आवश्यक दस्तावेजों के अभाव में पीड़िता की उम्र साबित करने के लिए उसकी गवाही ली जा सकती है: मद्रास हाईकोर्ट
मद्रास हाईकोर्ट ने हाल ही में यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम के तहत दोषसिद्धि के फैसले को आईपीसी के एक प्रावधान के तहत यह कहते हुए संशोधित किया कि अभियोजन पक्ष अपराध के समय पीड़िता की उम्र स्थापित करने में विफल रहा था।
जस्टिस भरत चक्रवर्ती सलेम स्थित महिला कोर्ट की सेशन जज द्वारा पारित उस फैसले को चुनौती देने वाली एक अपील पर विचार कर रहे थे, जिसमें अपीलकर्ता को पॉक्सो अधिनियम की धारा 6 के साथ पठित 5(के) और 5(जे)(ii) तथा आईपीसी की धारा 506(i) के तहत अपराध का दोषी पाया गया था।
कोर्ट ने कहा कि जब अभियोजन पक्ष ने पीड़िता का स्थानांतरण प्रमाण पत्र पेश नहीं किया और जब पीड़िता ने अदालत के समक्ष स्पष्ट रूप से बयान दिया था कि उसकी जन्मतिथि 27.07.1995 थी, जो अपराध के समय उसे नाबालिग नहीं बना रही थी तो उसकी गवाही को उसकी सही उम्र के साक्ष्य के तौर पर उसकी जन्म तिथि रिकॉर्ड में लिया जाना चाहिए और इसलिए उसने आरोपों में बदलाव किया।
जस्टिस भरत चक्रवर्ती ने कहा,
" मेरा मत है कि 27.07.1995 को जन्म तिथि होने के संबंध में पीड़िता की गवाही को साक्ष्य के तौर पर स्वीकार किया जा सकता है और घटना की तिथि के अनुसार, उसकी आयु अठारह वर्ष से अधिक है और इसलिए, कथित यौन संबंध भारतीय दंड संहिता की धारा 376 के तहत अपराध होगा और यह पॉक्सो अधिनियम की धारा 6 के तहत अपराध नहीं हो सकता।"
मूल मामला यह था कि 30-वर्षीय अपीलकर्ता ने लगभग उन्नीस वर्ष की पीड़िता के साथ जबरदस्ती यौन संबंध बनाये थे। वह लड़की आरोपी की पड़ोसी थी और यौन संबंध के कारण वह गर्भवती हो गई। जब वह गर्भपात की दवा लेने दवा दुकान पर गई तो अपीलकर्ता की बहन ने उसका विरोध किया, इसके बाद उसने अपने पिता के सामने सारी बात कबूल कर ली। इसके बाद शिकायत दर्ज कराई गई।
प्रारंभ में मामला आईपीसी की धारा 376 और 506 (i) के तहत दर्ज किया गया था। जांच के दौरान पीड़िता के स्कूल हेडमास्टर ने पीड़िता को प्रमाण-पत्र दिया था, जिसमें उसकी जन्मतिथि 19.12.1996 दर्ज थी। इस प्रकार चूंकि घटना के समय पीड़िता की उम्र 18 वर्ष से कम थी, इसलिए मामले को बदलकर पॉक्सो एक्ट के तहत कर दिया गया।
ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को आईपीसी की धारा 506(i) और पॉक्सो एक्ट की धारा 6 के तहत अपराध का दोषी पाया और तदनुसार सजा सुनाई।
अपीलकर्ता ने दलील दी कि पीड़ित लड़की ने अपने साक्ष्य में भी कहा है कि उसका जन्म 27.07.1995 को हुआ था। उसने यह भी कहा था कि यही तारीख उसके स्कूल रिकॉर्ड, विकलांगता विभाग द्वारा पहचान प्रमाण पत्र और उसकी कुंडली आदि सहित उसके सभी दस्तावेजों में मिलती है। इस प्रकार, जब अभियोजन पक्ष ने इस संबंध में उसका प्रतिकार नहीं किया और उससे जिरह नहीं की, तो उसकी गवाही को उसकी जन्मतिथि के प्रमाण के रूप में माना जाना चाहिए था।
इतना ही नहीं, स्थानांतरण प्रमाण पत्र प्रस्तुत करने के बजाय, अभियोजन पक्ष ने केवल प्रधानाध्यापक द्वारा जारी एक प्रमाण पत्र का उल्लेख किया था। उसने यह भी तर्क दिया कि उसने सहमति से यौन संबंध बनाया था और इस तथ्य पर ध्यान आकर्षित किया कि पीड़िता ने किसी को भी अपराध के बारे में जाहिर नहीं किया था और उसने तभी इसे जाहिर किया था जब वह गर्भावस्था को छुपा नहीं सकी थी।
