जिला न्यायाधीश का चयन- अधीनस्थ न्यायिक अधिकारी बार से सीधी भर्ती के लिए एडवोकेट के रूप में प्रैक्टिस का दावा नहीं कर सकते: पटना हाईकोर्ट
पटना हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि न्यायिक अधिकारी जोअधीनस्थ न्यायिक सेवाओं के माध्यम से नियुक्त होने का विकल्प चुनते हैं, वे बार से जिला न्यायाधीश (एंट्री लेवल) के रूप में सीधी भर्ती में पदोन्नत के लिए एक वकील के रूप में प्रैक्टिस का दावा नहीं कर सकते।
न्यायमूर्ति शिवाजी पांडे और न्यायमूर्ति पार्थ सारथी की खंडपीठ ने कहा कि बार से सीधी भर्ती परीक्षा में बैठने वाले उम्मीदवार को न केवल कट ऑफ डेट के समय बल्कि उसके नियुक्ति के समय 7 साल के अनुभव के साथ एक वकील रहना होगा।
कोर्ट ने यह अवलोकन करते हुए सुनील कुमार वर्मा द्वारा दायर याचिका को खारिज कर दिया। याचिका के मुताबिक सुनील कुमार वर्मा (याचिकाकर्ता) ने बार से एडवोकेट के रूप में 7 साल के अनुभव के साथ जिला न्यायाधीश (प्रवेश स्तर) सीधी भर्ती परीक्षा के सभी तीनों चरणों को पास किया। हालांकि साथ ही उन्होंने अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के रूप में अपनी नियुक्ति से पहले यूपी न्यायिक सेवा (जूनियर डिवीजन) की भी परीक्षा पास किया था। हालांकि उन्होंने इस पद से इस्तीफा दे दिया था और स्वीकार कर लिया गया था। इसके बाद उन्हें बेगूसराय में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया।
मामले के तथ्य
याचिकाकर्ता साल 2007 में यूपी बार एसोसिएशन में नामांकित एक वकील बना और 15 जनवरी 2017 तक प्रैक्टिस किया। पटना हाईकोर्ट ने 22 अगस्त 2016 को जारी उस अधिसूचना को रद्द कर दिया, जिसमें बार से सीधे जिला न्यायाधीश (प्रवेश स्तर) के रूप में 98 पदों के लिए 31 मार्च 2017 को परीक्षा आयोजित होनी थी। उक्त अधिसूचना में उल्लिखित नियमों और शर्तों में से एक शर्त यह भी था कि उम्मीदवार का आवेदन की अंतिम तिथि से 3 साल तक के अंदर कम से कम 24 मामलों में उपस्थित होने के साथ एक वकील के रूप में 7 वर्ष के प्रैक्टिस का अनुभव होना चाहिए।
याचिकाकर्ता ने फॉर्म भरा और 31 अगस्त 2016 को पद के लिए आवेदन किया और परीक्षा के तीनों चरणों में यानी प्रारंभिक, मुख्य और साक्षात्कार के चरणों में सफल रहा। हालांकि इस बीच उन्हें 16 जनवरी 2017 को यूपी न्यायिक सेवा (जूनियर डिवीजन) में भी चुना गया।
पटना हाईकोर्ट द्वारा 21 मार्च 2018 को अंतिम रिजल्ट प्रकाशित किया गया, जिसमें सीरियल नंबर 50 पर उनका (याचिकाकर्ता) का नाम लिखा था। इसके बाद याचिकाकर्ता ने बेगूसराय के न्यायाधीश के रूप अतिरिक्त जिला न्यायाधीश का पद ग्रहण कर लिया।
कोर्ट द्वारा 18 मई 2020 को उन्हें कारण बताओ पत्र जारी किया गया। इसमें धीरज मोर बनाम दिल्ली उच्च न्यायालय (2020) में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय पर प्रकाश डालते हुए कहा गया था कि वह परीक्षा की तारीख (तीनों चरणों) में एक प्रैक्टिस एडवोकेट नहीं था इसलिए बार कोटे के तहत एएसजे के रूप में इनकी नियुक्ति अयोग्य है। इसके बाद याचिकाकर्ता द्वारा कुछ सबूत प्रस्तुत किया गया जिसे 17 दिसंबर 2020 को खारिज कर दिया गया था।
