मुकदमेबाज़ अवैधता को बहुप्रचारित करने के औज़ार के रूप में अदालत का प्रयोग नहीं कर सकते, पढ़िए सुप्रीम कोर्ट का ऑर्डर
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि कोई मुकदमेबाज़ अदालत का प्रयोग ग़ैर क़ानूनी बातों को बहुप्रचारित करने के औज़ार के रूप में नहीं कर सकता। शीर्ष अदालत ने कहा कि किसी व्यक्ति को जिस पर दायित्व है, उसे अदालत के अंतरिम आदेश का लाभ लेने की इजाज़त नहीं दी जा सकती।
सुप्रीम कोर्ट गोवा स्टेट कोआपरेटिव बैंक लिमिटेड बनाम कृष्ण नाथ ए (दिवंगत) मामले पर ग़ौर कर रहा था। शीर्ष अदालत के समक्ष मुद्दा यह था कि महाराष्ट्र कोआपरेटिव सोसाइटिज अधिनियम, 1960 की धारा 109 के प्रावधानों के तहत विघटन की निर्धारित अवधि के बीत जाने के बाद सदस्यों से बकाए की वसूली की प्रक्रिया बंद हो जाएगी।
न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, एस अब्दुल नज़ीर और एमआर शाह की पीठ ने कहा कि जिन सदस्यों ने अपील, वसूली की प्रक्रिया पर स्थगन आदेश प्राप्त कर लिया है या मामला लंबित है, वे इस बात का लाभ नहीं उठा सकते कि अधिनियम के तहत विघटन की अवधि समाप्त हो गई है। इस संदर्भ में अमरजीत सिंह बनाम देवी रतन मामले में आए फ़ैसले का ज़िक्र करते हुए पीठ ने कहा कि अदालत की किसी बात से या किसी पक्षकार को नुक़सान नहीं होना चाहिए और अंतरिम आदेश से अगर किसी पक्ष को लाभ हो रहा है तो उसे अवश्य ही निष्फल किया जाना चाहिए।
अदालत ने कहा,
अदालत को किसी पक्षकार क़ानूनी प्रक्रिया दुरुपयोग कर अवैधता को बहुप्रचारित करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए। अदालत का यह कर्तव्य है कि वह बेईमानी और क़ानूनी प्रक्रिया के दुरुपयोग पर प्रभावी पाबंदी सुनिश्चित करे ताकि कोई अदालत की प्रक्रिया का दुरुपयोग कर ग़लती से, अनधिकृत और अनुचित लाभ नहीं उठा पाए । किसी को भी न्यायिक प्रक्रिया का प्रयोग ऐसे लाभ के लिए करने की इजाज़त नहीं दी जा सकती जिसका वह हक़दार नहीं है। क्षतिपूर्ति का उद्देश्य तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक कि अदालत मामलों को सुलझाने में तथ्यात्मक रवैया नहीं अपनाता।
"तथ्यात्मक रवैये के सिद्धांत में अदालत का यह कर्तव्य शामिल है कि वह अंतिम फ़ैसले के समय पक्षकार के साथ पूर्ण न्याय करे और मामले के तथ्यों की स्थिति में अंतरिम आदेश के प्रभाव से तौबा करे। साउथ ईस्टर्न कोलफ़ील्ड्ज़ लिमिटेड बनाम एमपी राज्य (2003) 8 SCC 648 मामले में आए फ़ैसले का हवाला देते हुए अदालत ने कहा कि कोई भी पक्षकार मुक़दमे का फ़ायदा नहीं उठा सकता फ़ैसले में देरी की वजह से होने वाले लाभ को समाप्त करना होगा…"।
क्षतिपूर्ति एक आम क़ानून सिद्धांत है और यह अनुचित लाभ का उपचार है। अदालत को अवैधता को बहुप्रचारित करने का औज़ार नहीं बनाया जा सकता। कोई व्यक्ति जो क़ानूनी रूप से सही है, उसे यह अनुभव नहीं होना चाहिए कि 20-30 साल के बाद अगर उसे मुक़दमे में खींचा गया और वह जीत जाता है तो वह मुक़दमा हारने वाला क़रार दिया जाएगा जबकि हारने वाला वास्तव में लाभ में रहेगा"।