सबसे कमज़ोर के लिए गांधी के सिद्धांत और आंबेडकर की संवैधानिक नैतिकता मेरे सिद्धांत हैं : न्यायमूर्ति मुरलीधर
दिल्ली हाईकोर्ट में गुरुवार को न्यायमूर्ति एस मुरलीधर को विदाई दी। उनका पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट में तबादला हो गया है।
उनके इस विदाई समारोह के मौक़े पर हाईकोर्ट में पैर रखने की जगह नहीं थी। मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डीएन पटेल ने इस मौक़े पर उन ऐतिहासिक फ़ैसलों का ज़िक्र किया जो न्यायमूर्ति मुरलीधर ने एक जज के रूप में अपने 14 साल की न्यायिक सेवा के दौरान सुनाए।
दिल्ली हाईकोर्ट में अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल मनींदर आचार्य ने इस मौक़े पर कहा की न्यायमूर्ति मुरलीधर ने हमेशा ही लोगों की दुर्दशा के प्रति संवेदना दिखाई है और उनके फ़ैसले इसकी गवाह हैं। उन्होंने कहा, "पिछले 14 सालों में, मुझे उनके समक्ष कई मामलों में बहस का मौक़ा मिला। आम याचिकाकर्ता की शुभकामनाएं आपके साथ हैं।"
एडवोकेट राहुल मेहरा जो कि दिल्ली सरकार के स्थाई वक़ील हैं, उन्होंने अपने वक्तव्य की शुरुआत ही न्यायमूर्ति मुरलीधर को "अति सम्माननीय, अत्यंत साहसी और न्यायिक संवेदनाओं से भरा" बताते हुए की। उन्होंने कहा कि न्यायमूर्ति मुरलीधर का ट्रांसफ़र क़ानून के नियम के ख़िलाफ़ है और वे क़ानूनी बिरादरी के एक ऐसे व्यक्तित्व हैं जिन्होंने इसके मनमानेपन का विरोध करते हैं। मेहरा ने कहा यह बार की इच्छा है कि न्यायमूर्ति मुरलीधर को शीघ्र ही सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नति दिया जाए और वे दिल्ली लौट आएं।
रवींद्र नाथ टैगोर के प्रसिद्ध गीत "एकला चलो रे.." को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा कि इसका मतलब यह कि भले ही कोई आपके साथ चले या न चले, आप अकेले चलते रहिए। सच के समर्थन में न्याय की मशाल लेकर खड़े रहने और न्याय को ज़िंदा रखने कि लिए आपका धन्यवाद दिया। आपने बार के हज़ारों सदस्यों के प्रेरणास्रोत हैं," उन्होंने कहा।
दिल्ली बार काउन्सिल के अध्यक्ष केसी मित्तल ने याद दिलाया कि कैसे न्यायमूर्ति मुरलीधर ने समाज के बेसहारा और विपन्न वर्ग की मदद की। उन्होंने न्यायमूर्ति मुरलीधर के ट्रांसफ़र पर असंतोष जताते हुए कहा कि ट्रांसफ़र पर न्यायिक विश्वसनीयता को लेकर बहस होनी चाहिए।
दिल्ली हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष मोहित माथुर ने मज़ाक़ करते हुए कहा कि पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के वक़ील को सावधान कर देना चाहिए कि न्यायमूर्ति मुरलीधर ऐसे व्यक्ति हैं जो साधारण कार्यों से संतुष्ट नहीं होते।
"वक़ील अदालत में प्रवेश कर सकते हैं, पर पूरी तैयारी के साथ ही," उन्होंने कहा।
न्यायमूर्ति मुरलीधर ने अपनी विदाई भाषण में अपनी पत्नी और अपने परिवार के सदस्यों का उनके समर्थन के लिए धन्यवाद किया। अपने लैब्रडॉर का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि उसने उसी दिन अपनी अंतिम सांस ली जिस दिन उनका ट्रांसफ़र हुआ। उन्होंने अपने स्टाफ़ और अदालत के हर एक कर्मचारी का शुक्रिया अदा किया और कहा कि उनके सहयोग के बिना वह कोई कार्य नहीं कर पाते।
उन्होंने बार के जूनियरों की प्रशंसा की और कहा,
"मैंने पाया है कि जूनियर बार काफ़ी जानकारी रखनेवाले, बेहतर संवाद करनेवाले और भयरहित हैं। मैं विश्वास के साथ कह सकता हूं कि इस अदालत का बार उनके हाथों में सुरक्षित है।"
उन्होंने आगे कहा कि अदालत का परिसर लोकतांत्रिक होना चाहिए जहां समाज के सबसे कमज़ोर लोगों के बारे में गांधी और संवैधानिक नैतिकता के बारे में आंबेडकर के सिद्धांत आवश्यक रूप से लागू होने चाहिए।
उन्होंने कहा,
"पिछले वर्षों में मैंने यह पाया है कि वकीलों और जजों का संवैधानिक मूल्यों के बारे में बोलना ही पर्याप्त नहीं है। उनको आत्मसात करना भी ज़रूरी है। समानता, भेदभाव रहित, गरिमा, छुआछूत पर रोक, समावेशी, बहुलता का निजी और पेशेवर दोनों स्तर पर लगातार पालन होना चाहिए।"
फ़ैसला करना ध्येय भी है और मध्यस्थता भी
