'चलता है' का रवैया कानून के शासन के लिए खतरनाक; जमानत मामलों के शीघ्र निस्तारण में राज्य सबसे बड़ी बाधा: उत्तराखंड हाईकोर्ट
उत्तराखंड हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि राज्य जमानत मामलों के शीघ्र निस्तारण में सबसे बड़ी बाधाओं में से एक है। कोर्ट ने जमानत मामलों में राज्य सरकार के ढुलमुल रवैये की कड़ी आलोचना की।
जस्टिस रवींद्र मैथानी की पीठ ने राज्य सरकार को 'चलता है' रवैये पर कड़ी फटकार लगाई। उन्होंने कहा कि जमानत मामलों में राज्य का रवैया कानून के शासन के लिए खतरनाक है।
दरअसल पीठ एक आरोपी द्वारा धारा 384, 323, 504, 506 और 34 के तहत दर्ज मामले में दायर जमानत याचिका का निस्तारण कर रही थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि उसने एक महिला के साथ मिलकर शिकायतकर्ता के खिलाफ छेड़छाड़ का झूठा मामला दर्ज कराया था, जिससे उससे पैसे ऐंठे जा सके।
सीआरपीसी की धारा 161 के तहत दर्ज शिकायतकर्ता के बयान के अनुसार, आवेदक और महिला के बीच बातचीत की एक ऑडियो रिकॉर्डिंग एक पेन ड्राइव में स्टोरी की गई थी। शिकायतकर्ता ने उसे जांच अधिकारी को दिया था। महिला ने शिकायतकर्ता के खिलाफ छेड़छाड़ का झूठा मामला दर्ज कराया था।
अब, जब आवेदक/अभियुक्त ने मौजूदा जमानत याचिका दायर की, तो मामले में आईओ द्वारा एक जवाबी हलफनामा दायर किया गया, हालांकि, पूरे जवाबी हलफनामे में ऑडियो रिकॉर्डिंग का कोई उल्लेख नहीं था।
इसके अलावा, जब अदालत ने आवश्यक विवरण के साथ जवाबी हलफनामा दाखिल करने का निर्देश दिया, तो अभियोजन कई अवसरों के बावजूद ऐसा करने में विफल रहा। इसे देखते हुए न्यायालय ने कहा,
"क्या यह महत्वपूर्ण सबूत नहीं था? वह पेन-ड्राइव कहां है, जो शिकायतकर्ता के अनुसार (संहिता की धारा 161 के तहत बयान) शिकायतकर्ता द्वारा आईओ को दिया गया था? क्या इसे फोरेंसिक जांच के लिए भेजा गया है? क्या भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 65 बी के तहत कोई प्रमाण पत्र आईओ द्वारा लिया गया है? क्या इसे जांच का हिस्सा बनाया गया है? इन सभी को न्यायालय के समक्ष नहीं रखा गया है...इस न्यायालय ने कई बार चिंता व्यक्त की है कि राज्य मामले के निपटारे में सहयोग नहीं कर रहा है। जमानत के मामलों में तेजी से निपटान में राज्य सबसे बड़ी बाधा है। 4 तारीखों के बाद, राज्य संक्षिप्त जवाबी हलफनामा दाखिल करने में विफल रहा। वे विफल क्यों हुए, इसका कोई जवाब नहीं है। पेनड्राइव का ट्रांस्क्रिप्ट ऑन रिकॉर्ड नहीं है, जो एक आवश्यक साक्ष्य है...यदि पेन-ड्राइव, उसकी सामग्री, साक्ष्य का हिस्सा नहीं है; यदि पेन-ड्राइव, जिसे शिकायतकर्ता ने कथित तौर पर आईओ को दिया था, फोरेंसिक जांच के लिए नहीं भेजा गया है; यदि आईओ भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 65 बी के तहत प्रमाण पत्र प्राप्त करने में विफल रहा है। क्या यह जांच अधिकारी की ओर से चूक नहीं है? और अगर है तो कौन देख रहा है? इसकी निगरानी कौन कर रहा है? शायद कोई नहीं।"
इस पृष्ठभूमि में कोर्ट ने कहा कि राज्य द्वारा मौजूदा मामले में प्रदर्शित मामलों की स्थिति, "चलता है रवैया" के अलावा कुछ भी नहीं दर्शाती है, जो कि अदालत ने कहा, कानून के शासन के लिए खतरनाक है।
नतीजतन, अदालत ने निर्देश दिया कि अदालत के आदेश की एक प्रति वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, उधम सिंह नगर को भेजी जाए और उनसे व्यक्तिगत रूप से एक संक्षिप्त जवाबी हलफनामा दाखिल करने और इस आदेश में उठाए गए सवालों के जवाब देने के लिए अदालत के सामने पेश होने को कहा।
कोर्ट ने प्रमुख सचिव, विधि सह कानूनी स्मरणकर्ता से भी इस मुद्दे की जांच करने और तय की गई अगली तारीख को या उससे पहले एक रिपोर्ट प्रस्तुत करने का अनुरोध किया कि भविष्य में ऐसा न हो, इसके लिए क्या कार्रवाई की गई है। उस अधिकारी के खिलाफ क्या कार्रवाई की गई है, जो समय पर संक्षिप्त जवाबी हलफनामा दाखिल करने में विफल रहा है।