मैटरनिटी बेनिफिट एक्ट तमिलनाडु सरकार के कर्मचारियों पर लागू नहीं, तीसरे बच्चे के लिए कोई लीव नहीं, भले ही पहले दो बच्चे सेवा में शामिल होने से पहले पैदा हुए हों: मद्रास हाईकोर्ट

Update: 2023-09-01 05:16 GMT

मद्रास हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि राज्य में काम करने वाले सरकारी कर्मचारी तमिलनाडु सरकार के मौलिक नियमों द्वारा शासित होते हैं, न कि मैटरनिटी बेनिफिट एक्ट 1961 के द्वारा। अदालत ने इस प्रकार कहा कि ऐसे कर्मचारी तीसरे के लिए भी मैटरनिटी लीव नहीं मांग सकते। जब राज्य की नीति इसे प्रतिबंधित करती है तो बच्चे को एक अधिकार के रूप में माना जाता है।

जस्टिस एन सतीश कुमार ने निम्नानुसार कहा,

“...वर्तमान मामले के तथ्य यह हैं कि याचिकाकर्ता के तीन जैविक बच्चे हैं। जब राज्य की नीति और मौलिक नियम तीसरे बच्चे के लिए मैटरनिटी लीव को प्रतिबंधित करते हैं तो इस न्यायालय का मानना है कि अधिकार का मामला होने के कारण याचिकाकर्ता मैटरनिटी बेनिफिट एक्ट के आधार पर मैटरनिटी लीव की मांग नहीं कर सकता। उसी को ध्यान में रखते हुए विवादित आदेश बरकरार रखा जाना चाहिए।”

अदालत ब्लॉक शिक्षा अधिकारी द्वारा मैटरनिटी लीव का अनुरोध खारिज करने के आदेश के खिलाफ पंचायत यूनियन प्राइमरी स्कूल में माध्यमिक ग्रेड की शिक्षिका निथ्या की याचिका पर सुनवाई कर रही थी। खंड शिक्षा अधिकारी ने अनुरोध इस आधार पर खारिज कर दिया कि उपरोक्त नियमों के नियम नंबर 105 और नंबर 154 के अनुसार, मैटरनिटी लीव केवल दो बच्चों के जन्म के लिए ही दिया जा सकता है।

मैटरनिटी बेनिफिट एक्ट पर भरोसा करते हुए नित्या ने प्रस्तुत किया कि यह अधिनियम सामाजिक कल्याण कानून है और मैटरनिटी बेनिफिट प्राप्त करने के लिए कोई प्रतिबंध नहीं लगाता। यह प्रस्तुत किया गया कि जब तक एक्ट में उपयुक्त संशोधन नहीं किया जाता तब तक सरकारी कर्मचारियों पर प्रतिबंध लगाना सही नहीं है।

यह भी प्रस्तुत किया गया कि जनसंख्या नियंत्रण, परिवार नियोजन और मैटरनिटी बेनिफिट एक्ट समवर्ती सूची में आते हैं और केंद्रीय अधिनियम में किसी भी प्रतिबंध के अभाव में अधिकारी महिला लोगों पर ऐसे प्रतिबंध नहीं लगा सकते हैं।

नित्या ने यह भी कहा कि सरकारी सेवा में शामिल होने से पहले उसके दो बच्चे हैं और चूंकि उसने पहले कोई मैटरनिटी बेनिफिट नहीं लिया, इसलिए उसके अनुरोध की अस्वीकृति को कानून की नजर में बरकरार नहीं रखा जा सकता।

अधिकारियों ने इसका विरोध किया और कहा कि 2016 और 2017 में कार्मिक और प्रशासनिक सुधार विभाग द्वारा जारी सरकारी आदेशों के अनुसार, दो बच्चों के जन्म के लिए मैटरनिटी लीव दिया जा सकता है। यह भी प्रस्तुत किया गया कि जब राज्य की नीति ने मैटरनिटी लीव को दो बच्चों तक सीमित कर दिया है तो याचिकाकर्ता एक्ट के तहत अधिकार के रूप में लीव नहीं मांग सकती। हालांकि याचिकाकर्ता ने मद्रास हाईकोर्ट के पहले के फैसले पर भरोसा किया, लेकिन अधिकारियों ने सूचित किया कि उसे खंडपीठ द्वारा रद्द कर दिया गया।

अदालत ने कानूनों और नियमों पर गौर करते हुए कहा कि याचिकाकर्ता केवल मौलिक नियमों द्वारा शासित है, क्योंकि मैटरनिटी बेनिफिट एक्ट सरकारी कर्मचारियों पर लागू नहीं होता।

कोर्ट ने कहा,

"एक्ट की धारा 2 को जब स्थापना की परिभाषा के साथ पढ़ा जाता है तो यह स्पष्ट हो जाता है कि केवल मैटरनिटी बेनिफिट एक्ट के तहत परिभाषित "स्थापना" ही मैटरनिटी बेनिफिट एक्ट के दायरे में आएगी। ऐसी स्थिति में याचिकाकर्ता सरकारी कर्मचारी है, जिसने मैटरनिटी बेनिफिट एक्ट 1961 के तहत परिभाषित किसी भी प्रतिष्ठान में नियोजित नहीं किया। वह मैटरनिटी बेनिफिट एक्ट के अनुसार किसी भी लाभ का दावा नहीं कर सकती है।'

इसमें कहा गया,

“इसलिए जब राज्य ने नीतिगत निर्णय लिया है कि मौलिक नियम सरकारी कर्मचारियों पर लागू होते हैं तो याचिकाकर्ता मैटरनिटी बेनिफिट एक्ट के तहत किसी भी लाभ का दावा नहीं कर सकता, जो मैटरनिटी बेनिफिट एक्ट, 1961 के तहत परिभाषित “प्रतिष्ठान” में कार्यरत कर्मचारियों को छोड़कर सरकारी कर्मचारियों पर लागू नहीं होता है।”

अदालत अदालत की खंडपीठ की पिछली टिप्पणी से सहमत थी, जिसमें यह माना गया कि मैटरनिटी लीव देना कोई मौलिक अधिकार नहीं है और यह या तो वैधानिक अधिकार है, या सेवा की शर्तों से मिलने वाला अधिकार है।

हालांकि याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के निर्णयों पर भरोसा किया, लेकिन अदालत ने कहा कि ये वर्तमान मामले पर लागू नहीं होते, क्योंकि तथ्य अलग हैं।

इस प्रकार, अदालत ने खंड शिक्षा अधिकारी का आदेश बरकरार रखा।

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