न्यायमूर्ति मुरलीधर ने कहा कि फ़ैसला ध्येय और मध्यस्थता के दायरे में होता है। ध्येय फ़ैसले का प्राथमिक कार्य है, विवाद का निपटारा।
"संवैधानिक निर्णयादेश में ध्येय का स्थान मेरे लिए कम से कम दो सिद्धांतों से निर्देशित होता है। सबसे कमज़ोर के लिए गांधीवादी ताबीज़ और आंबेडकर की संवैधानिक नैतिकता को अपनाना," उन्होंने कहा।
उन्होंने कहा कि वह इस बात को नहीं मानते कि जज किसी दैवीय कार्य को अंजाम देते हैं।
"मेरे लिए लॉर्डशिप जैसे शब्दों को त्यागना और यहां तक कि ऑनरेबल शब्द भी कोई मायने नहीं रखता। यह इस बात की तस्दीक़ करता है कि हम कितने नश्वर, लौकिक ग़लतियां करने वाले हैं," उन्होंने कहा।
निष्पक्षता और तटस्थता
न्यायमूर्ति मुरलीधर ने निष्पक्षता और तटस्थता में अंतर पर कहा,
"एक जज निष्पक्षता पर कोई समझौता नहीं कर सकता। यह आवश्यक गुण है। जहां तक तटस्थता की बात है, संविधान यह चाहता है कि जज को हर स्तर पर इस बात की परख होनी चाहिए कि वह न्याय पाने की दृष्टि से कमज़ोर और मज़बूत मुक़दमादारों में अंतर कर सके और हाथों को बराबर करने के क्रम में उसे कमज़ोर के साथ खड़ा होना चाहिए।"
"न्याय करना, निर्विवाद रूप से आसान नहीं है। यह न्याय प्राप्त करने की कोशिश में लगे चिंतित और निराश मुक़दमादारों द्वारा अदालत में लाए जानेवाले नकारात्मक भावों पर हर दिन प्रहार करना है। यह संभव है कि जजों को जो कुछ शारीरिक गड़बड़ियां झेलनी पड़ती हैं, उसका कारण उस नकारात्मक ऊर्जा को बरदाश्त करने के कारण है। एक के बाद एक मामले की सुनवाई के बाद पूरे दिन भर समभाव और शांति बनाए रखना सचमुच में बड़ी चुनौती होती है," उन्होंने कहा।
न्यायमूर्ति मुरलीधर ने कहा,
"वकीलों और जजों की कुछ आम ज़रूरतें हैं। बौद्धिक उद्दीपन इनमें से एक है। जज बनने के बाद आप यह समझने लगते हैं कि एक वक़ील की तुलना में आपके पास क़ानून या अन्य तरह के साहित्यों को पढ़ने के लिए और कम समय है। एक जगह जा होने, विचारों के आदान-प्रदान और उस पर विचार-विमर्श के लिए किसी मंच का होना जजों और वकील दोनों के लिए मददगार होगा।"
उन्होंने कहा कि जब वे वक़ील थे तब उन्होंने फ़्राइडे मीटिंग ग्रुप की शुरुआत 1998 में की थी।
"ऐसी फ़िल्में जो वास्तविक घटनाओं और क़ानूनी व्यवस्था से सवाल करनेवाले मुद्दों से जुड़ी होती हैं, संवाद के बहुत ही सशक्त माध्यम होती हैं। वकालत के दिनों में अपने चेम्बर में सहयोगियों के साथ और यहां दिल्ली हाईकोर्ट में जजों के लाउंज में फ़िल्म देखने के बारे में मेरा अपना अनुभव है…।
उन्होंने उन दिनों को याद किया जब उन्होंने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एपी शाह के साथ मिलकर 2009 में धारा 377 पर फ़ैसला दिया। उन्होंने कहा कि कई लोग उस दिन अदालत में ही रोने लगे। उन्होंने कहा, "उस दिन हमें लगा, न्याय हुआ है।"
न्यायमूर्ति मुरलीधर ने अपने ट्रांसफ़र के बारे में कहा कि वह इस बारे में यहां से जाने से पहले ही स्पष्ट कर देना चाहते हैं।
"मेरे मामले में, मुझे कॉलेजियम के फ़ैसले के बारे में सीजेआई ने 17 फ़रवरी को ही एक पत्र के द्वारा बता दिया था और इस पर मेरी सम्मति चाही थी… मुझे दिल्ली से बाहर वैसे भी ट्रांसफ़र किया जाना था और पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट जाने में मुझे कोई दिक्कत नहीं थी …इसलिए मैंने सीजेआई को स्पष्ट किया कि मुझे कोई आपत्ति नहीं है। मेरे ट्रांसफ़र का विश्लेषण द प्रिंट में मनीष छिब्बर के आलेख से प्रेस में छपा…इसमें मुझे जिसकी जानकारी दी गई थी उन्हीं बातों का सूत्रों के हवाले से ज़िक्र था," उन्होंने कहा।
समापन से पहले उन्होंने 26 फ़रवरी की घटना का ज़िक्र किया जब उन्होंने दिल्ली दंगे के एक पीड़ित के लिए आधी रात को सुनवाई की और भड़काऊ बयान देने के लिए नेताओं के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज किए जाने की माँग वाली हर्ष मंदर की याचिका पर आदेश दिया।
"इस अदालत में एक जज के रूप में, 26 फ़रवरी 2020 मेरे जीवन का सबसे लंबा वर्किंग डे था," उन्होंने कहा।
"भारत के सबसे अच्छे हाईकोर्ट, दिल्ली हाईकोर्ट का पूर्व जज कहलाने में मुझे गर्व होगा," उन्होंने कहा।