प्रथागत तलाक एक सामाजिक बुराई, जो बीमार दिमाग वाले पुरुषवादी रवैये के कारण होते हैं: गुजरात हाईकोर्ट

Update: 2021-09-24 08:00 GMT

गुजरात हाईकोर्ट ने यह रेखांकित करते हुए कि प्रथागत तलाक एक सामाजिक बुराई है, हाल ही में एक जोड़े के प्रथागत तलाक के आधार पर उनके विवाह के विघटन की घोषणा करने से इनकार कर दिया।

हाईकोर्ट ने कहा कि पत्नी द्वारा इसे पर्याप्त रूप से साबित नहीं किया गया (जिसने एक अपील दायर कर ऐसी घोषणा करने की मांग की थी)।

पीठ ने,हालांकि स्पष्ट किया कि दोनों पक्ष हिंदू विवाह अधिनियम के प्रासंगिक प्रावधान के तहत एक उपयुक्त आवेदन दायर करने और सहमति से तलाक की एक डिक्री के लिए प्रार्थना करने के लिए स्वतंत्र हैं और अदालत को इस तरह के आवेदन पर जल्द से जल्द सुनवाई करने का निर्देश दिया है।

जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस वीडी नानावटी की बेंच ने अपने आदेश में कहा कि प्रथागत तलाक कुछ लोगों द्वारा ही तय किए जाते हैं और हो सकता है कि उन्हें सामाजिक विकास और संवैधानिक परिप्रेक्ष्य के बारे में ज्यादा जानकारी न हो।

कोर्ट ने कहा कि,

''इस तरह के प्रथागत तलाक महिलाओं की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सक्षम मंच के समक्ष उनके मुद्दों पर निर्णय किए जाने के मौलिक अधिकारों को प्रभावित कर रहे हैं ... संवैधानिक सिद्धांतों के विकास और महिलाओं के पक्ष में इतने सारे कल्याणकारी कानून बन जाने के बावजूद भी न्यायालय प्रथागत तलाक को मान्यता दे रहे हैं, जिसे कभी स्वीकार नहीं किया जा सकता है और न ही अनुमति दी जा सकती है। प्रथागत तलाक निस्संदेह एक सामाजिक बुराई है। प्रथागत तलाक निस्संदेह बीमार दिमाग वाले पुरुषवादी रवैये के कारण हो रहे हैं।''

दार्शनिक बर्ट्रेंड रसल का जिक्र करते हुए, कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रीय नीति सबसे अच्छी नीति है और क्षेत्रवाद एक बुरी नीति है और इसलिए, कोर्ट ने इस बात पर भी जोर दिया कि हमारे महान राष्ट्र के विकास के लिए लोगों के दिमाग में राष्ट्रवाद की भावना जगाना महत्वपूर्ण है।

कोर्ट ने माना कि,

''अंतर्राष्ट्रीयवाद संभव नहीं है। क्षेत्रवाद एकता को पंगु बना देगा और विकास गतिविधियों को रोक देगा। इस प्रकार, न्यायालयों और राजनेताओं को क्षेत्रवाद को मान्यता या प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए। लेकिन, उन्हें राष्ट्रवाद को बढ़ावा देना होगा।''

संक्षेप में मामला

अपीलकर्ता (मूल वादी/पत्नी) और प्रतिवादी (मूल प्रतिवादी/पति) के बीच विवाह वर्ष 2010 में जिला अमरेली (गुजरात) के एक गांव में हुआ था। दोनों पक्ष लेउवा पटेल समुदाय से संबंध रखते हैं।

समय के साथ, अपीलकर्ता (पत्नी) और प्रतिवादी (पति) के बीच वैवाहिक विवाद उत्पन्न हुए और जब ऐसा प्रतीत हुआ कि पार्टियों के बीच सुलह नहीं हो सकती, तो परिवार के सदस्यों और पार्टियों के रिश्तेदारों ने तलाक की एक प्रथागत डीड द्वारा विवाह को भंग करने का फैसला किया।

नतीजतन, समुदाय के पंचों ने प्रथागत तलाक के माध्यम से विवाह को समाप्त करना उचित समझा और पार्टियों ने सौहार्दपूर्ण ढंग से प्रथागत तलाक को स्वीकार कर लिया।

अब, चूंकि पत्नी विदेश में बसना चाहती है और विदेशी दूतावास/आप्रवासन प्राधिकरण तलाक की प्रथागत डीड को स्वीकार नहीं करता है, इसलिए कानून की नजर में पार्टियों की वैवाहिक स्थिति को स्पष्ट करने के लिए पत्नी ने फैमिली कोर्ट के समक्ष एक केस दायर किया। जिसमें यह घोषणा करने की मांग की गई कि तलाक की प्रथागत डीड के माध्यम से पक्षकारों के बीच विवाह को वैध रूप से भंग कर दिया गया है।

फैमिली कोर्ट ने इस आधार पर वाद को खारिज कर दिया कि वादी लेउवा पटेल समुदाय में प्रचलित प्रथागत तलाक की किसी भी प्रथा को साबित करने में विफल रही है। इस प्रकार आक्षेपित निर्णय और आदेश से असंतुष्ट होने के कारण, अपीलकर्ता - मूल वादी (पत्नी) ने न्यायालय का रुख किया और तत्काल अपील दायर की,परंतु पति अपील में पेश नहीं हुआ।

