गुवाहाटी हाईकोर्ट ने मां की हत्या और भाई को घायल करने के आरोपी को बरी किया; कहा- आपत्तिजनक परिस्थितियां निर्णायक रूप से साबित नहीं हुईं
गुवाहाटी हाईकोर्ट ने हाल ही में अपनी मां की कथित तौर पर हत्या करने और अपने भाई को घायल करने के दोषी एक व्यक्ति की सजा को इस आधार पर रद्द कर दिया कि ट्रायल कोर्ट के समक्ष आपत्तिजनक परिस्थितियों को सभी उचित संदेहों से परे साबित नहीं किया गया था।
जस्टिस माइकल ज़ोथनखुमा और जस्टिस मालाश्री नंदी की खंडपीठ ने कहा कथित रूप से आपत्तिजनक परिस्थितियों के जरिए घटनाओं की एक पूरी श्रृंखला नहीं बनाई गई, जिससे यह संकेत मिले कि आरोपी ने अपराध किया था।
मामला
मामले में बारबरी पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी के पास एक एफआईआर दर्ज की गई थी, जिसमें कहा गया था कि नौ अगस्त 2009 को लगभग 08:30 बजे आरोपी-अपीलकर्ता ने किसी घरेलू मामले को लेकर अपनी मां और बड़े भाई पर बेरहमी से हमला किया, जिसमे उसकी मां ने दम तोड़ दिया।
आरोपी के खिलाफ आईपीसी की धारा 302 और 326 के तहत मामला दर्ज किया गया. जांच पूरी होने के बाद आईपीसी के उपरोक्त प्रावधानों के तहत आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया।
ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को दोषी ठहराया और आईपीसी की धारा 302 के तहत आजीवन कारावास और धारा 326 के तहत 5 साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई। अदालत ने निर्देश दिया कि दोनों सजाएं लगातार चलनी चाहिए। जिसके बाद, आरोपी ने दोषसिद्धि और सजा के आदेश पर आपत्ति जताते हुए हाईकोर्ट में अपील दायर की।
हाईकोर्ट ने कहा कि घटना का कोई चश्मदीद गवाह नहीं था और आरोपी के घायल भाई (पीडब्लू 5) के अनुसार, वह यह नहीं पहचान सका कि उसे और उसकी मां को किसने चोट पहुंचाई थी। अदालत ने इस बात पर प्रकाश डाला कि अभियोजन पक्ष ने इस बात पर कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया कि घायल भाई यानी पीडब्लू 5 को पक्षद्रोही घोषित क्यों नहीं किया गया।
कोर्ट ने कहा,
“यह परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर आधारित मामला है। यह एक सामान्य कानून है कि किसी आरोपी को परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर दोषी ठहराने के लिए अभियोजन पक्ष को सभी आपत्तिजनक परिस्थिति को उचित संदेह से परे साबित करना होता है, जिस पर वह भरोसा करना चाहता है।”
कोर्ट ने पाया कि इस मामले में आपत्तिजनक परिस्थितियां उचित संदेह से परे साबित नहीं की गई हैं और ट्रायल कोर्ट की ओर से दर्ज किया गया दोषसिद्धि का आदेश उचित नहीं है। इस प्रकार, आक्षेपित निर्णय और सजा के आदेश को रद्द कर दिया गया और अपीलकर्ता को संदेह के लाभ पर बरी कर दिया गया।
कोर्ट ने शरद बिरधीचंद सारदा बनाम महाराष्ट्र राज्य (1984) 4 एससीसी 116, उत्तर प्रदेश राज्य बनाम सतीश (2005) 3 एससीसी 114, पवन बनाम उत्तरांचल राज्य (2009) 15 एससीसी 259 और जी पार्श्वनाथ बनाम कर्नाटक राज्य (2010) 8 एससीसी 593 में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर भरोसा किया।
केस टाइटल: मोहन कुमार बनाम असम राज्य और अन्य।
केस नंबर: Crl.A./295/2022
साइटेशन: 2023 लाइवलॉ (गुवाहाटी) 100