पक्षकारों की प्रस्तुतियां
याचिकाकर्ता का मामला था कि विज्ञापन अधिसूचना के संदर्भ में वह कट ऑफ डेट पर एक वकील के रूप में 7 साल के अनुभव के सभी शर्तों को सफलतापूर्वक पूरा करता है और इसे प्रीलिम्स, मेंस और साक्षात्कार परीक्षा की तारीख पर फिर से शिफ्ट नहीं किया जा सकता है।
इसके अलावा यह भी प्रस्तुत किया गया था कि धीरज मोर मामले में दिए गए निर्णय को उनके मामले में लागू नहीं किया जा सकता है क्योंकि वह तथ्यों के दूसरे सेटों पर आधारित था, एक व्यक्ति से निपटना जो कट ऑफ तारीख पर सेवा में था, जबकि वह कट ऑफ तारीख पर एक वकील था। इसलिए याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 233 (2) के तहत निर्धारित बार उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं करेगा।
दूसरी ओर, यह हाईकोर्ट की ओर से पेश वकील का मामला था कि बार से जिला न्यायाधीश (एंट्री लेवल) के पद पर सीधी भर्ती के लिए एक व्यक्ति के पास न केवल कट ऑफ डेट तक 7 वर्षों का अनुभव होना चाहिए बल्कि परीक्षा की तारीख के साथ-साथ उस तारीख तक होना चाहिए जब उसे नियुक्त किया गया है। वर्तमान मामले में ऐसा नहीं था क्योंकि याचिकाकर्ता यूपी न्यायिक सेवा में शामिल हो गया था। इसका मतलब है कि जिला जज पद के लिए उसके नाम पर विचार न किया जाए।
इसके अलावा यह प्रस्तुत किया गया था कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 233 में इस्तेमा किया गया 'नियुक्ति' शब्द की व्याख्या संविधान में प्राप्त स्थान और संविधान से प्राप्त उद्देश्य अनुसार की जाएगी।
कोर्ट का अवलोकन
संविधान की व्याख्या
कोर्ट ने संवैधानिक व्याख्या के महत्व पर जोर देते हुए कहा कि,
"न्यायालय अपनी संवैधानिक संवेदनशीलता के लिए जीवित होने के नाते एक प्रगतिशील दृष्टिकोण रखता है जिसमें बढ़ते न्यायशास्त्र का दूरदर्शी दृष्टिकोण होता है। न्यायालय को इस विचार से विचलित नहीं होना चाहिए कि संविधान का अंतिम मध्यस्थ होने के नाते संतुलन बनाए रखने के लिए जब भी आवश्यक हो प्रहार करना चाहिए। संस्थापक पिता के लिए भव्य मौलिक दस्तावेज के विभिन्न लेखों में समान रूप से कल्पना की गई है। संविधान का अपना आंतरिक बल और अपनी सोच है कि संविधान के भाग में प्रयुक्त किसी भी शब्द और वाक्यांश की अपने रंग-रूप और विचार हैं। संविधान के किसी अन्य स्थान पर इस्तेमाल किए गए इन्हीं शब्दों की व्याख्या का अलग रंग और रूप दिखाई देगा क्योंकि यह वैचारिक और समझदारी से इस तरह से प्राप्त होता है कि शब्द और खंड का उल्लेख किया गया है और विषय और संदर्भ को ध्यान में रखते हुए उजागर किया गया है। इसके साथ ही आवश्यकता के अनुसार पूर्ण रंग रूप की व्याख्या की जाती है।"
