की दलील के समर्थन में दस्तावेजों के जालसाजी/फेब्रिकेशन के गंभीर आरोप हैं या जहां धोखाधड़ी का आरोप, स्वयं मध्यस्थता प्रावधान के खिलाफ है या ऐसी प्रकृति का है जो पूरे अनुबंध को खत्म करदेता है, जिसमें मध्यस्थता करने के लिए समझौता शामिल है, जिसका अर्थ है कि उन मामलों में जहां धोखाधड़ी, पूरे अनुबंध की वैधता, जिसमें मध्यस्थता खंड होता है, तक जाती है या स्वयं मध्यस्थता खंड की वैधता तक जाती है।

इसके विपरीत स्थिति यह होगी कि जहां पार्टी के आंतरिक मामलों में धोखाधड़ी के साधारण/सामान्य आरोप हैं, लेकिन इसका सार्वजनिक क्षेत्र से कोई लेना देना नहीं है, वहां मध्यस्थता खंड को दरकिनार किये जाने की आवश्यकता नहीं है और पक्ष को मध्यस्थता के लिए भेजा जा सकता है। अधिनियम की धारा 8 के तहत एक आवेदन में इस तरह के एक मुद्दे से निपटने के दौरान, न्यायालय का ध्यान इस सवाल पर होना चाहिए कि क्या न्यायालय के अधिकार क्षेत्र को बाहर कर दिया गया है, बजाय इस मुद्दे पर ध्यान केंद्रित करने के, कि क्या न्यायालय के पास अधिकार क्षेत्र है या नहीं। यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि जहाँ तक अधिनियम की वैधानिक योजना का संबंध है, यह विशेष रूप से गैर-मध्यस्थ के रूप में किसी भी श्रेणी के मामलों को बाहर नहीं करता है।

गैर-मध्यस्थ विषयों की ऐसी श्रेणियों को न्यायालयों द्वारा सामने लाया जाता है, और ऐसा सामान्य कानून के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए किया जाता है, कि कुछ विवाद जो कि सार्वजनिक प्रकृति आदि के हैं, वे मध्यस्थता द्वारा अभिनिर्णित किये जाने और निपटान के लिए सक्षम नहीं हैं, और ऐसे विवादों के समाधान के लिए न्यायालय, अर्थात् सार्वजनिक मंच, मध्यस्थता के एक निजी मंच की तुलना में बेहतर है। इसलिए, अधिनियम की धारा 8 के तहत दायर एक आवेदन के साथ व्यवहार करते समय न्यायालय की जांच, पूर्वोक्त पहलू पर होनी चाहिए, अर्थात क्या विवाद की प्रकृति ऐसी है कि इसे मध्यस्थता के लिए नहीं भेजा जा सकता है, भले ही पार्टियों के बीच मध्यस्थता समझौता हो।

जब धोखाधड़ी का मामला किसी एक पक्ष द्वारा निर्धारित किया जाता है और उस आधार पर पार्टी उस मध्यस्थता समझौते से बाहर निकलना चाहती है, तो धोखाधड़ी के आरोपों की सख्त और सावधानीपूर्वक जांच की जरूरत होती है और केवल तभी, जब अदालत इस बात को लेकर संतुष्ट हो जाती है कि आरोप गंभीर और जटिल प्रकृति के हैं, और न्यायालय द्वारा मध्यस्थता के लिए पार्टियों को भेजे जाने के बजाय, उसके स्वयं के द्वारा विषय से निपटना अधिक उपयुक्त होगा, धारा 8 के तहत इस तरह के एक आवेदन को अस्वीकार कर दिया जाना चाहिए। "



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