मद्रास हाईकोर्ट एडवोकेट अधिनियम की धारा 36B की वैधता की करेगा जांच

Update: 2020-03-06 04:30 GMT

मद्रास हाईकोर्ट ने एडवोकेट अधिनियम, 1961 की धारा 36B की वैधता की स्वतः संज्ञान लेते हुए जांच करेगा। धारा में प्रावधान है कि अगर किसी एडवोकेट के ख़िलाफ़ अनुशासनात्मक मामले पर राज्य बार काउन्सिल निर्धारित समय पर जांच नहीं करेगा तो यह मामला स्वतः ही बार काउन्सिल ऑफ़ इंडिया को स्थानांतरित हो जाएगा।

न्यायमूर्ति एन किरुबकारन और न्यायमूर्ति आर पोंगीयप्पन की पीठ ने कहा,

"इस अदालत की राय में अगर राज्य बार काउन्सिल किसी मामले को एक साल के भीतर सुलझा नहीं पाता है जिसकी वजह से पीड़ित पक्ष के साथ अन्याय होता है तो यह मामला स्वतः ही बार काउन्सिल ऑफ़ इंडिया को स्थानांतरित माना जाएगा।

चूंकि इस अदालत को यह अधिकार नहीं है कि वह संसद से कहे कि वह एडवोकेट अधिनियम की धारा 36B के इस प्रावधान को समाप्त कर दे, वह इस मामले की वैधता की जांच स्वतः संज्ञान लेते हुए करेगी, क्योंकि संविधान अनुच्छेद 14 के तहत यह मुक़दमादारों के मौलिक अधिकारों का हनन करता लगता है। इसके अलावा यह अतार्किक और मनमाना भी लगता है और ऐसा प्रतीत होता है कि इसने अपना उद्देश्य और तार्किकता को खो दिया है।"

धारा 36B(2) के प्रावधान में कहा गया है कि राज्य बार काउन्सिल की अनुशासन समिति किसी एडवोकेट के ख़िलाफ़ अनुशासन के मामले को शिकायत मिलने की तिथि से या राज्य बार काउन्सिल की ओर से शुरू की गई प्रक्रिया की तिथि से दोनों में से जो भी बाद में हो, से शुरू कर एक साल में इसका निपटान करेगी और अगर उसने ऐसा नहीं किया तो यह मामला बार काउन्सिल ऑफ़ इंडिया को स्थानांतरित माना जाएगा।

इस प्रावधान को 1973 में एक संशोधन द्वारा जोड़ा गया ताकि एडवोकेटों के ख़िलाफ़ मामले को शीघ्र निपटाया जा सके, लेकिन अदालत ने कहा कि ऐसा लगता है कि राज्य के बार काउन्सिल उक्त प्रावधान का ग़लत फ़ायदा उठा रहे हैं और जानबूझकर मामले को दिल्ली स्थित बार काउन्सिल को ट्रांसफ़र करवा रहे हैं जिससे पीड़ितों के साथ अन्याय हो रहा है।

अदालत ने यह भी कहा कि इस प्रावधान से संबंधित एडवोकेट पर दिल्ली आने-जाने का अनावश्यक बोझ पड़ता है जबकि फ़ैसले में विलंब होने में उसका हाथ नहीं होता।

अदालत पीएल सुंदर की एक याचिका पर सुनवाई कर रही थी जिनके मामले को राज्य बार काउन्सिल में बिना कोई जांच किए तीन साल से अधिक समय तक लंबित रखा गया, इसलिए उन्होंने बार काउन्सिल ऑफ़ इंडिया से तमिलनाडु बार काउन्सिल में अपने ख़िलाफ़ अनुशासनात्मक जांच को पूरा करने के लिए और समय की मांग के लिए यह आवेदन दिया।

पीठ ने इस पर सुनवाई में कहा,

"अगर यह मामला बार काउन्सिल ऑफ़ इंडिया को भेजा जाता है तो इसमें याचिकाकर्ता की कोई ग़लती नहीं है। याचिकाकर्ता के पास हो सकता है कि इतना पैसा न हो कि वह दिल्ली जाकर इस मामले की सुनवाई में हिस्सा ले। फिर, अगर यह मामला तीन वर्ष से अधिक समय तक लंबित रहा तो इसके लिए तमिलनाडु और पुदुचेरी बार काउन्सिल ज़िम्मेदार है…इसलिए याचिकाकर्ता को अनावश्यक रूप से दिल्ली जाने के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए। अत: इस मामले को दिल्ली ट्रांसफ़र करना याचिकाकर्ता के साथ अन्याय करना होगा।"

अदालत ने कहा कि ऐसा सिर्फ़ इस याचिकाकर्ता के साथ ही नहीं है, कई अन्य मामलों में भी यही हुआ है।

"…तमिलनाडु और पुदुचेरी बार काउन्सिल अपना काम नहीं कर रही है और शिकायतों को निर्धारित एक साल में नहीं निपटा रही है। यह जान बूझकर किया जा रहा है, ऐसा मानने के कई कारण हैं…, " अदालत ने कहा।

अदालत ने तमिलनाडु बार काउन्सिल को कहा है कि वह यह बताए कि उसके पास कितने मामले लंबित हैं और इसके क्या कारण हैं जिसकी वजह से वह इन मामलों को एक साल के भीतर निपटा नहीं पाया।

अदालत ने यह भी निर्देश दिया कि याचिकाकर्ता के मामले के अलावा अन्य जिन मामलों को बार काउन्सिल ऑफ़ इंडिया को भेजा जाना था, उन्हें अगले आदेश तक नहीं भेजा जाएगा।

आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें




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