सरकारी नौकरी के लिए इंटरव्यू में 'दिव्यांग' को साइकिल चलाने के लिए मजबूर किया गया : इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पांच लाख रुपए के मुआवजा देने का आदेश दिया
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मानव गरिमा के महत्व की पुष्टि करते हुए महत्वपूर्ण आदेश में हाल ही में सरकारी डिग्री कॉलेज में लाइब्रेरी प्यून के पद पर नियुक्ति के लिए इंटरव्यू के दौरान एक दिव्यांग उमीदवार को साइकिल चलाने के लिए मजबूर किए पर राज्य को उसे पांच लाख रुपए का मुआवजा देने का निर्देश दिया।
जस्टिस सौमित्र दयाल सिंह की पीठ ने टिप्पणी की,
"याचिकाकर्ता को यह बताने के लिए मुआवजे की राशि दी गई है कि राज्य को अपने नागरिक और उसकी दुर्दशा को सुनने और समझने में समय लग सकता है, लेकिन यह न तो बहरा है और न ही हृदयहीन है। इस न्यायालय में न्याय की मांग करने के लिए उसे अपने पैर खींचने के लिए मजबूर करता है। नागरिक राज्य में हृदय की तरह काम करता है। जब तक हृदय स्वतंत्र रूप से नहीं धड़कता, तब तक जीवन फल-फूल नहीं सकता।"
इसके साथ ही कोर्ट ने 'दिव्यांग' प्रदीप कुमार गुप्ता द्वारा दायर याचिका को आंशिक रूप से अनुमति दे दी।
गौरतलब है कि कोर्ट ने कहा कि राज्य अपने 'विशेष नागरिक' को मुआवजा देने के लिए उत्तरदायी है, जिसकी गरिमा का उल्लंघन किया गया, क्योंकि उसे राज्य के अधिकारियों के कहने पर अपमानित किया गया, जबकि उसकी कोई गलती नहीं थी। न्यायालय ने इस बात पर भी जोर दिया कि राज्य और उसके पदाधिकारी उसकी रक्षा करने में विफल रहे हैं। उसके अपमान करना संविधान के जनादेश के खिलाफ है।
अदालत ने आगे कहा,
"राज्य और उसके पदाधिकारियों ने न केवल विशेष नागरिक को विफल कर दिया, बल्कि उसके जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का भी उल्लंघन किया। यदि दिव्यांग व्यक्ति को गरिमा और सम्मान से वंचित किया जाता है तो मानव अस्तित्व का क्या मूल्य है? गरिमा से वंचित स्वतंत्रता समुद्र-खोल है, जिसे किनारे पर धोया जाता है, मृत और दूसरों के लिए अलंकृत मूल्य है, लेकिन उस अस्तित्व के लिए बेकार है जो इसके भीतर रहता है।"
केस बैकग्राउंड
56 वर्षीय याचिकाकर्ता 50% लोकोमोटर डिसऑर्डर से पीड़ित है। उसने सहारनपुर के सरकारी डिग्री कॉलेज में लाइब्रेरी चपरासी के पद के लिए आवेदन किया। उक्त पद के लिए निर्धारित आवश्यक योग्यता कक्षा पांच पास और साइकिल चलाने की क्षमता है।
उसे इंटरव्यू के लिए बुलाया गया। हालांकि, इंटरव्यू में याचिकाकर्ता का मूल्यांकन नहीं किया गया और उसे कथित तौर पर उसे जाने के लिए कहा गया, क्योंकि वह साइकिल नहीं चला सकता था, जिस पर ट्रेनिंग में जोर दिया गया। हालांकि वह समान दक्षता के साथ ट्राइसाइकिल की सवारी कर सकता है। इसके बाद हाईस्कूल की उच्च शैक्षणिक योग्यता (पुस्तकालय चपरासी के पद के लिए) पर जोर दिया गया और चूंकि याचिकाकर्ता के पास वह योग्यता नहीं है, इसलिए उसे बाहर रखा गया।
