इंटरफेथ मैरिज से पैदा हुए बच्चे को भरण-पोषण देने के लिए पिता कानूनी रूप से बाध्यः केरल हाईकोर्ट
केरल हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि एक इंटरफेथ मैरिज से पैदा हुए बच्चे को भरण-पोषण देने के लिए बच्चे का पिता कानूनी रूप से बाध्य है।
न्यायमूर्ति ए. मोहम्मद मुस्तक और न्यायमूर्ति कौसर एडप्पागथ की खंडपीठ ने कहाः
''हमें एक अंतर-धार्मिक ( इंटरफेथ) कपल से पैदा हुए बच्चों को उसके पिता से भरण-पोषण का दावा करने के कानूनी अधिकार से वंचित करने का कोई कारण नहीं दिख रहा है, वो भी सिर्फ इसलिए क्योंकि ऐसे पिता को अपने बच्चों का भरण-पोषण करने के लिए बाध्य करने वाला कोई विशिष्ट वैधानिक प्रावधान नहीं है। एक पिता के माता-पिता के तौर पर कर्तव्य को निर्धारित करने के लिए जाति, आस्था या धर्म का कोई तर्कसंगत आधार नहीं हो सकता है। माता-पिता द्वारा अपनाए गए अलग-अलग धर्म या आस्था के बावजूद सभी बच्चों के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए।''
कोर्ट ने स्पष्ट करते हुए कहा कि इस तरह के मामलों में एक बेटे का अधिकार तब तक होगा जब तक कि वह वयस्क नहीं हो जाता है, जबकि बेटी अपनी शादी होने तक इसकी हकदार होगी।
कोर्ट ने यह भी कहा कि,
''दुनिया में पैदा हुए हर बच्चे को भरण-पोषण पाने का अधिकार है। यह उनका कानूनी और नैतिक दोनों तरह का अधिकार है ...पूरे सभ्य समाज में बच्चों की देखभाल करने के कर्तव्य को लागू करने योग्य दायित्व के रूप में मान्यता दी गई है।''
कोर्ट ने यह भी फैसला सुनाया है कि एक इंटरफेथ कपल से पैदा हुई बेटी अपने विवाह के समय पिता से शादी का उचित खर्च पाने की भी हकदार है।
मामले के तथ्यः
पहली प्रतिवादी यहां अपीलकर्ता (पिता) की बेटी है और दूसरी प्रतिवादी(मां) है।
अपीलकर्ता यहां हिंदू है और दूसरी प्रतिवादी मुस्लिम है। इसलिए वर्ष 1987 में उनका अंतर-धार्मिक विवाह हुआ था, और पहली प्रतिवादी उनके इस विवाह से पैदा हुई है।
वर्ष 2010 में, बेटी ने हिंदू दत्तक और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 के तहत अपने माता-पिता के खिलाफ बकाया और भविष्य का भरण-पोषण, शैक्षिक और शादी का खर्च पाने के लिए फैमिली कोर्ट का रुख किया।
अपीलकर्ता ने इसी का भुगतान करने के अपने दायित्व पर आपत्ति की और तर्क दिया कि याचिका अधिनियम के तहत सुनवाई योग्य नहीं है।
सबूतों के विश्लेषण के बाद फैमिली कोर्ट ने पाया था कि बेटी को एक हिंदू परिवार के सदस्य के रूप में पाला गया है और चूंकि अपीलकर्ता एक हिंदू है, इसलिए अधिनियम को लागू करने की मांग वाली उसकी याचिका पूरी तरह से सुनवाई योग्य है।
इस प्रकार, मैरिट के आधार पर, फैमिली कोर्ट ने फैसला सुनाया था कि बेटी अपने माता-पिता से उसके द्वारा दावा की गई सभी राहत पाने की हकदार है। फैमिली कोर्ट के इस आदेश के खिलाफ अपीलकर्ता ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
न्यायालय के समक्ष प्रश्नः
(1) क्या एक अंतर-धार्मिक विवाह या इंटरफेथ मैरिज से पैदा हुए बच्चे के पिता का वैधानिक बाध्यता के अभाव में उसे बनाए रखने का कानूनी दायित्व है?
(2) क्या एक इंटरफेथ मैरिज से पैदा हुई बेटी(अविवाहित) अपने पिता से शादी का खर्च पाने की हकदार है?
