गोद लिए गए बच्चे को अचानक जैविक माता-पिता को नहीं सौंप सकते, उसके मनोविज्ञान को प्रभावित कर सकता हैः मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने कस्टडी के लिए दायर हैबियस कार्पस याचिका खारिज की

Update: 2022-03-22 16:30 GMT

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट, इंदौर खंडपीठ ने हाल ही में एक बच्चे की कस्टडी से संबंधित मामले में हस्तक्षेप करने से इनकार करते हुए कहा है कि एक गोद लिए गए बच्चे को तब तक उसके जैविक माता-पिता को नहीं सौंपा जा सकता है, जब तक यह पता न लगाया जाए कि बच्चे को उसके माता-पिता के बारे में कोई जानकारी है या नहीं? कोर्ट ने आगे यह भी कहा कि फैमिली कोर्ट ऐसी पूछताछ/जांच करने के लिए उपयुक्त मंच हैं क्योंकि वे इसके लिए अच्छी तरह से सुसज्जित हैं।

जस्टिस विवेक रूसिया इस मामले में एक हैबियस कार्पस (बंदी प्रत्यक्षीकरण) रिट याचिका पर विचार कर रहे थे। मामले के याचिकाकर्ता एक 12 साल के बच्चे के जैविक माता-पिता हैं और उन्होंने बच्चे के दत्तक माता-पिता से बच्चे की कस्टडी उनको वापस दिलाए जाने की मांग की थी।

याचिकाकर्ताओं का मामला यह है कि उन्होंने अपने एक बेटे को प्रतिवादियों को तब तक के लिए सौंपा था जब तक कि उनका अपना बच्चा नहीं हो जाता है। हालांकि, याचिकाकर्ताओं और प्रतिवादियों के बीच संबंध समय के साथ खराब होते गए। इसलिए याचिकाकर्ताओं ने अपने बेटे के दत्तक माता-पिता /प्रतिवादियों से कहा कि वह उनका बेटा उनको वापस सौंप दें। तेजस्विनी गुआड बनाम शेखर जगदीश प्रसाद तिवारी मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले पर भरोसा करते हुए, याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि असाधारण परिस्थितियों में हाईकोर्ट बच्चे की कस्टडी को सुरक्षित करने के लिए हैबियस कार्पस की रिट जारी कर सकता है।

बच्चे की कस्टडी के लिए हैबियस कार्पस की प्रकृति में एक याचिका पर विचार करते समय अपनी शक्ति के दायरे को ध्यान में रखते हुए, न्यायालय ने कहा,

जहां तक रिट याचिका की अनुरक्षणियता का संबंध है, तेजस्विनी गुआड (सुप्रा) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि बाल कस्टडी मामले में हैबियस कार्पस की रिट उन मामलों में अनुरक्षणीय या सुनवाई योग्य है जहां यह साबित हो जाता है कि माता-पिता या किसी अन्य के पास नाबालिग बच्चे को कस्टडी अवैध और कानून के अधिकार के बिना है। सुप्रीम कोर्ट ने उपरोक्त मामले के पैरा -20 में यह भी माना है कि बाल कस्टडी के मामले में सामान्य उपाय हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम 1956(the Hindu Minority and Guardianship Act 1956) या संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 (The Guardians and Wards Act, 1890) जैसा भी मामला हो, के तहत निहित है। संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 के तहत जांच और रिट कोर्ट द्वारा शक्ति के प्रयोग(जो प्रकृति में संक्षिप्त है) के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर है। केवल एक असाधारण मामले में ही हैबियस कार्पस के लिए एक याचिका पर असाधारण क्षेत्राधिकार का प्रयोग करते हुए नाबालिग बच्चे की कस्टडी के लिए पक्षकारों के अधिकार का निर्धारण किया जाएगा।

अदालत ने कहा कि वर्तमान मामले में, लगभग 12 वर्ष की आयु के बच्चे को याचिकाकर्ताओं को अचानक नहीं सौंपा जा सकता है,जब तक यह पता न किया जाए कि क्या वह इस बात को जानता है कि वे उसके जैविक माता-पिता हैं? कोर्ट ने आगे कहा कि इस तरह की पूछताछ/जांच सक्षम अदालत द्वारा संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 के प्रावधानों के तहत की जा सकती है।

चाइल्ड कस्टडी के मामलों पर विचार करते समय बच्चे का कल्याण सर्वाेपरि होना चाहिए और बच्चे के आराम, स्वास्थ्य, शिक्षा, बौद्धिक विकास और अनुकूल परिवेश को उचित महत्व दिया जाना चाहिए। यह सत्यापित करना आवश्यक है कि क्या बच्चा इस बात से अवगत है कि प्रतिवादी नंबर 2 और 3 उसके माता-पिता नहीं हैं? यदि अचानक उसे यह पता चलता है कि प्रतिवादी नंबर 2 और 3 उसके माता-पिता नहीं हैं, तो यह उसकी मानसिक स्थिति को प्रभावित कर सकता है, इसलिए इन सभी प्रक्रियाओं को एक फिजियोलॉजिस्ट या प्रशिक्षित मध्यस्थ या परामर्शदाता की मदद से धीरे-धीरे करने की आवश्यकता होती है, जो भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत दायर रिट याचिका की कार्यवाही के तहत संभव नहीं है। फैमिली कोर्ट ऐसी स्थिति से निपटने के लिए पूरी उपयुक्त मंच है। यह एक उपयुक्त मामला है जहां पक्षकारों को बच्चे की कस्टडी का दावा करने के लिए फैमिली कोर्ट का दरवाजा खटखटाना चाहिए।

उपरोक्त टिप्पणियों के साथ, न्यायालय ने याचिका को खारिज कर दिया और कहा कि इस आदेश का असर सक्षम अदालत के समक्ष पक्षों के बीच अधिकारों को तय करने समय नहीं पड़ेगा।

केस का शीर्षक- श्रीमती अलका शर्मा व अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य व अन्य

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