कस्टोडियल टॉर्चर: मद्रास हाईकोर्ट की पुष्टि, पीड़ित को एक लाख का मुआवजा देने सेशन कोर्ट का फैसला बरकरार
मद्रास हाईकोर्ट की एकल पीठ के जज जस्टिस सुब्रमणियम प्रसाद ने सेशन जज के एक फैसले को बरकरार रखा है, जिसमें उन्होंने हिरासत में यातना, शारीरिक चोट और अपमान पीड़ित एक व्यक्ति को एक लाख रुपए का मुआवजा देने का आदेश दिया था।
पीड़ित ने प्रधान जिला एवं सत्र न्यायाधीश के समक्ष याचिका दायर की, जिसमें कस्टोडियल टॉर्चर के आरोप लगाए गए थे। हालांकि मामले में राज्य की आरे से एक प्रतिवाद दायर किया गया था कि पीड़ित की मां ने मानवाधिकार अधिनियम के तहत पहले ही अदालतों का दरवाजा खटखटा चुकी है।
चूंकि प्रधान जिला और सत्र न्यायाधीश ने पहले ही मुआवजे के रूप में 3,500 रुपए दिए चुके हैं, इसलिए राज्य की दलील थी कि एक ही एक ही घटना के लिए पीड़ित दो बार मुआवजे का दावा नहीं कर सकता।
सत्र न्यायाधीश ने तथ्यों के अध्ययन के बाद कहा कि पीड़ित को अवैध तरीके से हिरासत में लिया गया था, उसे शारीरिक यातना दी गई, अपमान किया गया। उन्होंने पीड़ित को मुआवजे के रूप में राज्य को एक लाख रुपए की राशि देने का निर्देश दिया, जो अप्रत्यक्ष रूप से पुलिस की कार्रवाई के लिए जिम्मेदार है।
एकल पीठ ने सत्र न्यायाधीश के फैसले को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट के कुछ ऐतिहासिक निर्णयों पर भरोसा किया।
डीके बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने "अत्याचार" को परिभाषित करने के लिए कई लेखकों को उद्धृत किया था और कहा था कि, "हिरासत में होने वाले सभी अपराधों में अहम चिंता केवल शरीरिक पीड़ा नहीं होती, बल्कि वह मानसिक पीड़ा भी होती है, जिससे एक व्यक्ति पुलिस की चारदीवारी या लॉक अप में गुजरता है। पुलिस हिरासत में शारीरिक पीड़ा हो बलात्कार, एक व्यक्ति के मानसिक आघात की सीमा और उसका अनुभव कानून के दायरे से परे है।"
सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था-
"अत्याचार, क्रूरता, अमानवीय या अपमानजनक बर्ताव जैसे शब्दों के बारे में आम समझ बहते हुए खून और टूटी हुई हड्डियों की विभत्स तस्वीरों के साथ जुड़ी हुई हैं। हालांकि, हमें यह मानना चाहिए कि किसी व्यक्ति की मानसिक प्रक्रियाओं में जबरन घुसपैठ भी है, मानव गरिमा और स्वतंत्रता पर हमला है, जिनके प्रायः दीर्घकालीक और गंभीर परिणाम होते हैं। (पत्र 'मर्सी स्ट्रॉस, 'द डिफेंस ऑफ़ द टेररिज्म - टॉर्चर' का निष्कर्ष भी ऐसा ही है।)
महमूद नैय्यर आज़म बनाम छत्तीसगढ़ के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है-
"राज्य को यह बताना जरूरी है कि पुलिस अधिकारियों का यह पवित्र कर्तव्य है कि वो यह याद रखें कि हिरासत में एक नागरिक को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त उसके मौलिक अधिकार से वंचित नहीं किया जाए।
उस व्यक्ति पर कानूनन प्रतिबंध लगाए गए हैं, जिसके तहत उसके मौलिक अधिकार पर अंकुश लगाा है, न कि उसके मूल मानवाधिकारों को कमजोर किया गया है, कि पुलिस अधिकारी उसके अमानवीय व्यवहार करने लगे।"
इन मामलों के साथ कोर्ट ने एस नाम्बी नारायण बनाम सिबी मैथ्यूज व अन्य के मामले पर भी भरोसा किया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने राज्य के खिलाफ मुआवजे के आदेश पर अपनी राय दी थी-
"अब बखूबी तय हो चुका है कि लोक सेवकों द्वारा किसी व्यक्ति को अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकारों हनन के निवारण का उपयुक्त और प्रभावी उपाय राज्य सरकार पर मुआवजा राशि अदा करने की जिम्मेदारी डालना है। हालांकि, मुआवजे की मात्रा मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करती है।"
इन मामलों पर भरोसा करते हुए कोर्ट ने मुआवजे के खिलाफ अपील को खारिज कर दिया। उच्च न्यायालय ने शारीरिक यातना और अपमान के एवज में पीड़ित को सत्र न्यायाधीश द्वारा दिए गए एक लाख रुपए के मुआवजे के आदेश को बरकरार रखा।
केस का विवरण
केस: तमिलनाडु राज्य बनाम एस आनंद
केस नंबर: 2019 का डब्ल्यूए नंबर 3806 और 2019 का सीएमपी नंबर 24031
कोरम: जस्टिस सुब्रमणियम प्रसाद
वकील: एपीपी (अपीलकर्ताओं के लिए)
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