छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने COVID-19 रोगी को रेमडेसिविर इंजेक्शन के कथित गलत प्रयोग पर मेडिकल लापरवाही के दावे से इनकार किया

Update: 2021-08-17 11:24 GMT

छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने रेमडेसिविर इंजेक्शन के कथित गलत प्रयोग के कारण 69 साल की महिला की मौत के लिए एक डॉक्टर के खिलाफ मेडिकल लापरवाही के दावे को खारिज करते हुए कहा कि लापरवाही के लिए महामारी के समय में डॉक्टरों पर आपराधिक मुकदमा चलाने से "भावनात्मक अशांति" पैदा होगी।

न्यायमूर्ति गौतम भादुड़ी ने टिप्पणी की कि डॉक्टरों ने बुरी स्थिति के बावजूद बीमार लोगों का ईलाज करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया।

उन्होंने टिप्पणी की कि किसी व्यक्तिगत राय पर कोई आपराधिक लापरवाही नहीं जोड़ी जा सकती है।

अदालत ने आगे कहा,

"इन परिस्थितियों में किसी को सिस्टम में विश्वास का संकेत देना होगा और शर्तों का दुरुपयोग करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।"

पृष्ठभूमि

याचिकाकर्ता की मां को राम कृष्णा केयर मेडिकल साइंस प्राइवेट लिमिटेड में पीलिया के संक्रमण के साथ भर्ती कराया गया था। अस्पताल में भर्ती के समय उनका COVID-19 टेस्ट किया गया था, जो पॉजीटिव आया था। इससे उनकी तबियत बिगड़ गई। याचिकाकर्ता ने बताया कि उनकी माँ की तबियत खराब होने का कारण गलत तरीके से रेमडेसिविर इंजेक्शन लगाने में बरती गई लापरवाही है। आगे यह भी आरोप लगाया गया कि कुछ दिनों के बाद COVID-19 का टेस्ट निगेटिव आने बावजूद रोगी फिर भी COVID-19 रोगियों के साथ रखा गया था। इसके बाद पीड़ित ने COVID-19 के चलते दम तोड़ दिया।

संबंधित अस्पताल के खिलाफ एक और आरोप यह है कि उसके शव को COVID-19 प्रोटोकॉल का पालन किए बिना याचिकाकर्ता को सौंप दिया गया।

इसलिए याचिका में लापरवाही से इलाज करने और शव को संभालने में COVID-19 प्रोटोकॉल मानदंडों का उल्लंघन करने के लिए अस्पताल के प्रतिवादी के खिलाफ मुकदमा चलाने की मांग की गई।

याचिकाकर्ता की ओर से पेश अधिवक्ता शक्ति राज सिन्हा ने प्रस्तुत किया कि याचिकाकर्ता की मां को जब भर्ती कराया गया था, उसका COVID-19 टेस्ट पॉजीटिव था। हालांकि वह ठीक हो गई, लेकिन अंततः COVID-19 टेस्ट के निगेटिव आने के बावजूद उसकी मृत्यु हो गई।

जाँच - परिणाम

कोर्ट ने टिप्पणी की कि पीड़ित के इलाज के लिए रेमडेसिविर इंजेक्शन आवश्यक था या नहीं, इसका परीक्षण कोर्ट द्वारा नहीं किया जा सकता। इस मामले में डॉ सुरेश गुप्ता बनाम एनसीटी ऑफ दिल्ली सरकार और एएनआर (2004) में फैसले पर भरोसा किया गया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सेवा में लगे लोगों की सेवा कर रहे मेडिकल प्रैक्टिसनर को अनावश्यक रूप से मुदकमेबाजी द्वारा प्रताड़ित नहीं किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी माना था कि देखभाल की साधारण कमी, निर्णय की त्रुटि या दुर्घटना एक मेडिकल पेशेवर की ओर से लापरवाही का प्रमाण नहीं है। साथ ही विशेष या असाधारण सावधानियों का उपयोग करने में विफलता जो किसी विशेष घटना को रोक सकती है, वह कथित मेडिकल लापरवाही का न्याय करने के लिए मानक नहीं हो सकती है।

इसी तरह, जैकब मैथ्यू बनाम पंजाब राज्य और अन्य (2005) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने मेडिकल लापरवाही और उसमें उत्पन्न होने वाली देयता से संबंधित कई दिशानिर्देश दिए थे।

उन दिशानिर्देशों में यह भी नोट किया गया था कि,

"किसी अपराध के लिए लापरवाही में अपराध करने की दुर्भावना का तत्व होना चाहिए। आपराधिक लापरवाही का कृत्य लापरवाही की हद तक होना चाहिए। यह सूक्ष्म स्तर की लापरवाही नहीं होनी चाहिए। उच्च स्तर की लापरवाही होनी चाहिए। इस प्रकार की लापरवाही नागरिक कानून में कार्रवाई के लिए आधार तो दे सकती है, लेकिन अभियोजन का आधार नहीं बन सकती।"

डॉक्टर-रोगी अनुपात को देखते हुए और महामारी के दौरान देश की दुर्बल स्वास्थ्य स्थितियों को देखते हुए, न्यायालय ने कहा,

"महामारी 100 साल बाद वापस आई है। किसी दवा का आविष्कार नहीं हुआ है, जैसे डॉक्टरों ने अपनी क्षमता और समझ के अनुसार COVID-19 संक्रमित रोगियों को अलग-अलग इंजेक्शन दिए हैं। इसमें जोखिम शामिल हो सकते हैं, यह हर किसी को समझना होगा। तथ्य यह है कि सिस्टम जोखिम उठाए बिना लाभ नहीं ले सकता है, क्योंकि तकनीक और अनुभव में हर प्रगति में जोखिम शामिल है। हम में से बाकी डॉक्टरों की तरह अनुभव से सीखना पड़ता है, और अनुभव अक्सर कठिन तरीके से सीखा जाता है।

इसलिए, महामारी के समय में डॉक्टरों को लापरवाही के लिए आपराधिक मुकदमा चलाने से बहुत भावनात्मक अशांति पैदा होगी, जब डॉक्टरों ने बीमारों की सेवा की है। इसके अलावा तथ्य यह है कि डॉक्टर-रोगी अनुपात बुरी तरह प्रभावित रहा है और डॉक्टरों ने बीमारों का इलाज करने में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया है। इसलिए, किसी भी व्यक्तिगत राय पर कोई आपराधिक लापरवाही नहीं लगाई जा सकती है।"

जहां तक शव को सौंपने के लिए आवश्यक दिशा-निर्देशों के उल्लंघन के आरोप का संबंध है, न्यायालय ने कहा कि वह संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए लगातार जांच नहीं कर सकता।

केस शीर्षक: संजय अंबस्थ बनाम छत्तीसगढ़ राज्य और अन्य।

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