कोर्ट ऐसा करते हुए बार से जिला न्यायाधीश, एंट्री लेवल, सीधी भर्ती के संबंध में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 233 की व्याख्या करने के लिए आगे बढ़ा।
कोर्ट ने कैटैना निर्णय पर भरोसा जताते हुए कहा कि जो लोग अधिवक्ता के रूप में काम कर रहे हैं और उन्हें आगे भी इसी पेशे में काम करना है और न्यायिक अधिकारी जो अधीनस्थ सेवा में नियुक्त होने का विकल्प चुनते हैं, वे पदोन्नति के रास्ते से नियुक्त का दावा कर सकते है और वे अपने अधिवक्ता के रूप में पिछले अनुभव को ध्यान में रखने का दावा नहीं कर सकते क्योंकि यह अनुभव उन्हें सीधी भर्ती में नियुक्ति के लिए योग्य नहीं बनाएगा।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ऐसे व्यक्ति को न केवल कट-ऑफ तारीख के समय बल्कि अपनी नियुक्ति के समय भी 7 साल के अनुभव के साथ एक वकील के रूप में रहना होगा।
कोर्ट ने वर्तमान मामले में उक्त अवलोकन को लागू करने के बाद याचिकाकर्ता के दावे को खारिज करते हुए कहा कि,
"वर्तमान मामले में अधीनस्थ सेवा में शामिल होने से पहले याचिकाकर्ता ने कहा कि कट-ऑफ की तारीख पर उन्होंने फॉर्म भरा और 7 साल के अनुभव का उल्लेख किया था, लेकिन उसके बाद उन्हें उत्तर प्रदेश न्यायिक सेवा में चुना गया और उन्होंने पद ग्रहण किया और सेवा में बने रहे। उसी समय वह बार से जिला जज के रूप में सीधी भर्ती के लिए प्रकाशित विज्ञापन के परीक्षा में बैठे और सफल हुए और उन्हें नियुक्त किया गया, लेकिन रिजल्ट की तारीख के समय वह उत्तर प्रदेश न्यायिक सेवा में कार्यरत था। बाद में उन्होंने उत्तर प्रदेश न्यायिक सेवा पद से अपना इस्तीफा दे दिया, जिसे स्वीकार कर लिया गया और इसके बाद उन्होंने बेगूसराय में अतिरिक्त जिला न्यायाधीशका पद ग्रहण किया। इसलिए यह स्वीकार किया गया कि वे अधीनस्थ न्यायिक अधिकारी के रूप में चयनित होने के बाद भी न्यायिक सेवा के सदस्य बने रहे। उनके इस्तीफे और पद ग्रहण के बीच का समय इतना करीब है, वह फिर से एक वकील बनने का दावा नहीं कर सकता है और यह दिखाने के लिए कोई सबूत नहीं है कि उन्होंने इस अवधि के बीच में काउंसिल के समक्ष आवेदन करके प्रैक्टिस की अनुमति प्राप्त की।"
वर्तमान केस के लिए धीरज मोर जजमेंट का आवेदन
कोर्ट का कहना है कि धीरज मोर मामले में दिए गए निर्णय याचिकाकर्ता पर लागू होगा क्योंकि निर्णय प्रत्याशित ओवररूलिंग नहीं है।
कोर्ट ने उक्त अवलोकनों के मद्देनजर याचिका को खारिज करते हुए कहा कि,
"जब कानून शुरू से ही बहुत स्पष्ट है, तो याचिकाकर्ता को पहले प्रैक्टिस अधिवक्ता होने के आधार पर जिला न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए दावा करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। जिला न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए दावा केवल उन अधिवक्ताओं द्वारा किया जा सकता है जो परीक्षा और नियुक्ति के समय भी प्रैक्टिस अधिवक्ता हैं।"
शीर्षक: सुनील कुमार वर्मा बनाम बिहार राज्य और संगठन।