न्यायालय की टिप्पणियां

प्रारंभ में, न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न फैसलों का हवाला देते हुए निष्कर्ष निकाला कि तलाक के सामान्य कानून के विपरीत, जिस समुदाय से पक्षकार संबंधित हैं, उसमें प्रथागत तलाक के प्रचलन को, विशेष रूप से इस तरह की प्रथा का प्रस्ताव देने वाले व्यक्ति द्वारा स्थापित किया जाना चाहिए ताकि तलाक दिया जा सके।

इस संबंध में, कोर्ट ने कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 3 (ए), 4 (ए) और 29 (2) को एक साथ पढ़ने से संकेत मिलता है कि हालांकि अधिनियम की धारा 29 (2) प्रथागत अधिकारों की रक्षा करती है। इसलिए एक व्यक्ति जो इस तरह के रिवाज पर निर्भर है, उसे यह साबित करना होगा कि इस तरह के रिवाज लंबे समय तक लगातार और समान रूप से माने गए है और इन्होंने हिंदुओं के बीच स्थानीय क्षेत्र, जनजाति, समुदाय, समूह या परिवार में कानून का बल प्राप्त किया है और ऐसी प्रथा अनुचित या सार्वजनिक नीति के विरोध में नहीं हैं।

न्यायालय ने इसका जवाब देते हुए कहा कि,

''यह समझना मुश्किल है कि अपीलकर्ता-वादी (पत्नी) ने फैमिली कोर्ट से लेउवा पटेल समुदाय के पांच सदस्यों के हलफनामों पर विचार करने की अपेक्षा कैसे की। सवाल यह है कि क्या इस तरह के हलफनामे कानूनी सबूत होंगे? ... हमारे विचार में, अपीलकर्ता - वादी (पत्नी) को पंचों की उपस्थिति में दस्तावेज के निष्पादन द्वारा तलाक प्राप्त करने के लिए लेउवा पटेल समुदाय में प्रचलित प्रथागत तलाक की प्रथा को साबित करने में बुरी तरह विफल कहा जा सकता है,खासतौर पर जब इस तरह का प्रथागत तलाक अधिनियम,1955 के प्रावधानों के तहत निर्धारित तलाक के सामान्य कानून के विपरीत है।''

इस पृष्ठभूमि पर विचार करते हुए न्यायालय ने पत्नी द्वारा दायर अपील को खारिज कर दिया और अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि प्रचलित रीति-रिवाजों के साथ-साथ प्रथा के बारे में बुनियादी कारकों का पता लगाए बिना ही प्रथागत तलाक को सिविल न्यायालयों द्वारा अनुमोदित किया जा रहा है। प्रथागत तलाक को कानून द्वारा कभी भी स्वीकृति या मान्यता नहीं दी जा सकती है।

इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी कहा कि,

''हिंदू विवाह अधिनियम, जिसे वर्ष 1955 में अधिनियमित किया गया है, ने इस तरह के प्रथागत तलाक को मान्यता दी और अब, 64 वर्षों की समाप्ति के बाद, प्रथागत तलाक देने की प्रथा को न तो अपनाया जा सकता है और न ही इसका पालन किया जा सकता है और न्यायालयों को ऐसे किसी प्रथागत तलाक को मंजूरी नहीं देनी चाहिए,जिसे समुदाय के कुछ पुरुषों या पति या पत्नी के रिश्तेदारों द्वारा मान्यता दी गई हो। इस तरह के प्रथागत तलाक को मंजूरी देने की स्थिति में, इसके निहितार्थ बड़े होंगे और हम पिछडेपने की ओर बढ़ेंगे और इसे कभी स्वीकार नहीं किया जा सकता है।''

परिवार की अवधारणा के महत्व को रेखांकित करते हुए, न्यायालय ने कहा कि हमारे राष्ट्र के विकास के लिए इस अवधारणा को संरक्षित करने की आवश्यकता है और आगे कहा कि भारतीय समाज में तलाक एक सामाजिक बुराई है। कोर्ट ने इस बात पर भी जोर दिया कि केवल चरित्रवान व्यक्ति ही एक अच्छे परिवार का निर्माण कर सकते हैं और एक अच्छा परिवार ही अच्छे राष्ट्र का निर्माण करता है।

कोर्ट ने कहा कि,

''एक अच्छा राष्ट्र अकेले विकासात्मक गतिविधियों में समृद्ध हो सकता है। इस प्रकार, अच्छे परिवार हमारे महान राष्ट्र के विकास की नींव हैं ... मनुष्य एक सामाजिक प्राणी होने के नाते अलग नहीं रह सकता है। इन परिस्थितियों में, एक तरफ हम महिला सशक्तिकरण, सभी क्षेत्रों और सभी स्तरों पर महिलाओं के लिए अवसर की बात कर रहे हैं हालांकि, दूसरी तरफ हम तलाक देना, भरण-पोषण आदि जैसे कुछ अन्य कारकों की उपेक्षा कर रहे हैं।''

केस का शीर्षक - भारतीबेन (पत्नी अमितभाई विट्ठलभाई और बेटी रविजीभाई कवानी) बनाम अमितभाई विट्ठलभाई सोजित्रा

आदेश/निर्णय डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें



Tags:    

Similar News