'गैंग रेप के मामले में मेडिकल पुष्टि की पूर्ण आवश्यकता नहीं है': मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने पीड़िता और आरोपी के आपस मे शादी करने के बावजूद ज़मानत अर्ज़ी ख़ारिज की
मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने शुक्रवार (16 अक्टूबर) को एक आदेश में कहा कि सामूहिक बलात्कार के मामलों में चिकित्सा सपुष्टिकरण (Medical Corroboration) अत्यंत आवश्यक नहीं है।
न्यायाधीश अखिल कुमार श्रीवास्तव की पीठ ने विशेष न्यायाधीश एससी/एसटी एक्ट, जबलपुर द्वारा पारित 09.06.2020 के आदेश के खिलाफ एससी और एसटी अधिनियम की धारा 14-ए के तहत दायर अपील पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की, जिसके तहत नीचे की अदालत ने आरोपी को जमानत देने से इनकार कर दिया था।
पृष्ठभूमि
अपीलकर्ता/अभियुक्त धारा 363 के तहत अपराध के लिए 05.09.2018 से हिरासत में है, आईपीसी की धारा 366, 344, 328, 506, 376 (2) (एन) और 376 (डी) तथा अपराध संख्या 544/2018 में एससी/एसटी अधिनियम की धारा 3 (1) (डब्ल्यू) (आई) और 3 (2) (वी), पुलिस स्टेशन घमापुर जिला जबलपुर (एम.पी.) में दर्ज की गई।
अभियोजन के अनुसार पीड़िता के चाचा द्वारा गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराई गई थी, नतीजतन प्रार्थी व अन्य सह आरोपियों के खिलाफ उपरोक्त आरोपों के तहत मामला दर्ज किया गया।
यह अपीलकर्ता के वकील द्वारा प्रस्तुत किया गया था कि अपीलकर्ता निर्दोष है और वह 05.09.2018 के बाद से हिरासत में है। मुकदमा अभी लंबित है।
यह भी प्रस्तुत किया गया कि प्राथमिकी दर्ज करने में विलंब हुआ जिसके लिए कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया था । तर्क दिया गया कि अपीलार्थी के खिलाफ कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष आरोप नहीं है। आवेदक 20 साल का युवक है।
यह भी प्रस्तुत किया गया कि पीड़िता ने अपीलकर्ता से शादी भी कर ली और जिसके लिए जमानत आवेदन के साथ उसके द्वारा शपथ पत्र दाखिल किया गया। उसके फरार होने और साक्ष्यों से छेड़छाड़ की कोई संभावना नहीं है, इसलिए अपीलकर्ता को जमानत दिया जाए।
दूसरी ओर, पैनल के वकील ने जमानत आवेदन का विरोध किया और इस आधार पर अपील खारिज करने की प्रार्थना की कि यह सामूहिक बलात्कार का मामला है और सीआरपीसी की धारा 164 के तहत दर्ज अपने बयान में अभियोजन पक्ष ने अपीलकर्ता के खिलाफ स्पष्ट रूप से सामूहिक बलात्कार कर बारे में कहा था।
आरोपी-अपीलकर्ता को जमानत का लाभ देने से इनकार करते हुए अदालत ने टिप्पणी की,
" पीडीएफ प्रारूप में उपलब्ध संपूर्ण सामग्री और दोनों पक्षों के वकीलोंं को सुनने के बाद और यह तथ्य कि यह सामूहिक बलात्कार का मामला है और बलात्कार के मामलों में एफआईआर दर्ज करने में देरी पूरे मामले को छोड़ने के लिए कोई आधार नहीं है और यह भी आवश्यक नहीं है कि चिकित्सकीय रूप से इसकी पुष्टि की जानी चाहिए और सीआरपीसी की धारा 164 के तहत दर्ज पीड़िता के बयान को देखते हुए और पीडीएफ फॉर्म में उपलब्ध अन्य सामग्री और योग्यता पर पूरी सामग्री को देखते हुए न्यायालय का यह विचार है कि यह एक फिट मामला नहीं है जिसमें अपीलकर्ता- हरिश्चंद्र को सीआरपीसी की धारा 439 के तहत दायर आवेदन पर जमानत पर रिहा किया जा सकता है।"
लिहाजा अपील को इस तरह खारिज कर दिया गया।
उल्लेखनीय है कि मेडिकल साक्ष्य के अभाव में आरोपियों को सामूहिक दुष्कर्म के लिए दोषी ठहराने की अदालतों के उदाहरणों का श्रृंखला है।
रंजीत हजारिका बनाम असम राज्य(1998) 8 एससीसी 635 के मामले में डॉक्टर की राय यह थी कि पीड़िताा के प्रायवेट पार्ट और हाइमन पर चोट नहीं होने के कारण बलात्कार नहीं हुआ है।
हालाँकि, शीर्ष अदालत ने यह विचार किया कि चिकित्सा राय पीड़िता के अन्यथा अस्पष्ट और भरोसेमंद सबूतों को खत्म नहीं कर सकती।
उल्लेखनीय है कि बी. सी देवा बनाम कर्नाटक राज्य, (2007) 12 एससीसी 122 में शीर्ष न्यायालय ने कहा था कि,
"यह दलील कि आरोपी व्यक्ति या पीड़िता पर चोटों के कोई निशान नहीं पाए गए, इससे कोई अनुमान नहीं लगता कि आरोपी ने पीड़िता पर जबरन सेक्सुअल एंटरकोर्स नहीं किया है । हालांकि पीड़िता
की चिकित्सा जांच से संबंधित स्त्री रोग विशेषज्ञ की रिपोर्ट में सेक्सुअल एंटरकोर्स के किसी साक्ष्य का खुलासा नहीं किया गया है, फिर भी चिकित्सा साक्ष्यों की कोई पुष्टि न होने पर पीड़िता की मौखिक गवाही, जो कोजेंट, विश्वसनीय और भरोसेमंद पाई जाती है, को स्वीकार करना होगा।"
पिछले साल कर्नाटक उच्च न्यायालय ने बलात्कार के मामले में एक व्यक्ति को बरी करने के एक अदालत के निर्णय को पलटते हुए एक नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार के आरोप में एक 47 वर्षीय व्यक्ति को दोषी ठहराते हुए कहा था,
पीड़िता के बहुत सबूत अदालत के विश्वास को प्रेरित करते हैं कि आरोपी ने यौन कृत्य किया है और यहां तक कि चिकित्सा सबूतों के अभाव में यह अदालत इस निष्कर्ष पर पहुंच सकती है कि पीडि़ता को यौन उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा।
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