हिन्दू उत्तराधिकार : हिन्दू पुरुष की मौत के बाद उसकी सम्पत्ति संयुक्त परिवार की सम्पत्ति नहीं रह जाती

Update: 2020-01-12 05:03 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने अपने हालिया फैसले में हिन्दू उत्तराधिकार कानून 1956 के तहत उत्तराधिकार के सिद्धांतों पर विचार किया है।

अधिनियम की धारा छह और आठ का उल्लेख करते हुए कोर्ट ने कहा कि हिन्दू पुरुष की मौत के बाद उसकी सम्पत्ति का खयाली बंटवारा (नोशनल पार्टिशन) होगा और यह उसके कानूनी वारिस को उसके अपेक्षित हिस्से के तौर पर हस्तांतरित होगा। इसलिए, इस तरह की सपत्ति ऐसे बंटवारे के बाद 'संयुक्त परिवार की सम्पत्ति' नहीं रह जायेगी। ये वारिस संबंधित सम्पत्ति के 'टिनेंट्स-इन-कॉमन' के सदृश होंगे तथा तब तक संयुक्त कब्जा रखेंगे, जब तक इकरार विलेख के तहत उनकी संबंधित हिस्सेदारी की हदबंदी नहीं कर दी जाती।

न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नज़ीर ने 'एम अरुमुगम बनाम अम्मानियम्मल एवं अन्य' के मामले में यह फैसला सुनाया।

पृष्ठभूमि

इस मामले के दोनों पक्षकार मूला गौंदर नामक व्यक्ति के बच्चे थे। मूला गौंदर की मृत्यु 1971 में हो गयी थी। मृतक के परिवार में उसकी विधवा, दो बेटे और तीन बेटियां थीं। मृत्यु से पहले मृतक ने कोई वसीयत नहीं की थी।

वर्ष 1989 में मृतक की सबसे छोटी बेटी ने बंटवारे के लिए एक मुकदमा दायर किया था।

मृतक के पुत्रों ने यह कहते हुए मुकदमे का विरोध किया था कि उनकी मां और बहनों ने संपत्ति पर अधिकार छोड़ने का विलेख (रिलीज डीड) तैयार किया था और उनके लिए अपनी सम्पत्ति छोड़ देने की घोषणा की थी। यह भी दलील दी गयी थी कि मां ने तब वादी (बहन) की संरक्षक (गार्जियन) की भूमिका निभाई थी, क्योंकि तब वादी नाबालिग थी।

उसके बाद दोनों बेटों के बीच बंटवारा विलेख तैयार किया गया था जिस पर गवाह के तौर पर हस्ताक्षर करने वालों में वादी (बहन) का पति भी शामिल था।

वादी ने उसके बाद याचिका दायर की थी तथा यह कहते हुए रिलीज डीड को शुरुआती तौर पर ही अवैध करार देने की मांग की थी कि उसकी मां संरक्षक के तौर पर उसकी हिस्सेदारी का अधिकार छोड़ने के लिए अधिकृत नहीं थी।

ट्रायल कोर्ट ने यह कहते हुए मुकदमा खारिज कर दिया था कि वादी को वयस्क होने के तीन साल के भीतर ही 'रिलीज डीड' को चुनौती देनी चाहिए थी।

हाईकोर्ट ने वादी की अपील पर ट्रायल कोर्ट के आदेश को निम्न तथ्यों के आधार पर निरस्त कर दिया था:-

1. मूला गौंदर की मौत के बाद भी कानूनी वारिसों के हाथों में यह सम्पत्ति 'संयुक्त परिवार की सम्पत्ति' बनी रही थी।

2. चूंकि यह संयुक्त परिवार की सम्पत्ति थी, मां संरक्षक के तौर पर नाबालिग वादी का हिस्सा नहीं छोड़ सकती।

3. इसलिए संबंधित 'रिलीज डीड' शुरुआती तौर पर ही अवैध था।

हाईकोर्ट ने बहन के पक्ष में फैसला सुनाया था, जिसके बाद वादी के भाइयों में से एक ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला -

सुप्रीम कोर्ट ने हिन्दू उत्तराधिकार कानून की धारा 6 और 8 का उल्लेख करते हुए टिप्पणी की थी–

1. श्रेणी-एक की महिला वारिस वाले हिन्दू पुरुष की मौत जब होती है तो संयुक्त मालिकाना वाली सम्पत्ति में उसका हिस्सा उत्तराधिकार के जरिये हस्तांतरित होता है, न कि उत्तरजीविता के आधार पर।

2. ऐसी संपत्ति का खयाली बंटवारा होता है और वारिस उस सम्पत्ति का "टेनेंट्स - इन- कॉमन" होता है।

