असहमति भविष्य में कानून बनाने का आधार: सुप्रीम कोर्ट के जजों ने ब्रिटिश भारत के जज जस्टिस सैयद महमूद को याद किया

Update: 2022-09-19 06:40 GMT

ब्रिटिश भारत में इलाहाबाद हार्हकोर्ट के जज रहे जस्टिस सैयद महमूद के फैसलों पर आधार‌ित किताब "सैयद महमूदः कोलोनियल इंडियाज डिसेंटिंग जज' (Syed Mahmood: Colonial India's Dissenting Judge) का हाल ही में विमोचन किया गया।

विमोचन कार्यक्रम में आयोजित चर्चा में सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस एसके कौल ने कहा, "यह याद रखना चाहिए कि असहमति भविष्य में कानून बनाने का आधार है।"

उन्होंने कहा, "विचार वह है, जो एक जज को लगता है कि कानून ऐसा होना चाहिए और इसलिए, यह इन असहमतियों के माध्यम से न्यायशास्त्रीय विकास होता है, जो बहुत महत्वपूर्ण हैं। जिसे एक असहमतिपूर्ण विचार माना जाता है, भविष्य में अदालत का दृष्टिकोण हो सकता है। कानून में कुछ भी स्थिर नहीं है और यही इसकी सुंदरता है।"

जस्टिस कौल ने क्वीन इंप्रेस बनाम पोहपी में जस्टिस महमूद की ओर से व्यक्त असहमतियों पर कहा,

"1891 में लागू आपराधिक प्रक्रिया की संहिता के तहत अपील में एक दोषी को सुनवाई का मौका देना आवश्यक था, जबकि व्यवहार में, इलाहाबाद हाईकोर्ट का विचार किया कि दोषी को निष्पक्ष सुनवाई का मौका दिया गया, भले ही दोषी अदालत के समक्ष मौजूद न हो या जब तक कि हाईकोर्ट के जज ने मामले के रिकॉर्ड की जांच की, उसकी ओर से एक वकील मौजूद रहा। जस्टिस महमूद ने यह मुद्दा फुल बेंच को भेजा था, जिसमें चीफ जस्टिस जॉन एज सहित चार जज शामिल थे। बहुमत ने यह प्रथा को बरकरार रखी, हालांकि, जस्टिस महमूद ने अपनी शक्तिशाली असहमति में उन परिणामों की गंभीरता की चर्चा की, जो दोषी की सुनवाई का मौका नहीं देने के बाद होंगे। जस्टिस महमूद ने कहा था, अपील में सुनवाई के अधिकार को किसी भी तरह से कमजोर नहीं किया जा सकता है।"

जस्टिस कौल ने कहा,

"जस्टिस महमूद की असहमति आज कानून की स्थिति है। कानून की व्याख्या के प्राकृतिक परिणाम के रूप में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत को पढ़ने का उनका तरीका इतना शक्तिशाली था कि कानूनी प्रणाली में वैधानिक व्याख्या के किसी अन्य तरीके की कल्पना नहीं की जा सकती है, जैसा कि आज यह विकसित हुआ है।

जस्टिस कौल ने कहा,

"आज हम देश में न्याय तक पहुंच की व्यवस्था में सुधार के तरीके खोजते हुए प्रभावी प्रतिनिधित्व के अधिकार को अनुदत्त मानते हैं। हमें उस समय और संदर्भ को ध्यान में रखना चाहिए, जब जस्टिस महूमद ने अपने विचार रखे थे। हमे स्वतंत्रता के बाद इसे अपनाने में कई साल लगे, इसलिए उनकी विचार प्रक्रिया को समय से आगे कहा जा सकता है।"

कार्यक्रम मौजूद सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस रवींद्र भट ने भी पोहपी ड‌िसेंट पर चर्चा की और रेखांकित किया कि कैसे ये निर्णय "प्राकृतिक न्याय की शुरुआती और बेहतरीन व्याख्याओं में से एक था, उन्होंने इसके महत्व को शक्तिशाली रूप से, मगर बिना किसी धूमधाम के उजागर किया।"

जस्टिस भट ने बताया कि कैसे जस्टिस महमूद ने "हालात की विसंगतियों को उजागर किया अपनी शक्तिशाली असहमति दर्ज की।"

जस्टिस भट ने बताया,

"मुझे इस निर्णय के बारे में तब पता चला जब ज‌‌‌स्टिस वर्मा ने 1994 में जमात-ए-इस्लामी हिंद में सुनवाई में इसका हवाला दिया, जहां सरकार ने कुछ संगठनों पर प्रतिबंध लगाने के अपने तर्क के समर्थन में विशेषाधिकार का दावा किए बिना दस्तावेजों को वापस लेने की कोशिश की।"

सुप्रीम कोर्ट के एक और जज जस्टिस सुधांशु धूलिया ने भी पोहपी डिसेंट की चर्चा की।

उन्होंने कहा,

"पुरानी आपराधिक प्रक्रिया संहिता में, जब हाईकोर्ट के समक्ष अपील दायर की जाती थी तो शब्द यह था कि अपीलकर्ता को सुना जाना है। याद रखें, यह वह समय था, जब हत्या की सजा मौत थी या आजीवन कारावास, लेकिन आम तौर पर मौत की सजा दी जाती थी। यदि किसी जज ने आजीवन कारावास देना चुना हो तो उसे मृत्यु का कारण बताना होता था। यह आज से उलट था, जब कि मृत्युदंड केवल दुर्लभतम मामलों में दी जाती है। 'सुनवाई' का अर्थ यह था कि भले ही वह व्यक्ति, जिसे निचली अदालत ने दोषी ठहराया है और उसने हाईकोर्ट के समक्ष अपील की है, उसका प्रतिनिधित्व वकील ने नहीं किया हो, और वह व्यक्तिगत रूप से अदालत के समक्ष उपस्थित भी न हुआ हो, अदालत मानती थी कि यदि जज उसकी फाइल पढ़ ली तो उसकी सुनवाई हो गई।"

जस्टिस धुलिया ने कहा, महमूद को यह बहुत अजीब लगा, उन्होंने इसे फुल बेंच के पास भेजा था। चीफ जस्टिस एज ने चार जजों की फुल बेंच का गठन किया था। बहुमत ने माना कि इसमें कुछ भी गलत नहीं है, कि अगर किसी व्यक्ति की ओर से एक वकील पेश नहीं हुआ है और न ही अपीलकर्ता कोर्ट में पेश हुआ है, क्योंकि वह जेल में है, लेकिन अगर जजों ने फाइल देखी है, तो यह सुनवाई के बराबर होगी।

जस्टिस धुलिया ने कहा, महमूद ने अपने प्रसिद्ध और कड़ी असहमति में कहा था भारत में यह ब्रिटिश कानून है और इसे जितनी जल्दी समाप्त कर दिया जाए उतना अच्छा है। पूरी हाईकोर्ट में वह एकमात्र भारतीय थे।


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