"कस्टडी में जांच उचित", हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने देह व्यापार के आरोपी को अग्रिम जमानत देने से इनकार किया
हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने मंगलवार को किशोर लड़कियों को देह व्यापार में धकेलने के आरोपी एक व्यक्ति को अग्रिम जामनत देने से इनकार कर दिया। आरोपी पर शादी का लालच देकर किशोर लड़कियों की तस्करी और उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देह व्यापार में धकेलने में लिप्त एक रैकेट का हिस्सा होने का आरोप है।
जस्टिस विवेक सिंह की एकल पीठ ने कहा कि एक अभियुक्त सभी मामलों में हिरासत में पूछताछ की आवश्यकता नहीं होने पर भी अग्रिम जमानत का हकदार नहीं हो सकता है। कोर्ट ने कहा कि जमानत अर्जी खारिज करने का एकमात्र कारण हिरासत में पूछताछ की आवश्यकता नहीं है।
कोर्ट ने यह भी कहा कि "व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार और जांच एजेंसी के जांच अधिकार और जांच के उद्देश्य से एक अपराधी को गिरफ्तार करने के अधिकार के बीच एक संतुलन बनाना होगा।"
कोर्ट ने आगे कहा, "मामले के सभी तथ्यों, परिस्थितियों, उप-महाधिवक्ता और याचिकाकर्ता के वकील की दलीलों और अपराध की प्रकृति और गंभीरता, जिस प्रकार लड़की को शिमला से उत्तर प्रदेश के एक सुदूर गांव में एक संगठित तरीके से पहुंचाया/ भेजा गया, को ध्यान में रखते हुए......मुझे लगता है कि याचिकाकर्ता से हिरासत में पूछताछ की प्रार्थना उचित है और इस तरह स्वीकार्य है इसलिए, याचिकाकर्ता की याचिका जांच अधिकारी / पुलिस के समक्ष तुरंत आत्मसमर्पण करने के निर्देश के साथ खारिज की जाती है।"
कोर्ट ने यह टिप्पणियां मोहम्मद नाजिम की ओर से दायर अग्रिम जमानत याचिका की सुनवाई की है, जिस पर भारतीय दंड संहिता धारा 363, 366A, 370 (4), 506 और 120B के तहत गिरफ्तारी की आशंका जताई।
मामले के अनुसार, लगभग 15 साल की नाबालिग लड़की स्कूल जाने के बाद लापता हो गई थी। उसके पिता ने शिकायत दर्ज कराई कि किसी ने उसे लालच देकर, उसका अपहरण कर लिया है।
जांच के दौरान, पीड़िता के मोबाइल फोन की लोकेशन से पता चला कि वह दिल्ली की ओर जा रही है।
महाधिवक्ता के अनुसार, यह दलील दी गई कि मामले में जांच से पता चला है कि पीड़ित को दुबई ले जाने की योजना थी और कॉल डिटेल रिकॉर्ड से पता चला कि आरोपी उसके नियमित संपर्क में था और वह कथित तौर पर पीड़िता की गतिविधियों पर एक मोबाइल फोन के जरिए निर्देशित, नियंत्रित और मॉनिटर कर रहा था, जो कि कथित रैकैट से कनेक्टेड था।
यह भी प्रस्तुत किया गया कि उक्त आरोपी ने पीड़िता को शादी का झूठा आश्वासन दिया था, जिससे "एक बड़ी साजिश की आशंका" हुई थी। इसे देखते हुए, यह प्रस्तुत किया गया कि मामले में आरोपियों की हिरासत में पूछताछ की गई।
दूसरी ओर, याचिकाकर्ता / अभियुक्तों ने बड़े षड्यंत्र का मामला होने के आरोपों से इनकार करते हुए, कहा कि उनके और पीड़ित के बीच प्रेम संबंध था और उन्होंने वास्तव में दिल्ली में अपने घर में उसके आगमन की व्यवस्था करके उसी सुरक्षा सुनिश्चित की थी।
याचिकाकर्ता ने यह भी प्रस्तुत किया कि याचिकाकर्ता की ओर से कोई कार्रवाई नहीं की गई थी क्योंकि पीड़ित ने स्वेच्छा से अपना घर छोड़ दिया था।
कोर्ट ने वर्तमान मामले के तथ्यों को देखते हुए कहा कि कोर्ट के पास जांच एजेंसी को एक अपराधी को गिरफ्तार न करने के लिए निर्देश जारी करने की शक्ति नहीं है।
कोर्ट ने यह भी उल्लेख किया कि अपराधी को रिहा करने के लिए गिरफ्तारी की प्रत्याशा में सीआरपीसी की धारा 438 के तहत एक निर्देश कोर्ट द्वारा जारी किया जाता है।
कोर्ट ने कहा, "एक अपराधी को गिरफ्तारी से बचाने के लिए दिशा-निर्देश जारी करने के लिए अदालत को सशक्त बनाना एक असाधारण प्रावधान है। इसलिए, इस शक्ति का प्रयोग कोर्ट द्वारा, जहां भी आवश्यक हो किया जाना चाहिए, और उन लोगों के लिए, जो जांच के चरण में न्यायालय के इस तरह के हस्तक्षेप के, आरोप की प्रकृति और गंभीरता के कारण, हकदार नहीं हैं, उनका इतिहास या उनका आचरण उन्हें इस तरह के संरक्षण से बरी कर देता है।"
यह देखते हुए कि सामान्य स्थिति में जांच में कोर्ट द्वारा हस्तक्षेप आवश्यक नहीं है, कोर्ट ने कहा कि धारा 438 ने एक अपवाद बनाया है, ताकि जांच एजेंसी के अधिकार और एक व्यक्ति के जीवन और स्वतंत्रता के बीच संतुलन हो।
यह देखते हुए कि कोर्ट के लि एसभी कारकों की कल्पना करना और उन्हें लागू करना असंभव है, क्योंकि हर मामले का फैसला उसके तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर किया जाता है, न्यायालय ने महाधिवक्ता की दलीलों योग्यता का पता लगाने के बाद याचिकाकर्ता को अग्रिम जमानत देने से इनकार कर दिया।
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