हालांकि, याचिकाकर्ता ने अपने अधिकारों के उल्लंघन का दावा करते हुए हाईकोर्ट का रुख किया और सरकारी डिग्री कॉलेज के तत्कालीन प्राचार्य द्वारा अपमान करने का आरोप लगाया, जिन्होंने उनका इंटरव्यू लिया। उसने यह भी आरोप लगाया कि राज्य के उत्तरदाताओं द्वारा शत्रुतापूर्ण भेदभाव किया गया और दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम, 1995 के तहत उसके विशेष अधिकारों का पूर्ण उल्लंघन किया गया।
उसने यह भी तर्क दिया कि केवल उसे रोजगार के अवसर से वंचित करने के लिए चयन प्रक्रिया को रोक दिया गया और उच्च शैक्षणिक योग्यता (याचिकाकर्ता के पास की तुलना में) को दबाया गया ताकि इस पद के लिए याचिकाकर्ता को विचार के क्षेत्र से बाहर रखा जा सके।
न्यायालय की टिप्पणियां
कोर्ट ने नोट किया कि पोस्ट पहचान और लोकोमोटर दिव्यांग व्यक्ति के लिए किए गए आरक्षण के अभाव में याचिकाकर्ता पुराने 'दिव्यांगता अधिनियम' के तहत आरक्षण का दावा करने पर लाइब्रेरी चपरासी के पद पर नियुक्ति के अधिकार का दावा नहीं कर सकता।
कोर्ट ने कहा,
"...याचिकाकर्ता की उम्र लगभग 56 वर्ष है, किसी भी मामले में दिव्यांगग व्यक्ति के लिए किसी भी आरक्षण का दावा करने से पहले पुराने अधिनियम के तहत पद की पहचान करना आवश्यक है। ऐसी कोई पहचान या आरक्षण नहीं है जिसे लोकोमोटर दिव्यांगग व्यक्ति के लिए पोस्ट का विज्ञापन जारी होने से पहले प्रदान किया गया दिखाया गया है। पद की पहचान और आरक्षण के अभाव में याचिकाकर्ता पुराने अधिनियम के तहत आरक्षण का दावा करने पर लाइब्रेरी चपरासी के पद पर नियुक्ति के अधिकार का दावा नहीं कर सकता।"
हालांकि अदालत ने यह भी जोड़ा कि देवबंद, सहारनपुर में सरकारी डिग्री कॉलेज में लोकोमोटर दिव्यांग व्यक्तियों के लिए पर्याप्त पदों की पहचान और आरक्षण प्रदान नहीं करने में प्रतिवादियों की गलती है।
इसके अलावा अदालत ने इसे "सबसे परेशान करने वाला" कहा कि आरक्षण की अनुपलब्धता के बारे में उसे इस तथ्य से अवगत कराने के बजाय गलत तरीके से साइकिल चलाने के लिए कहा गया, जो स्पष्ट रूप से वह नहीं कर सकता।
किसी भी मामले में अदालत ने कहा कि विज्ञापन में 'साइकिल' के विनिर्देश के अभाव में याचिकाकर्ता को 'ट्राईसाइकिल' की सवारी करने की अनुमति दी जानी चाहिए, जो साइकिल के रूप में भी योग्य है। दूसरे शब्दों में न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यदि अन्यथा पात्र हैं तो याचिकाकर्ता को सामान्य श्रेणी के उम्मीदवार के रूप में प्रतिस्पर्धा करने की अनुमति दी जानी चाहिए।
नतीजतन, अदालत ने याचिकाकार्ता को 5,00,000/- रुपये पर निर्धारित एकमुश्त मुआवजे का हकदार पाया, जिसे प्रतिवादी राज्य सरकार द्वारा याचिकाकर्ता को तीन महीने की अवधि के भीतर सीधे उसके बचत बैंक खाते में भुगतान करने का निर्देश दिया गया।
केस टाइटल - प्रदीप कुमार गुप्ता बनाम स्टेट ऑफ यू.पी. सचिव (उच्च शिक्षा) और 4 अन्य के माध्यम से [रिट- ए नं. - 18302/2021]
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