'केवल कुछ संवेदनशील मामलों में लोकायुक्त पुलिस एफआईआर अपलोड करने में देरी करती है': राज्य सरकार ने कर्नाटक हाईकोर्ट को बताया
कर्नाटक हाईकोर्ट (Karnataka High Court) को राज्य ने सूचित किया कि केवल कुछ संवेदनशील मामलों में कर्नाटक लोकायुक्त की पुलिस शाखा अपनी वेबसाइट पर प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) अपलोड करने में देरी करती है।
चीफ जस्टिस प्रसन्ना बी वराले और जस्टिस अशोक एस किनागी की खंडपीठ ने अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (कर्नाटक लोकायुक्त) द्वारा कर्नाटक लोकायुक्त से जुड़े पुलिस अधीक्षक के माध्यम से दायर हलफनामे को स्वीकार कर लिया और एक जनहित याचिका का निस्तारण कर दिया जिसमें सभी को पंजीकरण के 24 घंटे के भीतर कर्नाटक लोकायुक्त की पुलिस शाखा की वेबसाइट पर प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) अपलोड करने के लिए निर्देश देने की मांग की गई थी।
याचिका में वकील उमापति एस ने यूथ बार एसोसिएशन ऑफ इंडिया बनाम यूनियन ऑफ इंडिया पर भरोसा किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने सभी एफआईआर को 24 घंटे के भीतर संबंधित पुलिस की आधिकारिक वेबसाइट पर अपलोड करने का निर्देश दिया था।
अधिकारियों ने जवाब में कहा,
"कुछ मामलों में अगर प्राथमिकी अपलोड की जाती है तो मामला दर्ज होने की जानकारी आरोपी को पता चल जाएगी और इससे सबूत नष्ट हो सकते हैं और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के उद्देश्य विफल हो सकते हैं।"
इसमें कहा गया है,
"इसलिए बड़े पैमाने पर अभियुक्तों और समाज के अधिकारों को संतुलित करने के लिए, प्रतिवादी संख्या 2 [लोकायुक्त पुलिस] ने शीर्ष अदालत द्वारा दिए गए निर्देशों के अनुपालन में, संवेदनशील प्रकृति के मामलों में प्राथमिकी अपलोड करने में देरी की आवश्यकता है। अन्य मामले जो छूट की श्रेणी में नहीं आते हैं, प्रतिवादी संख्या 2 सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन कर रहा है।"
पीठ ने याचिकाकर्ता के व्यक्तिगत रूप से प्रस्तुत करने को दर्ज किया कि हलफनामे के मद्देनजर, उसके द्वारा उठाई गई शिकायत अब बची नहीं है। याचिकाकर्ता ने यह भी स्वीकार किया कि कुछ मामलों में निजता बनाए रखने की आवश्यकता होती है।
अदालत ने कहा,
"तथ्यों को ध्यान में रखते हुए और यह देखते हुए कि जनहित याचिका में उठाई गई शिकायत का समाधान और निवारण किया गया है, जनहित याचिका का निस्तारण किया जाता है।"
याचिकाकर्ता ने कहा था कि लोकायुक्त संस्था के पास आने वाले अधिकांश लोग अज्ञानी, गरीब और अनपढ़ हैं और उनमें से कुछ राहत के लिए संवैधानिक अदालतों का रुख भी नहीं करते हैं।
याचिका में तर्क दिया गया कि प्राथमिकी की अनुपलब्धता उन्हें राहत के लिए विभिन्न अदालतों में जाने के लिए विवश करती है, जिससे उन्हें पैसा और प्रयास खर्च करना पड़ता है।
यह भी प्रस्तुत किया गया कि भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो को अब उच्च न्यायालय के आदेश के आधार पर समाप्त कर दिया गया है और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत मामलों की जांच करने की शक्ति लोकायुक्त पुलिस को बहाल कर दी गई है। इसके द्वारा प्राथमिकी अपलोड करना पहले की तरह जारी रखा जाना चाहिए।
याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि वेबसाइट पर एफआईआर की अनुपलब्धता न केवल शीर्ष अदालत के आदेश का उल्लंघन है बल्कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों का भी उल्लंघन है।
केस टाइटल: उमापति एस बनाम कर्नाटक राज्य
केस नंबर: WP 20297/2022।
साइटेशन: 2022 लाइव लॉ 493
आदेश की तिथि: 01-12-2022