हुगली नेट शटडाउन पर कलकत्ता हाईकोर्ट ने कहा, इंटरनेट बंद करने के मामले में जिला मजिस्ट्रेट की शक्तियों और इसकी तर्कसंगतता की व्याख्या करे राज्य सरकार
कलकत्ता हाईकोर्ट ने शनिवार को विशेष सुनवाई में पश्चिम बंगाल सरकार को निर्देश दिया है कि वह एक हलफनामा दायर करके हुगली जिले में इंटरनेट बंद करने का आदेश पारित करने के मामले में जिला मजिस्ट्रेट के अधिकार क्षेत्र की व्याख्या करे। साथ ही इंटरनेट बंद करने की तर्कसंगतता के बारे में भी बताया जाए।
वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए आयोजित सत्र में मुख्य न्यायाधीश थोट्टाथिल बी राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति अरिजीत बैनर्जी की खंडपीठ ने आदेश दिया कि-
''राज्य दो अलग-अलग हलफनामे दायर करे। पहला इंटरनेट बंद करने का आदेश देने के मामले में जिला मजिस्ट्रेट के अधिकार क्षेत्र से संबंधित हो और दूसरा इस निलंबन आदेश की तर्कसंगतता से संबंधित हो।''
एडवोकेट जनरल किशोर दत्ता ने अदालत को बताया कि इंटरनेट निलंबन का आदेश समाप्त होने वाला है। इस क्षेत्र में बेहतर कानून और व्यवस्था की स्थिति के मद्देनजर इस आदेश को आगे नहीं बढ़ाया जाएगा।
पीठ ने यह आदेश सॉफ्टवेयर फ्रीडम लॉ सेंटर इंडिया और एडवोकेट प्रियंका टिबरेवाल की तरफ से दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए दिया है। इन याचिकाओं में इंटरनेट बंद करने के आदेश को चुनौती दी गई थी।
याचिकाकर्ताओं ने विभिन्न आधारों पर इंटरनेट निलंबन या बंद करने के इस आदेश को चुनौती दी थी। उन्होंने कहा था कि ऐसा आदेश जारी करने के लिए डीएम के पास अधिकार क्षेत्र नहीं है। वहीं इस तरह के आदेश जारी करने का कोई औचित्य नहीं था। याचिकाकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया कि अनुराधा भसीन बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा बताए गए अनुरूपता या समानता के सिद्धांतों के अनुसार भी इंटरनेट बंद करने का यह आदेश असंगत था।
महाधिवक्ता ने इस मामले में दलील दी कि निलंबन आदेश को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 के तहत मिली शक्ति का प्रयोग करते हुए उपयुक्त प्राधिकारी द्वारा पारित किया जा सकता है।
पीठ ने राज्य की तरफ से दी गई दलीलों को ध्यान में रखते हुए फिलहाल इन मुद्दों पर विचार न करने का फैसला किया,चूंकि राज्य की तरफ से बताया गया था कि इंटरनेट बंद करने के आदेश को 17 मई से आगे नहीं बढ़ाया जाएगा।
12 मई को हुगली जिले के तीन क्षेत्रों में सांप्रदायिक हिंसा भड़कने के बाद, संबंधित जिला मजिस्ट्रेट ने सीआरपीसी की धारा 144 के तहत एक आदेश जारी किया था। जिसके तहत 17 मई तक इंटरनेट सेवाओं को निलंबित कर दिया गया था।
एसएफएलसी की तरफ से पेश अधिवक्ता प्रशांत सुगाथन ने तर्क दिया कि जिला मजिस्ट्रेट के पास टेम्परेरी सस्पेंशन ऑफ टेलीकॉम सर्विसेज (पब्लिक इमरजेंसी या पब्लिक सेफ्टी) रूल्स 2017 और टेलीग्राफ एक्ट के अनुसार इंटरनेट निलंबित करने का आदेश देने का कोई अधिकार नहीं था।
याचिका में कहा गया है कि
''यह स्थापित किया जा सकता है कि जब विशेष कानून अर्थात टेलीकाॅम सस्पेंशन रूल्स मौजूद हैं तो उस समय आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 धारा 144 का उपयोग करते हुए इंटरनेट बंद करने का आदेश देना प्रावधान का दुरुपयोग और अवैध है।''
याचिकाकर्ता ने कहा कि वर्तमान संकट के दौरान इंटरनेट बंद करना संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत अधिकारों को प्रतिबंधित करने तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह ''सभी कानूनी और संवैधानिक अधिकारों के दमन''के समान है। चूंकि वर्तमान के समय में अदालतों के पास भी वीडियो कॉन्फ्रेंस सुविधाओं के माध्यम से ही पहुंचा जा सकता है और यह सुविधा केवल निर्बाध इंटरनेट सेवाओं के माध्यम से ही मिल सकती है।
याचिका में कहा गया है कि
''दूरसंचार सेवा और इंटरनेट शटडाउन के इस मामले में भारत के संविधान के अनुच्छेद 14,19 और 21 के तहत मिले मौलिक अधिकारों का घोर उल्लंघन हुआ है। जिनमें समानता का अधिकार,विचार व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार, निजता का अधिकार, व्यापार की स्वतंत्रता का अधिकार, जीवन का अधिकार, भोजन का अधिकार और शिक्षा का अधिकार आदि शामिल हैं।''
इसके अलावा याचिकाकर्ताओं ने यह भी कहा कि 6 दिनों तक लगातार इंटरनेट को निलंबित करने से COVID-19 के खिलाफ लडी़ जा रही लड़ाई पर भी हानिकारक प्रभाव पड़ेगा।
अधिवक्ता प्रियंका टिबरेवाल ने अपनी याचिका में कहा कि
''वर्तमान में राष्ट्र इंटरनेट के माध्यम से घरों से काम व पढ़ाई कर रहा है। ऐसे समय में जिले के क्षेत्रों में इंटरनेट सुविधा को 17 मई, 2020 तक बंद करना तक कानून की नजर में उचित या तर्कसंगत नहीं है।''
अधिवक्ता प्रियंका टिबरेवाल ने जरिए दायर की गई याचिका में इंटरनेट निलंबन आदेश को चुनौती देने के अलावा यह भी मांग की गई है कि इस हिंसा पर अदालती की निगरानी में जांच करवाई जाए।
कोर्ट इस मामले पर 22 मई को फिर से सुनवाई करेगा।
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