(3) यदि हाँ, तो इस खर्च का निर्धारण कैसे किया जाएगा?
कोर्ट का निष्कर्षः
बेटी का पालन-पोषण एक हिंदू के रूप में नहीं हुआ
बेंच ने रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री को देखने के बाद फैमिली कोर्ट के इस निष्कर्ष में गलती पाई है कि बेटी को एक हिंदू समुदाय के सदस्य के रूप में पाला गया था।
याचिका में बेटी ने स्वीकार किया है कि अपीलकर्ता उस समय उसकी मां को छोड़कर चला गया था,जब वह तीन साल की थी। उसके बाद वह अपनी मां की कस्टडी और संरक्षकता में रही। उसकी मां ने वर्ष 1997 में किसी अन्य व्यक्ति से शादी कर ली थी और उसके बाद, उसका पालन-पोषण उसके नाना-नानी ने किया, जो मुस्लिम हैं।
''इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि तीन साल की उम्र के बाद, उसे एक हिंदू के रूप में नहीं पाला गया था।''
इसके अलावा, बेटी की शादी 2012 में एक मुस्लिम से हुई थी, जिसे मुस्लिम रीति-रिवाजों के अनुसार संपन्न किया गया था। उनके शादी के निमंत्रण कार्ड से भी यही साबित हुआ है।
कोर्ट के अनुसार, इन सभी रिकॉर्डों से संकेत मिलता है कि बेटी का पालन-पोषण एक मुस्लिम के रूप में हुआ, न कि हिंदू के रूप में।
''इसलिए, निचली अदालत के इस निष्कर्ष को, कि पहली प्रतिवादी को हिंदू समुदाय के सदस्य के रूप में पाला गया था और इसलिए, हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 के प्रावधान लागू होंगे, को कायम नहीं रखा जा सकता है।''
बेंच ने आगे कहा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ भी लागू नहीं किया जा सकता है क्योंकि दोनों पक्ष मुस्लिम नहीं हैं।
पिता भरण पोषण प्रदान के लिए बाध्य
इस मुद्दे पर विचार करते हुए, अदालत ने पाया कि अंतर-धार्मिक विवाह से पैदा हुए बच्चे के पिता को उसे भरण-पोषण प्रदान करने के लिए बाध्य करने वाला कोई कानून नहीं है। इस पर विशेष विवाह अधिनियम, 1984 भी मौन है।
हालांकि, कोर्ट ने कहा कि कानून के तहत, प्रथा और विधान पिता को एक प्राकृतिक अभिभावक के रूप में मान्यता देते हैं। वह नाबालिग बच्चे और उसकी संपत्ति की कस्टडी पाने का हकदार है। बेंच ने आगे कहा कि कस्टडी के अधिकार में देखभाल करने का कर्तव्य भी शामिल हैः
''अधिकार आवश्यक रूप से इसके साथ एक समान कर्तव्य रखते है। चूंकि पिता को अभिभावक के रूप में मान्यता दी जाती है, इसलिए वह बच्चे को बनाए रखने और उसकी रक्षा करने के एक कर्तव्य के भी अधीन है। चूंकि बच्चा एक नान सूआइ ज्यूरिस है, इसलिए राज्य और अदालतें माता-पिता के रूप में उसकी रक्षा करने के लिए बाध्य हैं।''
इस निर्णय पर जोर देने के लिए यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन ऑन द राइट्स ऑफ द चाइल्ड (यूएनसीआरसी) का भी हवाला दिया गया।
कोर्ट ने आगे मैथ्यू वर्गीस बनाम रोसम्मा वर्गीस (2003 केएचसी 362) के मामले में दिए गए निर्णय का भी हवाला दिया, जहां यह माना गया था कि प्रत्येक पिता का ( भले ही उसका कोई भी धार्मिक संप्रदाय और विश्वास हो) अपने बच्चे को बनाए रखने के लिए निर्विवाद दायित्व है।
कोर्ट ने कहाः
''इसलिए, हम मानते हैं कि एक अंतर-धार्मिक जोड़े से पैदा हुआ बच्चा अपने पिता से भरण-पोषण पाने का हकदार है। निस्संदेह, बेटे का अधिकार तब तक है जब तक कि वह वयस्क नहीं हो जाता है और बेटियों का यह अधिकार उनकी शादी होने तक रहेगा।''
बेटी शादी का खर्च पाने की हकदार
