दिल्ली हाईकोर्ट ने पीड़िता के पॉलीग्राफ टेस्ट के आधार पर बलात्कार मामले में आरोपियों को बरी करने के लिए ट्रायल कोर्ट की खिंचाई की
दिल्ली हाईकोर्ट ने बलात्कार के मामले में पीड़िता पर किए गए पॉलीग्राफ टेस्ट के परिणामों के आधार पर आरोपी को बरी करने के लिए राष्ट्रीय राजधानी की निचली अदालत की खिंचाई की।
जस्टिस स्वर्णकांत शर्मा ने इसे गलत बताते हुए कहा कि पॉलीग्राफ टेस्ट के नतीजे को जांच का हिस्सा माना जा सकता है और मुकदमे के दौरान पीड़िता और अन्य गवाहों की गवाही की कसौटी पर परखा जा सकता है, क्योंकि ऐसा नतीजा अपने आप में सही नहीं है।
अदालत ने कहा,
"ट्रायल कोर्ट द्वारा पॉलीग्राफ टेस्ट पर भरोसा करना और यह टिप्पणी करते हुए कि पीड़िता झूठ बोल रही है, जबकि आरोपी सच्चा है, ट्रायल शुरू हुए बिना ही आरोपी को बरी कर देना, आपराधिक न्यायशास्त्र के स्थापित सिद्धांतों के खिलाफ यांत्रिक तरीके से यांत्रिक सहायता लेने का उदाहरण है, इस प्रकार ऐसे आदेशों की बुनियाद को ही गलत और अवैध बनाना है।"
कोर्ट ने कहा कि संभावित सत्य या संभावित झूठ, पॉलीग्राफ टेस्ट रिपोर्ट के माध्यम से अदालत में प्रस्तुत किया गया जब न तो कोई मेडिकल/विशेषज्ञ गवाह, न ही अभियोजन पक्ष या अन्य गवाह, या इलेक्ट्रॉनिक आदि को उनकी एक्जाइम के माध्यम से रिकॉर्ड पर लाया गया है।
इसके अलावा साक्ष्य और सीआरपीसी की धारा 161 के तहत एमएलसी और अभियोजन पक्ष और गवाहों के बयान और सीरआपरीसी की धारा 164 के तहत आरोप पर आदेश का आधार बनाया जाना है। ऐसे में पॉलीग्राफ टेस्ट रिपोर्ट रिकॉर्ड पर उक्त सामग्री को प्रतिस्थापित नहीं कर सकती।
जस्टिस शर्मा एक पुरुष और दो महिलाओं समेत तीन आरोपियों को बरी करने के निचली अदालत के आदेश के खिलाफ पीड़िता की याचिका पर सुनवाई कर रहे थे। जहां पुरुष आरोपी को बलात्कार के अपराध से बरी कर दिया गया, वहीं अन्य दो महिला आरोपियों को चोट पहुंचाने और आपराधिक धमकी देने के अपराध से बरी कर दिया गया।
आदेश को संशोधित करते हुए अदालत ने अस्वीकृति के साथ कहा कि आरोपी को अंतरिम संरक्षण और बाद में अग्रिम जमानत देने वाले ट्रायल कोर्ट के जज न तो ट्रायल कोर्ट थे और न ही ट्रायल के चरण में सबूतों की सराहना कर रहे थे। साथ ही न ही किसी भी तरह से जांच की निगरानी कर रहे थे। केवल जमानत रोस्टर पकड़ रहे थे और उन्होंने खुद ही पुलिस से न केवल आरोपी का बल्कि पीड़ित का भी पॉलीग्राफ टेस्ट कराने को कहा था।
अदालत ने कहा,
"साक्ष्य की स्वीकार्यता, पीड़ित के बयान की सत्यता या यहां तक कि पॉलीग्राफ टेस्ट की स्वीकार्यता और इसकी सीमा, न्यायिक उदाहरणों के माध्यम से तय किए गए ट्रायल कोर्ट द्वारा आरोप तय करने के चरण में नहीं दी जा सकती थी। ट्रायल कोर्ट आरोप तय करने के चरण में मिनी-ट्रायल आयोजित करने के लिए अधिकृत या सक्षम नहीं है।
इसमें जोड़ा गया,
“यदि आपराधिक अदालतें आरोप के चरण में ही पॉलीग्राफ टेस्ट के आधार पर आरोपियों को बरी करना शुरू कर देंगी तो आपराधिक मुकदमा- पीड़ित के बयान की सत्यता का टेस्ट करने या अभियोजन पक्ष द्वारा अपने मामले को उचित संदेह से परे साबित करने के बजाय लड़खड़ा जाएगा। यह पॉलीग्राफ टेस्ट की सराहना तक सीमित है, न कि अभियोजन पक्ष द्वारा एकत्र की गई सामग्री और पीड़ित के बयानों और गवाही के परीक्षण के लिए।”
अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि पुरुष आरोपी के खिलाफ बलात्कार का अपराध बनता है, क्योंकि मुकदमे के उद्देश्य से उसके खिलाफ आगे बढ़ने के लिए रिकॉर्ड पर पर्याप्त सामग्री है। इसमें यह भी कहा गया कि अन्य दो महिला आरोपियों के खिलाफ चोट पहुंचाने के साथ-साथ सामान्य इरादे का अपराध करने का भी आरोप लगाया गया।
अदालत ने कहा,
"इसके मद्देनजर, यह न्यायालय ट्रायल कोर्ट के आदेश को उस हद तक रद्द करता है, जिसके तहत प्रतिवादी नंबर 2 को आईपीसी की धारा 376 के तहत बरी कर दिया गया और प्रतिवादी नंबर 4 और 5 को आईपीसी की धारा 323/34 के तहत बरी कर दिया गया। इस प्रकार, विवादित आदेश केवल इस सीमा तक संशोधित किया गया।”
याचिकाकर्ता के वकील: प्रतीक बघेल और दीपक आर्य।
प्रतिवादियों के वकील: नरेश कुमार चाहर, राज्य के एपीपी।