दूसरी ओर अभियोजन पक्ष ने किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) नियमावली के नियम 12 (2) पर निर्भर था। इस नियम के अनुसार अभियोजन पक्ष को सबसे पहले यह देखना चाहिए कि पीड़िता के पास एसएसएलसी या 12वीं का सर्टिफिकेट है या नहीं। यदि यह नहीं है तो अभियोजन पक्ष को लड़की के जन्म की तारीख के संबंध में स्कूल से प्रमाण पत्र लेना था।
कोर्ट ने पीड़िता की उम्र के निर्धारण के संबंध में 'जरनैल सिंह बनाम हरियाणा सरकार' के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित प्रक्रिया की सावधानीपूर्वक जांच की। मौजूदा मामले में, मैट्रिक या समकक्ष प्रमाण पत्र उपलब्ध नहीं था क्योंकि पीड़िता स्कूल छोड़ चुकी थी। इसलिए दूसरा विकल्प पीड़िता के जन्म प्रमाण पत्र में दर्ज तारीख थी।
कोर्ट ने कहा कि भले ही पीड़िता का ट्रांसफर सर्टिफिकेट स्कूल में उपलब्ध था, लेकिन अभियोजन पक्ष ने उसे उल्लेखित नहीं किया था। यहां तक कि पीड़िता ने भी स्पष्ट रूप से बयान दिया था कि उसकी जन्मतिथि 27.07.1995 थी।
जांच के दौरान, प्रथम सूचना रिपोर्ट और शिकायत से, पीड़िता की उम्र केवल उन्नीस वर्ष बताई गई है, इसलिए, मेरा विचार है कि अभियोजन पक्ष स्पष्ट रूप से घटना की तारीख 23.10.2013 को पीड़िता की उम्र 18 वर्ष से कम साबित करने में विफल रहा है।
कोर्ट ने कहा कि पीड़िता के साक्ष्य को उसकी सही उम्र के रूप में लिया जाना चाहिए और इसलिए, अपराध पॉक्सो अधिनियम के अंतर्गत नहीं आएगा, बल्कि आईपीसी की धारा 376 के तहत आएगा।
कोर्ट ने इस तर्क से भी असहमति जताई कि यौन संबंध सहमति से बनाया गया था। कोर्ट ने कहा कि सिर्फ इसलिए कि पीड़िता ने तुरंत अपने माता-पिता या अन्य लोगों से शिकायत नहीं की और चुप रही, अपीलकर्ता को दोषमुक्त नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने जोर देकर कहा कि मुकदमा पीड़िता पर नहीं, बल्कि आरोपी पर था।
केवल इसलिए कि पीड़िता ने तुरंत अपने माता-पिता या अन्य लोगों से शिकायत नहीं की और चुप रही और तथ्य यह भी मौजूद है कि बार-बार यौन उत्पीड़न की आशंका भी थी, अपीलकर्ता को इस घिनौने कृत्य से मुक्त नहीं किया जा सकेगा। इस मामले में पीड़िता मुकदमे के अधीन नहीं है, बल्कि अपीलकर्ता है।
इस प्रकार कोर्ट ने अपीलकर्ता को आईपीसी की धारा 376 के तहत अपराध के लिए दोषी पाया और उसे सात साल की अवधि के कठोर कारावास की सजा सुनाई। पीड़िता को मुआवजे के रूप में भुगतान किए गए एक लाख रुपये के अलावा, कोर्ट ने निर्देश दिया कि पीड़िता कानून के अनुसार, संबंधित पीड़िता मुआवजा कोष के तहत मुआवजे के लिए आवेदन कर सकती है। इतना हीं नहीं, इसने विधिक सेवा प्राधिकरण को अनुमानित मुआवजा राशि तय करने और अधिकतम भुगतान करने का निर्देश दिया। साथ ही कोर्ट ने आरोपी को निर्देश दिया कि वह पीड़िता को 50 हजार रुपये का मुआवजा दे।
केस टाइटल: अझगन उर्फ प्रभु बनाम राज्य सरकार
केस नंबर: क्रिमिनल अपील नंबर 146/2022
साइटेशन : 2022 लाइव लॉ (मद्रास) 337
अपीलकर्ता के वकील: श्री एस.जेवाकुमार
प्रतिवादी के लिए वकील: श्री एस विनोद कुमार, सरकारी वकील (आपराधिक पक्ष)
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