आपराधिक आरोपों के कारण निलंबित माना गया कर्मचारी बरी होने पर वेतन वापस पाने का हकदार नहीं, जब तक कि निलंबन पूरी तरह से अनुचित न होः बॉम्बे हाईकोर्ट

Update: 2022-09-20 13:45 GMT

बॉम्बे हाईकोर्ट

बॉम्बे हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा है कि एक कर्मचारी जिसे आपराधिक आरोपों के कारण निलंबित (deemed to be suspended) माना जाता है, वह बरी होने के बावजूद वापस वेतन पाने का हकदार नहीं है क्योंकि उसका निलंबन एक विवेकाधीन निर्णय नहीं है और इसे अनुचित नहीं माना जा सकता है।

कोर्ट ने कहा,

''यहां तक कि जहां कर्मचारी को सबूत के अभाव में या अन्यथा आपराधिक मुकदमे में आरोपों से बरी कर दिया गया है, यह राय बनाना सक्षम प्राधिकारी पर निर्भर है कि क्या कर्मचारी का निलंबन पूरी तरह से अनुचित था और सक्षम प्राधिकारी की ऐसी राय मामले के तथ्यों और परिस्थितियों और उसके समक्ष लाई सामग्री के आधार पर एक संभावित दृष्टिकोण होती है, सक्षम प्राधिकारी की ऐसी राय में ट्रिब्यूनल या न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा ...याचिकाकर्ता का निलंबन, कानून के संचालन द्वारा किया गया, जो जीवन को कानून में बदलने का प्रभाव था और उस पर शायद ही अनुचित होने का महाभियोग लगाया जा सकता है।''

चीफ जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस नितिन डब्ल्यू साम्ब्रे की खंडपीठ ने उस याचिका को खारिज कर दिया जो केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (कैट) के आदेश को चुनौती देते हुए याचिकाकर्ता ने दायर की थी। याचिकाकर्ता को उसके निलंबन की अवधि के लिए वेतन और भत्ते वापस नहीं देने के अनुशासनात्मक प्राधिकरण के फैसले को कैट ने बरकरार रखा था।

याचिकाकर्ता अंबाझरी आर्डनेंस फैक्टरी में मजदूर था। उस पर कुछ अपराधों का आरोप लगाया गया था और उसे 48 घंटे से अधिक समय तक हिरासत में रखा गया था, जिसके परिणामस्वरूप उसको निलंबित माना गया था। एक साल बाद उसे जमानत मिल गई लेकिन निलंबन दस साल तक जारी रहा। याचिकाकर्ता को बरी होने के बाद बहाल कर दिया गया और सेवानिवृत्ति पर सेवानिवृत्त कर दिया गया। महाप्रबंधक ने एक आदेश जारी करते हुए कहा था कि उनके निलंबन की अवधि को 'अकार्य दिवस' या ड्यूटी पर न बिताई गई अवधि के रूप में माना जाएगा और वह निर्वाह भत्ते के अलावा बकाया वेतन और भत्तों का हकदार नहीं होगा।

याचिकाकर्ता ने इसे अपीलीय प्राधिकारी के समक्ष चुनौती दी जिन्होंने उनके दावे को खारिज कर दिया। इसके बाद याचिकाकर्ता ने कैट से संपर्क किया जिसने उसके आवेदन को खारिज कर दिया। बॉम्बे हाईकोर्ट ने मामले को वापस ट्रिब्यूनल में भेज दिया जहां इसे ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम बनाम एम प्रभाकर राव के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले के आधार पर फिर से खारिज कर दिया गया। इसलिए वर्तमान याचिका दायर की गई।

याचिकाकर्ता के वकील एम. आई. मौर्य ने प्रस्तुत किया कि एम. प्रभाकर राव मामले में दिया गया निर्णय इस मामले में लागू नहीं होता है क्योंकि वह मामला आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन के दौरान अपराधों से संबंधित था। इसके अलावा, वर्तमान मामले में याचिकाकर्ता को सम्मानपूर्वक बरी कर दिया गया है। मुकदमे में देरी के लिए उसे दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। वह काम करने को तैयार था लेकिन निलंबन के कारण नहीं कर सका।

अदालत ने कहा कि मौलिक नियमों के नियम 54-बी, यह तय करने के लिए हैं कि क्या कर्मचारी बकाया वेतन और भत्ते वापस पाने का हकदार है और क्या निलंबन की अवधि को ड्यूटी पर बिताई गई अवधि के रूप में माना जाना चाहिए, यह सवाल कि क्या निलंबन उचित था या नहीं, निर्धारित करने की आवश्यकता है? वर्तमान मामले में, केंद्रीय सिविल सेवा (वर्गीकरण, नियंत्रण और अपील) नियमों 1965 ( सीसीएस सीसीए नियमों) के नियम 10(2) के तहत डीम्ड सस्पेंशन/निलंबन आदेश पारित किया गया था। यह एक डीम्ड सस्पेंशन है और अनुशासनात्मक प्राधिकारी ने इस मामले में किसी भी विवेक का प्रयोग नहीं किया है। कानून के संचालन द्वारा किया गया ऐसा निलंबन अनुचित नहीं हो सकता है।

अदालत ने आगे सीसीएस सीसीए नियमों के नियम 10(7) का उल्लेख किया,जो प्रावधान करता है कि प्राधिकरण समय-समय पर निलंबन आदेश की समीक्षा करे। अनुशासनिक प्राधिकारी को समय-समय पर समीक्षा करनी चाहिए कि क्या निलंबन जारी रखना उचित है या नहीं? अदालत ने कहा, ''आखिरकार, याचिकाकर्ता से कोई काम लिए बिना, लेकिन उसे एक दशक से अधिक समय तक निर्वाह भत्ता देना, चाहे वह कितना भी कम हो, वास्तव में सरकारी खजाने का अपवाह था।'' हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि निलंबन जारी रखना अनुचित था।

अदालत इस दावे पर विश्वास करने के लिए इच्छुक नहीं थी कि याचिकाकर्ता वास्तव में काम करना चाहता था क्योंकि उसने कभी भी निलंबन आदेश की समीक्षा या निरसन का अनुरोध नहीं किया था। वह बिना कोई काम किए गुजारा भत्ता लेने से ही संतुष्ट था।

अदालत ने कहा कि सुनवाई में देरी के लिए याचिकाकर्ता को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है, लेकिन देरी के लिए अनुशासनात्मक प्राधिकारी को भी दोषी नहीं ठहराया जा सकता है।

अदालत ने एडवोककेट मौर्य द्वारा एम. प्रभाकर राव और वर्तमान मामले के बीच किए गए अंतर में कोई योग्यता नहीं पाई। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि कर्मचारी द्वारा सामना की जाने वाली आपराधिक कार्यवाही उसके आधिकारिक कर्तव्य का निर्वहन करते समय किए गए कृत्यों से संबंधित है या नहीं। एक बार जब कर्मचारी को 48 घंटे से अधिक समय तक हिरासत में रखा जाता है, तो उसे सीसीएस सीसीए नियमों के तहत निलंबित माना जाएगा।

केस टाइटल- गोपाल पुत्र सीताराम बैरीसाल बनाम भारत संघ

केस संख्या- रिट याचिका नंबर- 5319/2022 

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