बेटी ने भरण-पोषण के अलावा चिकित्सा खर्च और शादी के खर्च की भी मांग की थी।
बेंच ने कहा कि मैथ्यू वर्गीस मामले (सुप्रा) में यह स्पष्ट किया गया था कि भरण-पोषण बच्चे का अधिकार है और इस तरह के भरण-पोषण में बच्चे के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए सभी खर्च शामिल होने चाहिए और जहां तक एक अविवाहित बेटी का संबंध है, तो उसकी शादी भी बच्चे के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए कुछ हद तक जरूरी है।
इसलिए, यह माना गया कि एक इंटरफेथ कपल से पैदा हुई (अविवाहित) बेटी अपने पिता से शादी का खर्च पाने की हकदार है।
पिता का कर्तव्य सिर्फ उचित विवाह व्यय को पूरा करना है
बेटी ने 25,00,000 रुपये अपनी शादी के खर्च के लिए मांगे थे परंतु फैमिली कोर्ट ने उसे 14,66,860 रुपये प्रदान किए थे।
कोर्ट ने कहा कि हमारे समाज में अब शादी कोई रस्म नहीं रह गई है। अब वे दिन गए जब शादियां बेहद सीधे-सादे तरीके से होती थी।
कोर्ट ने माना कि,
''अपव्यय विवाहों की पहचान बन गया है। विवाह के पवित्र अवसर को अब दिखावा करने का एक उपयुक्त अवसर माना जा रहा है। धूमधाम से विवाह करना अब चलन में हैं, डेस्टिनेशन वैडिंग में वृद्धि हो रही है। विवाह उद्योग देश में सबसे बड़े उद्योग में से एक बन गया है - हर साल 10 मिलियन से अधिक शादियां होती हैं। हालांकि, कोरोनावायरस महामारी ने हमें सिखाया है कि बिना किसी उत्सव के एक छोटा अंतरंग विवाह समारोह या यहां तक कि वर्चुअल शादी भी संभव है।''
इसलिए, कोर्ट ने कहा कि पात्रता केवल उचित खर्चों के लिए हैः
''इसमें कोई शक नहीं कि कोई भी अपनी मर्जी से शादी करने के लिए स्वतंत्र है। लेकिन, एक अविवाहित बेटी अपने पिता को भव्य या शानदार तरीके से शादी करने के लिए नहीं कह सकती है या मजबूर नहीं कर सकती है। एक पिता को उसकी बेटी की अपनी मर्जी और चाहत के हिसाब से किए गए खूब सारे खर्च की राशि वहन करने के दायित्व के साथ बांधा नहीं जा सकता है। न ही कोर्ट बिना किसी आधार के शादी का खर्च देने का आदेश दे सकती है।''
बेंच ने आगे कहा कि बेटी ने मुस्लिम रीति-रिवाजों से शादी की थी और इंगित किया कि इस्लाम साधारण विवाह समारोहों की वकालत करता है। इसके अतिरिक्त, इस्लाम में, पिता के लिए अपनी बेटी को पैसा, सोना या दहेज देने का कोई दायित्व नहीं है। यहां तक कि शादी की दावत भी दुल्हन के पिता द्वारा नहीं बल्कि दूल्हे को देनी होती है।
इसलिए, यह पाया गया कि अपीलकर्ता को पहली प्रतिवादी द्वारा कथित तौर पर किए गए सभी विवाह खर्चों को पूरा करने का निर्देश देने का कोई औचित्य नहीं है, विशेष रूप से जब यह राशि सोने के गहनों की खरीद पर खर्च की गई है।
यह मानते हुए कि सोने के अलावा अन्य खर्चों पर केवल 1,73,150 रूपये खर्च किए गए थे, अदालत ने कहा कि शादी के खर्चों के लिए 3,00,000 रूपये की राशि प्रदान करना उचित और पर्याप्त है।
इस प्रकार शादी के खर्च के लिए निचली अदालत द्वारा दी गई राशि को संशोधित कर दिया गया है और अपील को आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया गया है।
अपीलकर्ता की ओर से अधिवक्ता निर्मल एस. और प्रतिवादियों की तरफ से अधिवक्ता जी. रंजू मोहन, के.वी. समुद्र और एम.संथी उपस्थित हुए।
केस का शीर्षक- जे.डब्ल्यू. अरागदान बनाम हाशमी एन.एस व अन्य
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