3. उक्त सम्पत्ति तब संयुक्त परिवार की सम्पत्ति के रूप में नहीं रह जाती।

इन सिद्धांतों एवम् पूर्व के निर्णयों के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा:-

"यह साफ है कि मूला गौंदर की मृत्यु के बाद संयुक्त मालिकाना वाली सम्पत्ति में उसकी हिस्सेदारी धारा 8 के तहत हस्तांतरित होगी क्योंकि उसके परिवार में श्रेणी-एक की महिला वारिस भी मौजूद थीं।"

कोर्ट ने कानून की धारा 30 का उल्लेख करते हुए कहा कि सहदायिता (संयुक्त अधिकार वाली) सम्पत्ति वसीयत के आधार पर बंटवारा किए जाने योग्य थी।

"यह (धारा 30) स्पष्ट तौर पर बताती है कि जब तक सम्पत्ति का बंटवारा नहीं हो जाता या पारिवारिक इकरार (समझौता) नहीं हो जाता तब तक 'टेनेंट्स-इन-कॉमन' के तौर पर कानूनी वारिस होने के बावजूद यह सम्पत्ति संयुक्त परिवार की सम्पत्ति नहीं रह गयी थी।"

उक्त सम्पत्ति के संयुक्त परिवार की सम्पत्ति नहीं होने का परिणाम यह था कि नाबालिग की हिस्सेदारी छोड़ने के लिए मां द्वारा संरक्षक की भूमिका निभाने में कोई कानूनी बाधा नहीं थी।

हिन्दू नाबालिग एवं संरक्षक अधिनियम की धारा छह के अनुसार, संयुक्त पारिवारिक सम्पत्ति में नाबालिग की अविभाजित हिस्सेदारी को लेकर नाबालिग का स्वाभाविक संरक्षक कुछ नहीं कर सकता। यदि सम्पत्ति संयुक्त परिवार की हो तो वह प्रतिबंध नहीं लागू होगा।

संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में नाबालिग की हिस्सेदारी के लिए कर्ता संरक्षक की भूमिका नहीं निभा सकता

वादी ने दलील दी थी कि संयुक्त परिवार की सम्पत्ति मामले में घर का बड़ा बेटा 'कर्ता' था और सम्पत्ति के मामले में स्वाभाविक संरक्षक की भूमिका 'कर्ता' को निभानी चाहिए थी, न कि मां को।

कोर्ट ने कहा कि यद्यपि यह माना गया था कि उक्त सम्पत्ति संयुक्त परिवार की सम्पत्ति थी, लेकिन यह दलील कसौटी पर ठहरने योग्य नहीं थी। ऐसा हितों के टकराव की वजह से था, क्योंकि कर्ता नाबालिग के संरक्षक की भूमिका में आकर नाबालिग का हिस्सा अपने पक्ष में भी कर सकता है।

"जब इस प्रकार का बंटवारा होता है और कुछ सदस्य अपना हिस्सा कर्ता के लिए छोड़ देते हैं तो कर्ता उस नाबालिग के संरक्षक के तौर पर भूमिका नहीं निभा सकता, जिसका हिस्सा कर्ता के पक्ष् में छोड़ा जा रहा है। ऐसी स्थिति में यह हितों के टकराव की स्थिति होगी। ऐसे मौके पर मां ही स्वाभाविक संरक्षक होगी और इसलिए माँ द्वारा निष्पादिक दस्तावेज को अप्रभावी दस्तावेज नहीं कह सकते।"

कोर्ट ने कहा कि हिन्दू नाबालिग एवं संरक्षण अधिनियम की धारा आठ के तहत रिलीज डीड निष्प्रभावी दस्तावेज हो जाता यदि वादी के बालिग होने के तीन साल के भीतर चुनौती दी गयी होती। कोर्ट ने यह भी कहा कि 1973 में जब रिलीज डीड तैयार किया जा रहा था तो वादी 17 साल की थी, जबकि भाइयों के बीच बंटवारा 1980 में हुआ था, जिसमें वादी का पति खुद सत्यापन करने वाले गवाहों में शामिल था। यह मुदकमा नौ वर्ष बाद दायर किया गया था। इन परिस्थितियों के कारण भी कोर्ट ने वादी की याचिका खारिज कर दी थी।

इन तथ्यों के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट द्वारा मुकदमा निरस्त किये जाने का आदेश बहाल करने संबंधी अपील स्वीकार कर ली।

मुकदमे का ब्योरा—

केस का विवरण : एम अरुमुगम बनाम अम्मानियम्मल एवं अन्य

केस नंबर :- सिविल अपील संख्या 864/2009

कोरम : न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता एवं न्यायमूर्ति अब्दुल नज़ीर

वकील : वी प्रभाकर (वादी की ओर से), जयंत मुथु राज (बचाव पक्ष की ओर से) 


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